अगर कभी गुलनार के पैर में कांटा भी लग जाता था तो टीस मेरे तन में होती थी। मैं बिगड़ उठता था। मैं संसार को ही भस्म कर देने पर तुल आता था। लेकिन जब कभी गुलनार खुश होती थी तो मेरा मन भी गले में मृदंग पहन नाचता गाता फिरता था – गली गली! गुलनार की खुशी और गम दोनों मेरे थे। अब गुलनार के ही लिए जीने लगा था मैं!

गुलनार थी भी श्रेष्ठ। मैंने इतनी प्रियदर्शी अभी तक नहीं देखी है। मुझे गुलनार का अंग सौष्ठव – जितना सुहाता था – उतना तो मैंने कभी कल्पना के पार भी नहीं देखा था। गुलनार ही मेरे लिए मेरा सर्वस्व थी।

लेकिन न जाने कब और कैसे छूटी ये नेह की डगर!

मैं बहका तो न था। लेकिन .. लेकिन .. गुलनार को शायद लगा था कि मैं बहक गया था। लेकिन बहकी तो गुलनार थी – मैं नहीं। लेकिन उसने सारा दोश मेरे गले मढ़ दिया था और खुद मुक्त हो गई थी।

और जब मैं मौत के साथ भिड़ा था, लड़ा था और मरने से नाट गया था तो प्रभु ने ही मुझे जीवन दान दे दिया था। यही नहीं – मुझे पीतू से स्वामी पीताम्बर दास बनाना भी प्रभु का ही कोई खेल है।

और आज जब गुलनार ने आंखें खोली थीं तो मैं अंधा हो गया था। क्यों ..? क्यों नहीं चाहता था मैं कि गुलनार को भी जीवन दान मिले? मुझे क्या पता है कि गुलनार कहां कहां से लौटी है और क्यों लौटी है? उसे भी क्या पता था कि इस आश्रम का स्वामी पीताम्बर दास उसका पीतू है!

गुलनार की आंखों में भी खुशी नहीं निरी निराशा थी। लेकिन क्यों? क्या अब उसे अपना पीतू नहीं चाहिये था?

कितनी विचित्र है – ये जिंदगी! हमारा अंत है .. और नहीं है! हम मर जाते हैं .. लेकिन नहीं मरते! एक एक याद .. एक एक बात ज्यों की त्यों धरी मिलती है! भूली कहां होगी गुलनार भी पीतू को! लेकिन उसे पीतू से हुई इस मुलाकात का अंदेशा तो था ही नहीं! उसके लिए तो पीतू मर चुका था!

लेकिन मेरे लिए गुलनार आज फिर जिंदा हो गई है!

अब मैं और कौन से जहन्नुम में जाऊंगा – मैं हिसाब लगाने लगा हूँ। जिस निराशा को मैं भूल सा गया था – वह लौट आई है! जिस डर से मैं अब डरता नहीं था – वही डर अब मेरे हाड़ कंपा रहा है! जहां मैं अच्छे बुरे से ऊपर उठ गया था, स्वामी बन गया था और श्रेष्ठ मान लिया गया था – वहीं आज मैं फिर से जब पीतू बन जाऊंगा तो ..?

“चंद्र प्रभा में छलांग लगा कर डूब मरो पीतू!” आज मेरे ही मन ने सलाह दी है। “कहां साधना कर पाओगे अब?”

एक राह मिल गई थी। वो राह जो सीधी प्रभु के चरणों में जाती है। लेकिन गुलनार की मात्र परछाईं पड़ने से सब बदल गया! प्रभु भी अब मुझे कैसे उठाएंगे? तप भंग होगा तो टीसें ही टीसें उगेंगी और अनेकानेक आशीर्वाद लेने आते लोग ..

टूट जाएगा आश्रम!

“गुलनार क्यों आई?” मैंने लौट कर प्रश्न पूछा है। “जो होता है – सब भले के लिए होता है – मैं यही तो बताता हूँ शरणार्थियों को! प्रभु की नजर के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता – ये मेरा ही आदर्श वाक्य है उनके लिए! तो फिर मैं .. मैं .. उदास क्यों हूँ?”

मैं अनायास हंस पड़ा हूँ! प्रभु भी मेरे पास आकर खड़े हो गये हैं! अब गुलनार मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी!

मेजर कृपाल वर्मा

मेजर कृपाल वर्मा

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading