धारावाहिक -26

पेड़ पर चढ़ गई है, गुलाबो । पूरी जेल में हड़बोंग मचा है । डर है कि अगर गुलाबो पेड़ से गिरी …..तो न जाने क्या होगा ?

‘अरी, बद जात । उतर नीचे …..?’ तारा जोरों से गर्जी है । तारा हैड है , हमारी । बड़ी ही सख्त जान औरत है । सभी डरती हैं , उस से । ‘क्यों जा चढ़ी है , पेड़ पर …..?’

‘हैड, साब ।’ गुलाबो किलक कर बोली है। ‘अभी मिल कर आती हूँ रतन से । बस थाेड़ा रास्ता मिल जाये ….जाने का ? उस ने आज आना है , न ?’ गुलाबो कह रही है । ‘बस अभी गई …..और अभी आई …।’

जमा कैदी हंस रही हैं । लेकिन तारा की तो जान सूखी जा रही है ?

‘रतन गुलाबो का प्रेमी है ।’ दीपा ने सब को बताया है । ‘उसी की वजह से पागल हो गई है ।’

अब मैं क्या करूं ? मन तो मेरा भी उड़ा है । पेड़ पर चढ़ा है और गुलाबो को लांघ कर सात समुंदर पार ….पहुँच गया है । जानी -पहचानी सुजान सरोवर के तीरे आ बैठा है, पागल । अब लगा है बाबू को पुकारने ।

‘हॉं, हॉं । मैं यहॉं हूँ , बाबू।’ बताने लग रहा है, पता । ‘मैं ……मैं …नेहा ….यहॉं हूँ , बाबू .।’ मैंने किलकारी भरी है । ‘चले आओ सीधे , मेरे साजन ….।’ मैं पुकार रही हूँ ।

सुजान सरोवर का जल शीशे जैसा पारदर्शी है । अचल जल-राशि के पेट से मेरा चेहरा उभर कर पानी की सतह पर तैर आया है । कैसा बेजोड़ हुस्न है – मैं स्वयं देख कर हैरान रह गई हूँ । और फिर मेरी ऑंखाें में जो सपने तैर आये हैं – वो तो बेहद विचित्र हैं। अब मैं इस मुक्त प्रदेश की आधिकारिक महारानी हूँ । यहॉं मेरा ही हुक्म चलता है ।

मनुष्यों से ज्यादा मेरे मित्र यहॉं के पशु-पक्षी हैं । यहॉं का जर्रा-जर्रा मेरा मुरीद है । मैं इन सब के साथ हॅू ….और ये सब मेरे ही आस-पास है । हम सब के बीच प्रेम-सूत्र का संचार ही एक अनूठा मोहिनी -मंत्र है – जो हम सब को बांधे है , साथ-साथ।

यहाँ – इस मुक्त प्रदेश में सच में ही शेर और बकरी एक सरोवर से पानी पीते हैं …..इसी सुजान सरोवर से ।

‘हाय, दैया ?’ मैं अचानक उछल पड़ी हूँ । मैंने सुजान सरोवर के जल पर तैरते अपने चेहरे की बगल में उभरे एक और चेहरे को देख लिया है । ये भयंकर चेहरा किसी शैतान का लगा है । भय के मारे मैं आपे में सिमिट गई हूँ । इस शैतान के चेहरे को मैं देखना नहीं चाहती पर ….

‘मैं नवाबज़ादा फरीद हूँ ।’ अब मैं उस की आवाज सुन रही हूँ । बहुत भारी आवाज है । कठोर और काटती आवाज है । डरावनी आवाज है । मैं अब और भी सिमिट आती हूँ । डर गई हूँ , मैं। क्या करूं? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है । ‘और …..आप …?’ उस ने मुझे मेरा परिचय पूछा है ।

नवाबज़ादे फरीद का अर्थ अचानक मेरे जहन में कौंध जाता है ।

यह तो हत्यारा है । मुझे इस की की नृशंस हत्याओं की घटनाएं अचानक याद हो आती हैं । ये तो इतना खूंखार शहजादा है …कि ..इसे दया-धर्म ….या प्रेम-प्रीत से कोई सरोकार ही नहीं है । यह तो खून की नदियां बहाने के लिये बदनाम है । अब मैं क्या करूं ….?

‘परिचय नहीं देंगी ….?’ उस ने पूछा है । मैं तो कांप उठी हूँ । कारण – उस ने मुझे छू लिया है ।

‘गु ल ब द न …..।’ मैंने अपनी थर्रा गई आवाज में उत्तर दिया है ।

‘शुभान-अल्ला ……।’ अब की बार फरीद ने आहिस्ता से कहा है । ‘आप इतनी हसीन हैं, गुलबदन ….कि …मैंने अभी तक तुम जैसी किसी हूर का दीदार नहीं किया ।’ वह तनिक मुसकराया है । उस की ऑंखों में मेरे लिये प्रशंसक भाव उभरे हैं ।

‘आप ……?’ मैंने यूं ही प्रश्न पूछना चाहा है ।

‘अब्बा हुजूर के हुक्म से हम सात शैतानों का सर कलम कर उन के कदमों पर डालने के लिये कमर कस कर निकले थे।’ नवाबज़ादा फरीद बताने लगा था । ‘लेकिन देखते हैं ….कि हम तो …?’ उस ने अब की बार मुझे अपांग देखा था । ‘अपनी सुध-बुध ही भूल गये .?’

ये फिल्म नवाबज़ादे की कहानी है। इस में साहबज़ादे सलीम ने फरीद की और मैंने गुलबदन की भूमिकाएं निभाई थीं। अबासीनियां की मरु-भूमि में शूटिंग हुई थी ।

और सच मानो बाबू कि साहबज़ादे सलीम को भूल मैंने तुम्हें ही याद किया था । उन अनूठे प्रेम-प्रसंगों में मैंने तुम्हारे ही स्पर्शों को महसूसा था और मैं प्रेमाकुल हुई तुम्हें ही पुकारती रही थी ।

और जब मैं फरीद को ले कर अपने मुक्त प्रदेश को दिखाने निकली थी तो खेजरी के पेड़ पर अपने लटकते घौंसलों में किलोल करती गौरयाओं ने अचानक चिंचियाना आरंभ कर दिया था ।

‘इन्हें क्या तकलीफ हुई, गुलबदन ?’ फरीद ने प्रश्न पूछा था ।

‘पूछ रही हैं ….कि…. ‘इस हत्यारे को मैं यहॉं क्यों लाईं ?’ मैंने तनिक लजाते हुए कहा था ।

‘लेकिन ….इन्हें ….इन गौरयाओं को कैसे पता चला ….कि मैं ….?’

‘अल्ला की कायनात में सब ज्ञात होता है , फरीद । भ्रम है हमारा कि हमें ..कोई क्या जानता है ?’ मैंने एक दार्शनिक की तरह कहा था । ‘ये गौरया ….ये भेड़-बकरियांं ….ये उंट और ये शेर-बाघ …..सब हमीं तो हैं ।’ मैं अचानक हंस पड़ी थी । ‘कभी हम मनुष्य होते हैं …..तो कभी हम मच्छर भी होते हैं ।’ अब मैंने फरीद को ऑंखों में घूरा था। ‘ये जिंदगी ….एक भ्रम है फरीद , और कुछ नहीं ।’

‘तुम कौन हाे ……..गुलबदन ….?’ फरीद हैरान – परेशान -सा पूछ रहा था ।

‘जन्म – जन्मांतरों से मैं तुम्हारी ही सहचरी हूँ, फरीद । तुम आओगे – मैं जानती थी । लेकिन …..तुम्हें …….’ मैं चुप थी ।

और तभी एक अलग किस्म का हा-हाकार मेरे चारों ओर उठ बैठा था । पेड़ से नीचे उतरने की खींचा-तानी में गुलाबो का पैर डिगा था और वो धड़ाम से फर्श पर आ गिरी थी ।

‘र-त-न ……। मैं …..मैं आ रही हॅू , रतन।’ गुलाबाे फुग्गा फाड़ कर रो रही थी ।

और सच मानो बाबू कि ….मैं भी अब गुलाबो की ही तरह बावली हो जाना चाहती थी। मैं कपड़े फाड़ लेना चाहती थी ….और चीख-चीख कर तुम्हें टेरना चाहती थी , बाबू ।

‘मैं जेल में बंद हूँ , बाबू । मेरी बंद छुड़ा दो , बाबू ?’ मैं आग्रह कर रही थी । ‘गलती हो गई, बाबू । क्षमा करो मेरे अपराध …..मेरे देवता ।’

कांप रही थी , नेहा । बे-दम हो चली थी , वह ।

‘सॉरी बाबू ।’ कांपते उन होंठों से आहिस्ता-आहिस्ता रिस रहा था – उस के बाबू का नाम …..

क्रमशः –

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