भोली का भूख के मारे बुरा हाल था।
लेकिन आज वह संतो का दिया न खाना चाहती थी। यों तो संतो सेठानी के यहां भण्डार भरे रहते थे। सेठ धरमदास शहर का जाना माना व्यापारी था। कई पुश्तों से ये लोग दिल्ली में रहते आ रहे थे। सेठ की आई गई का छोर ने था। संतो ने भोली को बचपन से ही मुंह लगा लिया था। उसके लिए संतो की जान हाजिर थी – घी-दूध तो कोई गिनती में नहीं था।
लेकिन भोली की भूख आज बिना पृथ्वी राज का कलेवा किये मिटने वाली नहीं थी। जब से भोली की नजर इस सफेद पोश चूहे पृथ्वी राज पर पड़ी थी तभी से उसके मुंह का जायका बिगड़ा हुआ था। गोरी चिट्टी काया का धनी वह पृथ्वी राज धरमराज सेठ से भी बड़ा सेठ लगता था।
जब देखो तब पृथ्वी राज कुछ न कुछ कर रहा होता था।
और ये तेजी चुहिया – उसकी पत्नी ..? दारी का नखरा न देखो। अपने आप को संतो से भी बड़ा मान कर चलती थी। सौत! अगर पड़ गई कभी हत्थे तो एक ही ग्रास में गप्प! भोली सोचे जा रही थी – पृथ्वी राज को खाने के बाद तेजी को चट कर जाना तो उसके बाएं हाथ का खेल था।
लेकिन पृथ्वी राज बहुत होशियार था।
सेठ धरमदास तो निरा भोंदू था उसके मुकाबले! अगर मानस होता ये पृथ्वी राज तो असल में ही धरती का राज भोग रहा होता!
“अरे! कहां मर खप रहा है मूरख!” भोली ने बड़े ही मीठे स्वर में हांक लगाई थी। “मैं तो कल सेठ जी के साथ गंगा स्नान के लिए चली जाऊंगी!” उसने सूचना दी थी। “और मेरा क्या – लौटूं न लौटूं!” वह मुसकुराई थी। “लेकिन तू देख ले!” भोली ने आंख घुमा कर देखा था। “पड़े रहना बिल में ताउम्र! न तू जात का रहेगा न पात का!” वह मुसकुराई थी।
पृथ्वी राज ने भी मुड़ कर तेजी को घूरा था। वह भोली की खेली चाल को समझ कर ही कोई कदम उठाना चाहता था!
“सुनने में क्या बिगाड़ है!” तेजी चुपके से बता रही थी। “इसकी बक बक में हो सकता है कोई पते की बात हो!” तेजी ने मुंह मटकाया था। “हवा कुछ गरम नरम चलती लग रही है जी!” उसने कयास लगाते हुए कहा था।
“कौन सा पहाड़ खिसल गया मौसी?” पृथ्वी राज ने हांक लगाई थी। “काशी जाकर रहने की बात कहां से आ गई? मस्त तो पड़ी हो?”
“अपनी चिंता कहां है रे मुझे!” हंस कर कहा था भोली ने। “मैं तो हमेशा से ही परमार्थ की बात करती हूँ तू तो जानता है!” भोली ने आंखें नचा कर पृथ्वी राज को तलाशा था। “पर तू है कहां नासपीटे?” भोली ने पूछा था।
“पाताल से बोल रहा हूँ!” पृथ्वी राज हंसा था। “पर तुम्हारे चरण यहां नहीं पहुंच सकते मौसी!”
“तो मेरी आवाज ही सुन ले पूत!” तनिक गरज कर बोली थी मौसी। “काग भुषंड जी मुनादी करते फिर रहे हैं! लेकिन तू तो छुपा है अब पाताल में! और यहां हो रहा है – धरती का सौदा!”
“धरती का सौदा ..?” तड़क कर पूछा था पृथ्वी राज ने। “मालिक तो मैं हूँ धरती का! ये दूसरा सौदाई कौन चला आया?”
“काग भुषंड जी हैं!” मूँछें मरोड़ कर कहा था भोली ने। “ये कहते हैं – शेर और बकरी एक घाट पानी पीएंगे!” भोली ने फिर से आंखें नचा कर पृथ्वी राज को तलाशा था। “और अब चूहे और बिल्ली के बीच कोई भेद भाव न होगा! दोनों साथ साथ मां बेटों की तरह ही रहेंगे।”
अब तेजी के कान खड़े हो गये थे!
और पृथ्वी राज सकते में आ गया था!
ये नई मुसीबत कहां से चलकर आई थी?
“कितनी बार कहा है – दुनियादारी की भी खबर रक्खा करो जी! लेकिन नहीं?” अब तेजी को रोष चढ़ने लगा था। “इस तरह से तो हम अपना सब कुछ गंवा बैठेंगे! अगर ये काग भुषंड धरती का सौदा कर बैठा तो ..?”
“अरे, ये होता कौन है – साला काला कौवा!” गरजा था पृथ्वी राज। “दो कौड़ी का नहीं है ये हमारे सामने! अव्वल दर्जे का मक्कार, घोर स्वार्थी और धोखेबाज है!” पृथ्वी राज बिल से उछल कर तेजी के पास आ गया था। “कौन है जो करेगा इसके साथ धरती का सौदा? कौन मान लेगा इस कौवे को राजा?”
तेजी का दिमाग फिर गया था। उसने आये दिन दिल्ली में होते घटना चक्र देखे और सुने थे! सत्ता का फेरबदल आज एक मामूली बात था! कौन किसे कब बेच जाए – कुछ पता नहीं चलता था।
“सुनो जी!” तेजी गंभीर थी। “होने को तो कुच्छ भी हो सकता है!” उसने अपनी राय दी थी। “आज कल सब लुच्चे लफंगे राजा बनने का सपना देख रहे हैं! अच्छों को और सच्चों को पूछ कौन रहा है? अच्छे हो तो रहो अपने घर!”
“तो क्या मैं इस लहचट्टो के सामने आकर जान दे दूं?”
“मैंने यह तो नहीं कहा?”
“तो फिर तूने क्या कहा?”
“काग भुषंड जी से जाकर मिलो!” तेजी की राय सामने आई थी।
“मुझे चोंच में भरेगा ओर चल देगा!” पृथ्वी राज ने खतरा बयान किया था। “जानती तो तुम भी हो इस मक्कार को?”
तेजी सकते में आ गई थी। पृथ्वी राज भी बौखला गया था। हाथ से जाती सल्तनत का गम उसे खाने लगा था। कई पल विकट खामोशी में बीत गये थे।
“अरे सांप सूंघ गया क्या?” भोली गरजी थी। “मर्जी तेरी बेटे पृथ्वी राज!” उसने आह छोड़ कर कहा था। “मैं तो कल चली ही जाउंगी! वैसे भी अब मैंने वैर भाव को त्याग दिया है!” भोली ने बड़े ही मधुर स्वर में कहा था। “आदमी से अब नाता तोड़ने में ही फायदा है!” उसने बहुत धीमे स्वर में कहा था। “तीन दिन हो गये हैं – संतो का दिया मैंने नहीं खाया! और खाऊंगी भी नहीं! मर जाऊंगी – लेकिन अब आदमी का दिया खाना तो अलग – छूने तक की कसम उठा ली है!”
“तेरा आदमी ने क्या बिगाड़ दिया मौसी!” तेजी ने तड़क कर पूछा था। “मस्त मलंग पड़ी है। खूब माल खाती है! चकमा मत दे मौसी ..”
“तू कसम ले ले तेजी!” भोली ने बदन मरोड़ा था। “जब से काग भुषंड जी का ऐलान सुना है – इस आदमी से मुझे नफरत हो गई है!”
“क्यों कर भला!”
“धरती पर सब का सब आदमी का ही हुआ! जंगल के जीवों पर भी कहर टूट पड़ा है!” भोली ने बात गढ़ी थी। “और चूहे भी कौन से सुरक्षित हैं? सबसे ज्यादा तो चूहों की ही दुर्गति हो रही है। अब तो हर जहरीली दवा का असर चूहों पर ही देखा जा रहा है। विष हो या रस – चूहे पहले!” हंस गई थी भोली!
मेजर कृपाल वर्मा