“जब हाथी हमारे साथ हैं तो और क्या मुद्दा रह गया?” काग भुषंड ने कड़क कर प्रश्न पूछा था। “हमारी शक्ति, संगठन और संख्या तीनों श्रेष्ठ हैं। तो राजा हम हुए!” उसने अपनी बात बड़ी की थी। “और महा पंच तुम हो ही! कल ही घोषणा कर दो ..”

“क्यों ..?” गंभीर हुए गरुणाचार्य ने मुड़कर काग भुषंड से पूछा था। “ऐसे कैसे चलेगा भाई?”

“सब चलेगा!” चहका था काग भुषंड। “सब चलता है जी! सत्ता इसी का नाम तो है! एक बार सिक्का चल पड़ा तो चल पड़ा। घोषणा होने के बाद तो ..”

गरुणाचार्य बारीक दृष्टि से देख रहा था काग भुषंड को। एक बार सत्ता धूर्तों के हाथ लग गई तो फिर लग ही गई। कौवा एक नम्बर का धूर्त था। किस तरह अकड़ कर उससे बात कर रहा था? कल को राजा बनेगा तो जरूर उसे जेल में डलवा देगा। गरुणाचार्य को चुन्नी का समाजवाद चोखा लगा था। समाजवाद के ही विचार को वह बड़ा करना चाहता था।

“जल्दी क्या है मेरे भाई?” गरुणाचार्य ने बड़ी विनम्रता से कहा था। वह कौवे से उलझना नहीं चाहता था। “वक्त आने दो! फिर सब हो जाएगा।”

“वक्त तो आ गया है, आचार्य।” कौवे ने ऊंची आवाज में कहा था। “जंगलाधीश और सुंदरी राज्याभिषेक और शादी साथ साथ कर रहे हैं!” उसने सूचना दी थी।

अब गरुणाचार्य भी सकते में आ गया था। इतनी गुप्त मंत्रणा इस कौवे के पास कहां से पहुंची – वह समझ नहीं पा रहा था। शशांक के खजाने से खबर चुरा लाना – किसके बूते की बात थी, वह समझ लेना चाहता था।

“माफी चाहूँगा भाई! मैं निराधार कोई घोषणा नहीं कर सकता!” दो टूक कहा था गरुणाचार्य ने।

“बिक गये हो आचार्य!” चहका था काग भुषंड। “अपना मोल ले लिया है तुमने? मुझे क्या पता नहीं है!” वो उछला था और पेड़ पर जा बैठा था। “किसी को मुगालता न हो! अब ईंट से ईंट बजेगी।” कह कर वो उड़ गया था।

काग भुषंड डुग्गी पीट रहा था। कह रहा था – गरुणाचार्य बिक गया है, वह गद्दार है और गिर गया है! सत्ता के लोभ में आकर वो फिर गया है! लालू से उसने अपना मोल मांग लिया है। वह महा पंच के पद को लज्जित कर रहा है। अब वह अपने आदर्शों से गिर गया है। अब उसे हटाया जाए महा पंच के पद से बरखास्त किया जाए और ..

“तपस्वी होने का तो ढोंग है! लेकिन है तो ये निरा निशाचर!” काग भुषंड हुल्लड़ को समझा रहा था। “फिर हम किसी पंच फैसले को क्यों मानें?” उसने तर्क दिया था। “यूं तो सब शेरों का ही हो जाएगा! राज्याभिषेक और शादी साथ साथ हो रही है लेकिन क्यों? किसी को पूछा है क्या?”

“भनक तक नहीं लगी भाई!” हुल्लड़ ने कान हिलाए थे। “ये तो साजिश है, हिमाकत है!” वह बिदका था। “हम शेरों को राजा नहीं बनने देंगे!” हुल्लड़ हुंकारा था। “चाहे जो हो जाए लेकिन ..” उसने अपना फैसला सुनाया था। “न जाने कब से खाते कमाते आए हैं ये शेर? किया है किसी का भला कभी? अपना पेट भरा के सो गये मौज में!”

“और हमें चिंता है – चराचर की!” चहका था काग भुषंड। “आदमी के होते जोर जुल्म से हम बेखबर नहीं हैं। नमक हराम हो गये हैं ये शेर और बघेर!” उसने अपने चारों ओर जमा भीड़ को देखा था। “आदमी का भी दिया खाते हैं .. और ..”

काग भुषंड जिंदा बाद! शेर बघेर मुर्दाबाद!

काग भुषंड की जुटाई भीड़ नारे लगा लगा कर हवा को हिलाती डुलाती रही थी। जंगल अब एक अजब गजब की चला चली से भर गया था। संभावित शेर के राज्याभिषेक और सुंदरी के साथ होने वाली शादी को लेकर एक बाए बेला सा मच गया था। शेर का दिमाग फिर गया लगता है – आम बात बनती जा रही थी। सुंदरी के साथ शादी करके ये क्या कर लेगा – यह आम प्रश्न होती मीटिंगों की तरह रेंगने लगा था।

“लालू सबको पागल बना रहा है।” काग भुषंड चुन्नी को समझा रहा था। “ये शेर तो उल्लू है! इसमें अपने पल्ले की अक्ल तो है ही नहीं। लेकिन तुम ..?” उसने चुपचाप बैठी चुन्नी को घूरा था।

“नयन सुख जी!” चुन्नी ने आदर के साथ संबोधित किया था काग भुषंड को। “जो भी कहो – लेकिन हमें तो लालू जी का वह समाजवाद ही भाता है!” उसने डाल पर बैठे काग भुषंड को पढ़ा था। “हमें तो समाजवाद के ही गुण ज्ञान सभी अच्छे लगते हैं! ये एक विचार है और अच्छा विचार है! अगर ये बड़ा हो जाए तो बुराई क्या है?”

“चालू है ये लालू!” गर्जा था काग भुषंड। “शेर के गले में सुंदरी बांध दी है इसने और अब तुम्हारे गले में ये समाजवाद बांधेगा!” काग भुषंड ने आंखें नचाई थीं। “और तो और इसने उस ज्ञानी गरुणाचार्य को भी मूर्ख बना दिया है।” पंख फड़फड़ाए थे काग भुषंड ने।

अब चुन्नी भी गहरे संकट में आ फंसी थी। काग भुषंड अगर सच कह रहा है तो जरूर ही लालू का दिखाया समाजवाद एक सपना है। सोचने की बात ही तो है – कि शेर और बकरी एक घाट पानी कैसे पी सकते हैं? और कैसे रहेंगे चूहा बिल्ली मॉं बेटे बन कर? ये सब ढोंग जैसा ही लगता है।

“जादूगर है वह!” काग भुषंड ने फिर से कहा था। “खुद राजा बनेगा – तुम देख लेना!” काग भुषंड ने घोषणा जैसी की थी। “ये जो पत्ते वह बांट रहा है न – यह निरी चाल है उसकी! वह और शशांक दोनों मिल कर ..”

“शशांक भाई तो बहुत भोले हैं, काग भुषंड जी!”

“तुम भी तो बहुत भोली हो चुन्नी!” काग भुषंड ने चुन्नी को चाह कर देखा था। “हमने तुम्हें कितना कितना चाहा है – तुम्हें क्या पता?” उसने गंभीरता से कहा था। “हम तो तुम्हें साथ लेकर न जाने क्या क्या सपने देखने लगे थे?” वह रुका था। उसने अब चुन्नी पर होती प्रतिक्रिया को पढ़ा था। “लेकिन तुम फंस गईं लालू के समाजवाद के जंजाल में!” उसने उलाहना दिया था। “सत्ता और राजनीति के सिद्धांत ही अलग हैं, चुन्नी!” वह उसे समझा रहा था। “यहां अपना स्वार्थ ही सर्वोपरि होता है बाकी तो सब व्यर्थ की बकवास है!”

पहली बार चुन्नी को आत्मज्ञान हुआ था!

उसे पहले .. सबसे पहले अपना स्वार्थ देखना चाहिये था। इस शशांक ने वास्तव में ही उसे बातों के जाल में फंसा कर गुमराह कर दिया था।

मेजर कृपाल वर्मा

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