धारावाहिक – 27

‘किस का शोक मना रही हो , पुत्री ?’ रोती-विसूरती नेहा के पास मुक्त प्रदेश आ बैठा था । ‘मरा कौन है ?’ उस ने आहिस्ता से पूछा था । नेहा चुप थी ताे उस ने विहंस कर कहा था । ‘कहां मरा है , तेरा बाबू ?’ उस का प्रश्न था । ‘जीवन – मृत्यु तो एक निरंतरता है , बेटी । अंधेरे-उजाले की तरह ही तो इस का आवागमन है। ओर ये इन दोनों की अनिवार्यतायें है जो जगत-व्यापार के क्रम को चलाती है ।’

अचानक ही नेहा की नींद सी खुली थी । वह एक पवित्र प्रकाश के नीचे आ खड़ी हुई थी । मुक्त प्रदेश ने उस का स्वागत किया था ।

फिर न जाने कैसे नेहा ने महसूसा था कि विरोध , क्रोध , द्वेष और घृणा अचानक ही उसे छोड़ कर जाते रहे थे । अब एक परम विरक्ति का सा आभास था और मुक्त प्रदेश का वही स्वराज्य था जहॉं प्रेम और केवल प्रेम ही जीवन की एक शुद्ध निष्पत्ति की तरह सामने आ खड़ा हुआ था ।

‘ये सेज इतनी कोमल क्यों है , गुलबदन ?’ शहजादा फरीद पूछ रहा था । ‘ये ….महकाकर …ये अनूठी सुगंध ….कहॉं से आ रही है , प्रिये ?’ उस का प्रश्न था ।

गुलबदन ने अपने अमर प्रेमी फरीद को चाहत पूर्ण निगाहों से देखा था । एक अनूठे पुरुषार्थ का धनी – फरीद उसे संसार का सर्वश्रेष्ठ पुरुष लगा था । वह उस के साथ अपने सुख्-दुख बांटने के लिये प्रांणपन से समर्पित थी ।

‘इसे स्वयं नियंता ने …प्राकृत चम्पा के फूलों से बनाया है……सजाया है ।’ गुलबदन बताने लगी थी । ‘प्राकृत चम्पा के वृक्ष पर सत्रह साल बाद फूल खिलते हैं ।’ रुकी थी , गुलबदन । उस ने फरीद की ऑंखों में उगे आश्चर्य को पढ़ा था तो हंस पड़ी थी। ‘ये सब सच है , फरीद ।’ उस ने कहा था । ‘और इन फूलों की विशेषता इन की सुगंध तो है ही ….लेकिन इस के उपरांत भी ये सालाें तक मुरझाते नहीं हैं ।’ गुलबदन ने बताया था ।

अमर प्रेमियों के लिये ही ….शायद …?’

‘नहीं ।’ गुलबदन ने टोका था । ‘मुक्त प्रदेश का चलन है ,यह।’ उस ने सूचना दी थी । ‘यहॉं सब के लिये …सब है ।’ उस ने संदेश दिया था ।

और उन प्राकृत चम्पा के फूलों की सेज पर साेने का अनुपम आनंद उठाते ….और गुलबदन के साथ सहवास करते फरीद ने महसूसा था कि …इस आती आनंदानुभूति में कहीं कोई कुंठा नहीं है ….कोई विराम नहीं है …और न ही कोई व्यवधान है । यह तो बस अनंतर चलता ही चला आता है – एक अनुदान की तरह ।

फिर सुजान सरोवर के तीरे बैठे वो दोनों अपना अपना भविष्य सरोवर के निष्पाप जल में निहारने लगे थे ।

और तभी खजूर के पेड़ से उतर कर गुलजार गिलहरी ने शहजादा फरीद के हाथ से गिलोंठा छीना था और खाने लगी थी । एक आश्चर्य तो हुआ था , फरीद को लेकिन दूसरे ही पल उस की दृष्टि बदली थी और गुलजार गिलहरी – गुल नार बन कर उस से बतियाने लगी थी ।

‘तुम ने मेरे साथ फरेब किया था, अकीक ।’ गुल नार कह रही थी । ‘मैं यों न मरती – अगर तुम ….मुझे दगा न देते ..?’ उस का उलाहना था ।

और फरीद भी अचानक अकीक का अवतार बना गुल नार का दिया उलाहना ओट गया था ।

‘मुझे राजगद्दी देन के लालच में फंसा लिया था , गुल नार ।’ अकीक कहने लगा था ।

‘मुझे सब पता है , अकीक ।’ गुल नार ने भी हामी भरी थी । ‘मुझे पता है , अकीक कि ….तुम्हें उन लोगों ने अंधा कर दिया था …यातनाएं दीं थीं….और तुमने एक जिल्लत भरी जिंदगी जी थी ।’ रुकी थी , गुल नार । फिर कुछ सोच कर बोली थी । ‘मेरे साथ दगा करने का श्राप ….तो अभी भी तुम्हारे सर पर धरा है , अकीक ।’ गुल नार ने उसे एक महत्वपूर्ण सूचना दी थी ।

और अचानक ही मैं चौंक पड़ी थी।

मैं तो फरीद को अपना तन-मन दे बैठी थी …..और अब ये थी कोई – गुल नार जो न जाने कहॉं से ….अपने न जाने कौन से श्राप को लेकर आ बैठी थी ?

मैंने अचानक ही गुल नार को अपने अंतर में उग आये सोतिया डाह से देखा था ।

ओर तभी मेरी आंख फिर गई थी । मैं जेल में लौट आई थी । अब मैं भी अपने बाबू के उन कातिलों को तलाशने लगी थी -जिन्होंने उसे अंधा किया था…..जिल्लतें दीं थीं …..उसे असफल बनाया था ….बदनाम किया था और अंत में मेरे ही हाथों ……..?

खुड़ैल…..। हां । हां । ये खुड़ैल ही तो था ….जिसने सारा स्वांग रचा था । वही तो हमारा मुलजिम था । वही था जिसने मेरा सौदा साहबज़ादे सलीम से किया था ….और आज भी मेरी ताक में था ….फिराक में था – कि किसी तरह मैं उस के हाथ लगूंं और वो मेरी पुड़िया बना कर सलीम के नाम पार्सल करादे ? और फिर …..

साहबज़ादा सलीम भी तो किसी शैतान से कम नहीं है । उस के हाथ बहुत लम्बे हैं । उस का तो विस्तार ही एक बवाल है । अजब खिलाड़ी है – वह । प्रेम- प्रीत में औरतें फंसा कर ….उन का वो व्यापारिक उपयोग ……? शैतान …..निरा शैतान । मेरा तो सोच कर ही माथा घूम जाता है…

‘अब किस से कहूँ , बाबू – इस शैतान का सर काटने को ?’ नेहा पूछ रही थी । ‘मेरा तो कोई सहारा नहीं बचा है , बाबू । तुम्हारे जाने के बाद से मैं नितांत अकेली हूँ ……निसहाय हूँ ……और …..’

सॉरी बाबू । तुम्हें दोष भी क्या दूँ …..क्यों दूँ ….? किया-धरा तो सब मेरा है ……

नेहा के आंसू थम न रहे थे …..

क्रमशः ………

मेजर कृपाल वर्मा 1
मेजर कृपाल वर्मा

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