धारावाहिक -29

सच में ही मुक्त प्रदेश की कल्पना अकल्पनीय थी ।

वन बिहार पर निकले हम दोनों का परिचय जब अजब-गजब महकते फूलों से होता तो हम भी पंछियों की तरह चहक उठते । भँवरों की तरह हम दोनों भी उन के भीतर के शहद को चुराने लगते । हम भी उन के साथ लरज-लरज कर नाचते ….गाते ..और उस जीवन के अमर संगीत का हिस्सा बन जाते – जो हमारे रोम-राेम में गूंजने लगता ।

चंचल नदियां , सजल धवल पर्वत श्रेणियां , घने जंगल और चहकते-फुदकते पंछी हमें अपने साथ ले लेते , पुकार लेते और हम उन के हो जाते और बह जाते उन के सौहार्द के साथ ।

‘अ, रे ….रे….?’ मैं चौंक पड़ी थी । ‘वो देखो , फरीद ।’ मैंने उंगली उठा कर कहा था । ‘उस जंगी भालू को तो देखो ।’ मैंने फरीद को टोका था । ‘किस तरह शहद में सना मुंह उठाये हमारी ओर चला आ रहा है ?’

फरीद भी अब उस दैत्याकार भालू को देख रहा था । लेकिन उस ने अपने किसी भी तरह के बचाव में कुछ भी किया था । लेकिन भालू तो गड्ड-मड्ड घूमता-झूमता …..हमारी ओर चला ही आ रहा था ।

‘दोस्त ….।’ भालू ने दूर से ही पुकारा था । ‘पहचाना नहीं ….?’ उस ने प्रश्न किया था ।

मैंने फरीद की ओर देखा था । ये प्रश्न शायद उसी के लिये था । मैं समझ गई थी कि ये भालू अवश्य ही फरीद का कोई अपना सपना था ।

‘मैं वंशी ……।’ भालू ने अब अपना नाम भी बताया था । ‘तुम्हारा अपना ….तुम्हारा जिगरी ….तुम्हारा अपना – वंशी ।’ अब वह हंस रहा था ।

‘अरे, हां-हां ।’ अचानक फरीद भी चहका था । वह दौड़ कर भालू वंशी के गले मिला था । ‘लेकिन ….यहॉं कैसे , मित्र ?’ फरीद ने उसे पूछा था ।

‘याद नहीं तुम्हें , मुंशी ?’ वंशी पूछ रहा था । ‘याद करो जब तुम नदी में डूब रहे थे …..और मैं तुम्हें बचाने के लिये नदी में कूद पड़ा था । और जब मैंने तुम्हें हाथ दिया था …..तो तुम मेरे ही ऊपर चढ़ बैठे थे । मैंने लाख कोशिश की थी ….पर तुम मुझे भी साथ लेकर डूब गये थे ।’ वंशी ने अब मुंशी की ऑंखों में देखा था ।

‘हां-हां । याद आया , दोस्त ।’ मुंशी ने स्वीकारा था । ‘लेकिन मैं और करता भी क्या, यार ?’ उस का मानना था । ‘डूबता आदमी मिले सहारे को हमेशा डुबो देता है ।’ मुंशी को पश्चाताप था । ‘तो क्या …..तुम …?’

‘हॉं । तभी से यहाँ हूँ । सौ साल होने को आये ।’ वह हँसा था । ‘लेकिन दोस्त , यहॉं जैसा आनंद …..?’ वंशी ने मधु मक्खियों के शहद के छत्तों की ओर इशारा किया था । पेट भर-भर कर खाता हूँ ……और …..’ अब वह जोरों से हंस पड़ा था ।

‘फिर तो मैं भी यहीं रहूँगा, वंशी ।’ मुंशी कहने लगा था । ‘गुलबदन के साथ अब तो मैं भी इस मुक्त प्रदेश में युगों को जी लूंगा ।’ मुंशी ने प्रसन्नता पूर्वक कहा था ।

लेकिन अब वंशी चुप हो गया था । वह अब गौर से मुंशी को ही देखे जा रहा था ।

‘नहीं, मित्र ।’ वंशी की आवाज गमगीन थी । ‘तुम तो ……कल ही चले जाओगे ।’ उस ने सूचना दी थी ।

मैं अब भड़क गई थी । ये करमजला कह क्या रहा था – मैंने स्वयं से पूछा था ।

‘प्रेम करने का दंड तो मिलेगा , तुम्हें ।’ कह कर वंशी चला गया था ।

हम दोनों एक दूसरे को आश्चर्यचकित ऑंखाें से देखते ही रहे थे ।

और अब मैं सोचती हॅू कि ….प्रेम करने का दंड ही तो मिला है – हमें , बाबू ? हमारा अमर प्रेम …..हमारा सच्चा प्रेम और हमारा अनूठा प्रेम ही तो लोगों की ऑंखों में खटक गया था ? और मुझे तो याद है , बाबू कि खुड़ैल जैसे विष-भरे बिच्छूओं ने ही मुझे डंक मार-मार कर बावला बना दिया था । सच, बाबू । मैं तो तुम्हारी हो चुकी थी, मेरे श्याम । मैं तो रंग चुकी थी तुम्हारे प्रेम के गुलाबी रंग में । मैं तो बावली बन चुकी थी और तुम्हारी हर सांस के साथ-साथ जीने लगी थी । याद है न तुम्हें कि किस तरह हम फार्म हाउस के उस एकांत में एकाकार हो कर घंटों बेसुध हुए पड़े रहते थे ? और तुम थे कि मुझे अपने उन अनूठे स्पर्शों से मुग्ध कर देते थे । और मैं ….लता-सी तुम से लिपटी-लिपटी…..

ओह, बाबू …। कैसा-कैसा अनूठा आनंद था …वो ….जब हम दोनों …साथ-साथ थे ….एक दूसरे के लिये थे …..?

प्यार की इन्हीं बुलंदियों पर पकड़ा हमें – खुड़ैल के गैंग ने ।

‘ये पलट देगा समूची आचार संहिता को ।’ एक साथ बोला था, माफिया । ‘दत्त साहब । अगर आप ने इसे लगाम न दी तो …हम सब पिट जाएंगे ।’ उन का उलाहना था । ‘आप की नाली का कीड़ा है, ये ।’

‘और अब मैं ही मारूंगा , इसे ।’ रमेश दत्त ने ऐलान कर दिया था । ‘जिस तरह की जागृति ये लाने जा रहा है – इस में तो हम सभी पिट जाएंगे ?’ खुड़ैल उन की बात मान गया था ।

और कोई नहीं चाहता था कि उन का ऐशो-आराम , एकाधिकार और अकूत आमदनी जाती रहे । उन की जड़ों में मठ्ठा देता विक्रांत सब को बुरा लगा था ।

‘ये ….सो कॉल्ड – दार्शनिक – दलाल समाज को कचरा बना कर मुफ्त खरीद लेना चाहते हैं ।’ तुमने जब मुझे बताया था , बाबू तो मैं समझ गई थी । और मैं भी मान गई थी कि जो व्यापार, व्यभिचार , नंगा नाच और समाज विरोधी मनसूबे बन सहे थे ….वो तो …? ‘देश का खाते हैं …..विदेश का गाते हैं ।’ तुम ने जब खुलासा किया था तो …बम्बई में एक तूफान उठ खड़ा हुआ था ।

अब विदेशी ताकतें भी इस गुंडा – गैंग के साथ आ जुड़ीं थीं ।

और ….और बाबू , करिश्मा तो ये हुआ था कि ….खुड़ैल ने मुझे ही हथियार बना कर तुम्हें काट डाला ….?

मैं …..मैं …पगली अपनी ईर्षा और घृणा में बावली हुई ….कहॉं समझ पाई उन के खेल को और आज भी ….यहॉं जेल में भी …मैं उन के हाथों से दूर नहीं हूँ , बाबू । मैं जानती तो हूँ ….लेकिन मैं ….

रोती निरीह नेहा – अपने श्याम के विरह में डूबी मीरा थी ।

सॉरी , बाबू …..। हिलकियां न थम रहीं थीं , नेहा की…..

क्रमशः – .

मेजर कृपाल वर्मा 1
मेजर कृपाल वर्मा

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