धारावाहिक – 11
‘नंदिनी ने सात महीने तक लगातार कल्पतरु पर फूल चढ़ाये । हो गई पार ……।’ उर्मिला नेहा को समझा रही थी । ‘क्या बुरा है , बहिन ?’ वह मुसकराई थी । ‘मेरी तो किस्मत को भाैंरी मार गई …..वरना तो …..मैं भी ….?’
नेहा कई पलों तक उर्मिला को घूरती रही थी । एक पेड़ की पूजा करना….और करते ही रहना …. पागलपन नहीं तो और क्या था ?
‘मैं इन बेवकूफियों में विश्वास नहीं करती ।’ नेहा ने कड़क स्वर में कहा था । ‘हमारे घर में भी इस तरह का ढोंग नहीं होता ।’ उस ने सूचना दी । ‘ये हिन्दुओं का टंट-घंट ….पेड़-पूजा …पत्थर-पूजा ….मूर्ति-पूजा ….सब बकवास है ।’ नेहा ने उर्मिला को लताड़-सा दिया । ‘जब मैंने कुछ किया ही नहीं है – तो मुझ पर आसमान क्यों टूटेगा ?’ उस ने उर्मिला की ऑंखों में झांका था ।
उर्मिला हँस कर चली गई थी । वह जानती थी कि नेहा झूठ बोल रही थी और भगवान से न डरने का ढोंग कर रही थी।
अब अकेली खड़ी नेहा ने अंखिया कर सामने अचल खड़े कल्पतरु को देखा था । पीले-पीले फूलों से अलंकृत कल्पतरु मानो हँस रहा था । जैसे वह कह रहा था कि वह पृथ्वी की परंपरा का उगाया एक नन्हा-सा करिश्मा था। कोई भी उसे याद करे …उस की पूजा करे तो संकट दूर । न जाने नेहा के मन में क्या समाया था कि ….उस ने बगीचे से फूल चुने और आ कर कल्पतरु पर चढ़ा दिये । पेड़ की परिक्रमा की और हाथ जोड़ कर ……ऑंखें बंद कर उस ने मांगा – अपना ‘बाबू’ ….।
‘लौटा दो कल्पतरु , मुझे मेरा विक्रांत ….मेरा सुहाग …मेरा मन-मीत ….और मेरा सर्वस्व । मैं सात माह तक ही नहीं ….सात जन्मो तक ….तुम्हारी …….’
‘पगली ।’ ऑंखें बंद किये खड़ी नेहा ने जैसे एक आवाज सुनी थी । ‘स्वयं मारकर …मुझ से कहती है कि मैं उसे जिंदा करूँ …और तुझे सौंप दूं ? हा हा हा हा …..।’ पेड़ जैसे हँस रहा हो – नेहा को लगा था ।
नेहा ने ऑंखें खेलीं थीं । पेड़ को घूरा था । वह क्रोधित थी । उसे असमंजस हुआ था कि ये पेड़ भी सच्चाई जानता था ?
‘तो ….चल, बेल ही दिला दे ….?’ नेहा ने उलाहना दे कर कहा था- पेड़ से । ‘फूल तो मैंने चढ़ा दिये ……अब …….’
लेकिन पेड़ फिर कुछ नहीं बोला था।
नेहा भी जैसे घर लौटी थी । घर में हास-परिहास भरा था । अंग्रेजी म्यूजिक प्रवहमान था। सीमा नाच रही थी । समीर भी झूम रहा था। पूर्वी विश्वास किचन में मुर्गा भून रही थी । बाबा घर पर नहीं थे । संगीत की मादक तरंगों ने नेहा को उल्लसित करना आरंभ कर दिया था । तब उसे पुड़िया की दरकार हुई थी । और ….और पुड़िया लेने के बाद वह भी नशे में चूर हो , नाचने लगी थी । गाने लगी थी – प्रिवेल ….। फिर उसने ठहाका लगाया था – लैट इट ….प्रिवेल …।। फिर वह उच्च स्वर में गाने लगी थी – आई वांट टू प्रिवेल ….।।।
‘तेरी बेल रिजैक्ट ….।’ संगीता ने सुर भरा था । वह तनिक रुकी थी और चली गई थी ।
अब नेहा भी जैसे घर से लौट आई थी । उसे एक बड़ा धक्का लगा था । उसे फिर से क्रोध चढ़ आया था । उस ने मारक निगाहों से कल्पतरु को घूरा था । उस का मन आया था कि चढ़ाये फूल उठाये और कूड़े में फेंक आये । दो चप्पल रसीद करे इस कल्पतरु को …और मुनादी कर दे कि ये भी सब ढोंग है।
‘कैसा फिरा है- वक्त ?’ टीस आई थी , नेहा । ‘कभी था-जब सैट लगा होता था । लोग मेरे आने के इंतजार में पलकें बिछाये खड़े रहते थे । और जब मैं आती थी ….एक परलोक की परी की तरह …और आहिस्ता-आहिस्ता जमीन पर उतरती थी । फिर लाईट -कैमरा ऑन हो जाते …। लोग भी सतर्क हो जाते । और तब मैं संवाद बोलती…..।’
‘वाह, वाह । नेहा जी ….’ नेहा आवाजें सुन रही थी । ‘क्या डायलॉग बोला है ?’ लोग प्रशंसा करते ।
तब वह हँसती …..मुसकराती ….दो डग चलती …ठहरती …और फिर …कहीं जा कर अलोप हो जाती ।
‘आई लव यू ,डार्लिंग ।’ नेहा अचानक रमेश दत्त की आवाजें सुनती है ।
‘शट-अप , यू ईडीयट ।’ अचानक नेहा चिल्लाने लगी है । ‘तू ने ….तू ने …..बेईमान के बच्चे ….मेरी जिन्दगी खराब कर दी । मुझे जेल में बंद करा दिया ….? मुझ से अपराध करा दिया ….और ….’ नेहा की आवाज रुलाई में टूट आती है । वह सजल नेत्रों से कल्पतरु को देखती है।
‘दे दो …न …मुझे मेरा , बाबू ?’ सविनय स्वरों में नेहा आग्रह करती है । ‘मैं सात माह नहीं ….सात साल …तक …फूल चढ़ाउंगी….’ लेकिन कल्पतरु चुप है ।
‘अब मैं क्या करूं , बाबू ….?’ नेहा विक्रांत से ही पूछती है । ‘तुम थे …तो ….सहारा था । अब तो …’ शब्द नहीं जुड़ पा रहे हैं । ‘सॉरी, बाबू । मैंने अपना सत्यानाश स्वयं ही किया …..’ रो रही है ,नेहा ।
क्रमशः –