धारावाहिक – 28

‘अब तुम्हारा विक्रांत नहीं बचेगा, नेहा ।’ साहबज़ादा सलीम मुझे बताने लगा था । हम नवाबज़ादे की शूटिंग पर अभी भी अबासीनियां में ही थे ।

मैं अचानक चौंक पड़ी थी । जैसे मौत मुझे छू कर लौट गई हो , ऐसा लगा था । ऑंखें सजल हो आई थीं । विक्रांत पर आया संकट जैसे मुझ पर सवार हो गया था – ऐसा लगा था और लगा था कि मैं भी अब बचूंगी नहीं ।

‘मॉं के आंसू – बंद पड़ी है । शूटिंग नहीं हो रही है ।’ साहबज़ादा सलीम कहने लगा था । ‘वह तुम्हारा पागल, प्रोड्यूसर से लड़ बैठा है ।’ उस ने सूचना दी थी ।

‘क्यों ? क्या हुआ ।’ मैंने आवाज संभाल कर पूछा था ।

‘कहता है – वह मॉं का खून नहीं करेगा ।’ हंसा था , सलीम । ‘अरे, पागल । कहानी है – तो करेगा क्यों नहीं ?’ उस ने मुझे प्रश्नवाचक निगाहों से घूरा था । ‘अरे, भाई । कलाकार तो कलाकार है। जो किरदार है – उसे ही तो जायेगा ? लेकिन ये महाशय कहते हैं कि ये कहानी ही गलत है। समाज को गलत संदेश देगी । अरे, भईया । तेरा कौन खर में तेल जाता है । पैसे लिये हैं – तो काम कर ।’

मैं समझ गई थी कि विक्रांत के सामने उस के आदर्श आ खड़े हुए होंगे और अब वह हरगिज काम नहीं करेगा । कोई भी क्षति वह ले लेगा ..कितना भी नुकसान वह उठा लेगा …..बर्बाद भी हो जायेगा …..पर …..

‘अड़ियल है …..बदतमीज है …..और पागल भी है ।’ शिकायत कर रहा था , सलीम । ‘मॉं को बेटा कत्ल करता है – पैसे के लिये – जो उसे अपनी प्रेमिका एक वेश्या को देने हैं।’ सलीम ने घुंडी खोली थी – उस के किरदार की । ‘लेकिन…..ये साहब …… ?’

‘कभी नहीं करेगा, बाबू ।’ मैंने भी सर हिला दिया था । ‘एक से लाख तक वह इस तरह का रोल नहीं करेगा ।’ मैंने भी अपने बाबू की बात पर मुहर लगा दी थी । ‘लेकिन ….क्यों नहीं …..’

‘कहानी बदल दी जाती ?’ सलीम हंसा था । ‘अरे, माई डियर सोचो । बेचारा वो प्रोड्यूसर ताे हो गया न बर्बाद ? क्या क्या बदलेगा ? क्यों बदलेगा ? अब हम भी तो यहॉं फरीद हैं …और तुम हो -गुलबदन । हो ….ना ….?’ उस ने मुझे छू लिया था । ‘तो ….क्या हम …..?’ वह हंस रहा था ।

लेकिन मैं तो अब अबासीनिया से भाग कर अपने बाबू के पास पहुंच गई थी ।

‘बाबू । क्या मिलेगा काम बिगाड़ कर …?’ मैं चिरौरी करने लगी थी । ‘मॉं के आंसू – तुमने ली थी ….तब …?’

‘मैंने सोचा था , नेहा कि ये कहानी जरूर किसी दुखियारी मॉं की होगी ….और मैं – उस का बेटा उस के आंसू पोंछ दूंगा ….और ….और ऐसी जान फूंकूंगा …इस रोल में कि ….एक मॉ-बेटे का रिश्ता क्या और कैसा होना चाहिये – ये साबित हो जाये । लेकिन यह तो सीन ही बहुत भद्दा है ? मैं …मैं ..कैसे काट सकता हूँ अपनी मॉं की बोटी-बोटी, नेहा ?’ रोने लगा था , विक्रांत । ‘तुम्हीं सोचो, नेहा कि …..मॉं जैसी अनमाेल धरोहर को ….काई …कैसे…?’

‘समाज बदल रहा है ….माहौल बदल रहा है …..घटनाएं घट रही हैं, विक्रांत ।’ मैं अब बाबू को समझाने लगी थी ।

‘तो क्या हम भी …..हम पढ़े-लिखे लोग भी ….उन गंवार जाहिलों के किरदारों को बुलंदियां दें ….जो पशुओं से भी आगे गिर गये हैं ?’

फिर अचानक मुझे याद हो आया था कि विक्रांत एक पढ़ा-लिखा ग्रैजुएट था ….और फिल्मों में आने से पहले वो किसी मल्टीनेशनल में उच्च पद पर आसीन था । उस के परिवार का परिवेश भी एकदम अलग था….और उस के संस्कार भी श्रेष्ठ थे । बड़ा ही धुला-मंजा सा एक चरित्र था – विक्रांत और मैं जानती थी कि ….अनादर्शो का वह अनादर करता था ।

मुझे अचानक याद हो आया था कि पूर्ण घनिष्ठता होने के बावजूद भी कभी विक्रांत ने मुझे गलत भाव से छूआ तक न था ।

तभी हमें सैट पर आने की आवाज लग गई थी ।

लेकिन मुझे तो याद है , बाबू कि उस दिन का रोल मैंने तुम्हारे लिये रो-रोकर किया था । था भी तो गमगीन दृश्य और मैं ऊपर से इतनी गमगीन हो गई थी कि डायरेक्टर भी हैरान रह गया था । और जब मैं फुग्गा फाड़ कर रोई थी ….और अनायास ही मेरे मुंह से निकला था , ‘बाबू …। मैं आती हूँ , बाबू ।’ तो सब हैरान रह गये थे । हॉं । सलीम को तो सब पता था । सलीम तो जानता था कि मैं आज अंतरतम से आहत थी और तुम्हारे दुखों से सीधी जा जुड़ी थी ।

‘ये पागल है , नेहा ।’ सलीम ने मुझे बाद में समझाया था । ‘विक्रांत इज नॉट …द एन्ड ऑफ ….लाइफ ।’ वह कहता रहा था । ‘चेन्ज …द …गेम ।’ उस ने सलाह दी थी । ‘इट्स ….नाउ और नेवर ।’ उस की चेतावनी थी ।

लेकिन तब तो मुझे जीना भी तुम्हारे साथ था, बाबू …..और मरना भी हमें साथ-साथ था। और अब …. ? न तो जीते बनता है, बाबू और न ही कोई मरने देता हैे । पर मैं तो अब जानती हूँ न , बाबू कि कितने ही सलीम क्यों न आ जायें ये वो नहीं दे सकते जो तुमने दिया ? ये तो व्यापारी हैं ….हुस्न के ग्राहक हैं ….इश्क के प्यासे परिंदे हैं ….जो माल पाते ही उड़ लेते हैं। तुम जैसा प्रेमी मिलना तो किसी-किसी के ही नसीब में होता है, बाबू ।

और , बाबू । जो जीना था – जी लिया, तुम्हारे साथ । अब तो मैं भी मौत का ही मजा लूंगी । लेकिन खुड़ैल से बदला लिये बगैर नहीं मरूंगी, ये मेरा तुम से वायदा है, बाबू। तुम्हारी बे-रहम मौत का इल्जाम ….अब मैं अकेली न लूंगी । तुम देखना , बाबू कि मैं …..

फिर आ कर तुम से मिलूंगी …..अवश्य मिलूंगी, बाबू …..

हम तो अमर प्रेमी है …..हम तो …..

आंसू आज थम कर न दे रहे थे, नेहा के ………

क्रमशः –

मेजर कृपाल वर्मा
मेजर कृपाल वर्मा

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