नेहा निवास को मैंने आंखें भर-भर कर देखा था!

साहबज़ादे सलीम की उस सेनफ्रांसिस्को की जागीर से बिलकुल भिन्न था, प्रेम नीड़ था – नेहा निवास जहां मैं अब लम्बी उड़ान भरने के बाद लौटी थी। न जाने क्यों एक थकान मुझे थकाए दे रही थी। अब मैं सुस्ताना चाहती थी। दम लेना चाहती थी। सो जाना चाहती थी। अपने प्रियतम के आगोश में बेहोश हो मैं सब कुछ भूल जाना चाहती थी!

श्रेष्ठ सुख यही है। जीवन का अंतिम सच भी शायद यही है। प्रिय की प्राप्ति अपने आप में संपूर्ण जीवन का सार है। इससे बड़े सुख का नाम मैं तो नहीं जानती! हॉं मानती जरूर हूँ कि अन्य सुख भी हैं लेकिन इतने अदूषित नहीं हैं! इतना पवित्र सुख शायद ही कोई और हो, मैं तो यही मानती हूँ!

“सो लो!” विक्रांत ने स्थिति समझ कर सुझाव दिया था। “थकी हारी हो!” वह हंस रहा था। “मैं समझता हूँ कि ..”

“सुला दो!” मैंने आग्रह किया था।

“विक्रांत ने मेरा सर सहलाया था और मैं स्वप्निल संसार में अलोप हो गई थी!

हम दोनों ही थे। हम परिंदे बन गये थे। हम ने नए-नए पंख पहन लिए थे। हम अब स्वच्छंद और स्वतंत्र वायु वेग के साथ-साथ बहे जा रहे थे। हम अपनी आशाओं और प्रत्याशाओं को लिए-लिए प्रेम भाव के साथ उड़ते चले जा रहे थे। हमारे आचरणों की एक शुद्ध निष्पत्ति हमारे साथ थी। हमारे स्पर्श भी परम पवित्र थे। हम साथ-साथ् मुक्त भाव से उड़ रहे थे .. चहक रहे थे और सुखद बयार के साथ-साथ बहते चले जा रहे थे – निर्बाध – एक अनंत की ओर!

“लौटना तो होगा, नेहा?” विक्रांत ने पूछा था।

“पर क्यों, विक्रांत?” मैंने आपत्ति जताई थी। “इससे बड़ा और कुछ क्या है?” मेरा प्रश्न था।

“यथार्थ!” विक्रांत मुसकुराया था। “यह तो स्वप्न है! मात्र एक अनुभव है, नेहा! सच में यह सुख सुख नहीं है! सच का दूसरा नाम – संघर्ष और सामर्थ्य की परीक्षा है! बिना उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हमें कोई अंत नहीं मिलेगा!”

“तो चलते हैं और कूद पड़ते हैं ..?” मैंने बात काटी थी। “हार जीत किसने देखी है!” मैं मुग्ध भाव से हंसी थी।

सांझ हुए आंख खुली थी मेरी!

वह मेरे पास ही बैठा था। वह मेरे जागने के इंतजार में बैठा-बैठा सूख रहा था। वह मेरा अमर प्रेमी था। वह विक्रांत ही था! अब आंखें भर-भर कर मैंने भी उसे देखा था। मैं उसे देखती ही रही थी – अपलक!

“अब कैसा लग रहा है?” विक्रांत ने गहक कर पूछा था।

“होश में हूँ!” मैं मुस्कराई थी। “ठीक-ठीक देख पा रही हूँ!” मैंने करवट बदली थी।

“कुछ खा लेते हैं! मुझे जोरों की भूख लगी है ..” विक्रांत आग्रह कर रहा था।

“मुझे ही क्यों नहीं खा लेते ..?” मैं कहना चाहती थी। सच में ही मैं चाहती थी कि विक्रांत मुझे ..? बहुत मन था मेरा। तरस रही थी मैं बूंद-बूंद प्रेम रस पीने के लिए ..

“धीरज क्यों खोती हो?” विक्रांत का प्रश्न था। “सब तुम्हारा है .. और तुम्हारे लिए है नेहा!” उसने कहा था। “मैं तो अब हूँ ही तुम्हारे लिए!” उसने वायदा दिया था।

और तब मैं आश्वस्त होकर विक्रांत के साथ अगले सफर पर निकल पड़ी थी।

रोशनी में नहाया धोया नेहा निवास आकर्षक लग रहा था। प्रशांत खामोशी थी। नितांत एकांत था। हम दोनों ही तो थे – वहां!

“मन हो तो नहा लें ..?” विक्रांत ने स्विमिंग पूल के किनारे खड़े होकर पूछा था।

मेरी जैसे नींद खुली थी। मैंने सामने ठहरे उस स्विमिंग पूल को देखा था। तभी सलीम का सेनफ्रांसिस्को में स्थित स्विमिंग पूल मेरी निगाहों के आगे आकर ठहर गया था। दोनों का जैसे मुकाबला था। पर मैंने न जाने क्यों नेहा निवास के ही स्विमिंग पूल को चुना था। और जब सलीम उदास निराश लौटा था तो मैं हंस पड़ी थी!

“क्यों ..? पसंद नहीं आया ..” विक्रांत ने पलट कर पूछा था।

“नहीं-नहीं! वो बात नहीं! चलो नहा लेते हैं!” मैंने स्वीकृति दी थी तो विक्रांत खुश हो गया था। “थकान भी जाती रहेगी!” मैंने अपनी राय भी दे दी थी।

और अब हम दोनों राज हंसों से चोंच में चोंच डाले पानी के कोमल बदन को रौंदते हुए जल मग्न थे! पानी में तैरती रोशनी की परछाइयां हमारे आस पास आ बैठी थीं! मुझे उनसे कोई परहेज तो नहीं था पर हॉं – मुझे लगा था जैसे यह परछाइयां पराई आंखों से हमें देख रही थीं!

“नेहा ..!” अचानक सलीम की परछाईं भी पानी पर उभर आई थी। “आई लव यू नेहा!” उसने बेहद प्रेमाकुल आवाज में कहा था।

मैंने अंजुरी में पानी भरा था और सलीम के मुंह पर उलीच दिया था। जब उसकी परछाईं हताहत हुई थी और मरी थी तो मैं खुलकर हंसी थी।

“बहुत आनंद आ रहा है?” जब विक्रांत ने पूछा था तो मैंने लजाते हुए हामी भरी थी।

“नेहा, डार्लिंग!” इस बार की आवाज खुड़ैल की थी। “मैं .. मैं तो तुम्हारा गुलाम हूँ, डियर! तुम्हारे हुस्न का सौदागर हूँ। मैं .. मैं ..” वह कहता रहा था और मैं सुनती रही थी। मैंने सलीम की तरह उसे नहीं मारा था। “तुम मेरी हो नेहा!” खुड़ैल ने अचानक मुझे आगोश में ले लिया था। “मैं .. तुम्हें ..”

और सच में ही खुड़ैल मेरे भीतर प्रवेश पा गया था। सब कुछ वही घटने लगा था – जो घट चुका था! मेरा बेईमान मन माना ही नहीं था! मुझे लाज तक न आई थी कि मैं विक्रांत की मौजूदगी में खुड़ैल के साथ आंख मिचौनी खेल रही थी! खुड़ैल भी माना नहीं था। उसने मुझे परास्त कर दिया था .. मना लिया था .. बहला लिया था .. और ..

कैसा गजब था? विक्रांत मेरे समीप था और खुड़ैल मेरे तन-मन में समा गया था! चुपके से वो मुझे खाने लगा था, भोगने लगा था और भरमाने लगा था! जहां विक्रांत के प्रेम का पवित्र परमानंद अभी आने को ही था वहीं खुड़ैल का विषाक्त प्रयोजन मुझे लीलने लगा था! और .. और .. मैं उसे मार नहीं रही थी दुतकार भी नहीं पा रही थी .. और उसके आगोश में डूबती ही जा रही थी बाबू!

“गलती हो गई मुझसे!” नेहा स्वयं से कह रही थी। “मैंने खुड़ैल को नहीं .. तुम्हें मार डाला बाबू!”

यही दुर्भाग्य रहा मेरा, बाबू!

सॉरी बाबू! बहुत कुछ ऐसा होता है – जो अपने हाथ में नहीं होता!

रोने लगी थी नेहा ..

क्रमशः

मेजर कृपाल वर्मा

मेजर कृपाल वर्मा

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