दिशाएं एकबारगी सजग हो उठीं। रात के गहन अंधकार, खामोशी और मौत जैसे सन्नाटे को गगनभेदी तोपों के गोलों ने मार भगाया। मीडियम गनों के फायर होने की लपलपाती चमक सीमा रेखा को जगा सा जाती। वैरी लाइट पिस्टलों के फायर होने से अजब तरह की रंगीन रोशनियॉं फोर्स कमांडरों के गुप्त गंतव्यों का इजहार करने लगी थीं। मशीनगनों की तडतड़ाहट खंदकों में छुपे वीरों के कलेजे दहला देतीं।

गोली लगने पर छिट-पुट आह सैनिकों का अपमान कर भाग जाती।

दिसंबर की ठंड़ी रात थी। देश भक्तों की दीवाली अपने उत्कर्ष पर थी। वीरू सतलुज पर बने पुल पर पहरा दे रहा था। उसे बार-बार कंपनी कमांडर मेजर चौहान के दिये आदेश याद आ रहे थे, “इस पुल का महत्व हमारे लिये अकूत है। पुल को उड़ाने के लिये डायनामाइट लग चुका है। सिर्फ बटन दबाने की देर है। बटन उसी हालत में दबाया जायेगा, जबकि पुल दुश्मन के हाथाें में पड़ चुका होगा, पहले नहीं। उड़ाने के आदेश मैं दूँगा। इस पुल की हिफाजत हमें सर्वस्व स्वाहा करके भी करनी होगी”।

“दुश्मन हमारी लाश पर से ही गुजर सकता है साहब”। वीरू ने सीना तान कर कहा था।

पूरी प्लाटून वीरू के इस कथन के साथ सहमत थी। वीरू बहुत ही साहसी, निडर और कर्तव्यनिष्ठ सैनिक था। वीरू ने बचपन में अपनी मॉं से देश भक्तों की कथा कहानियॉं सुनी थीं।

एक बार उसने मॉं से पूछा था, “मॉं! हमारे देश में क्या अब कोई राणा प्रताप जैसा वीर नहीं है?”

“क्यो नहीं है रे!” मॉं ने दुलारते हुए कहा था, “तू जो है ..। बड़ा बनकर तू भी वीर बनेगा”।

उन पलों में वीरू को लगा था, मानो राणा प्रताप का घोड़ा चेतक उसकी निगाहों के सामने खड़ा खड़ा हिनहिना रहा हो।

बड़ा होकर इसी स्वप्न को साकार करने हेतु वीरू सेना में भर्ती हो गया। खेल-कूद प्रतियोगिता में वो आजतक मुकाबले जीतता रहा है। बॉक्सिंग प्रतियोगिता में वो पिछले साल राष्ट्रीय स्तर तक भाग लेकर लौटा है।

दुश्मन आज देश के अंदर आने के लिये अनाम दरवाजे खटखटा रहा है। वीरू नहीं चाहता कि वो आज का मुकाबला हार जाये। अपना चिरइच्छित स्वप्न उसे साकार हुआ लगता है। राणा प्रताप का चेतक उन चलते अस्त्र-शस्त्रों के बीच खड़ा खड़ा हिनहिनाने लगता है।

वीरू को लगा, जैसे अंधेरों के उस पार चंद भीमकाय साये उस किनारे पर आकर ठहर गये हों। अंदाजा लगा कर वह सूचना देने वाला ही था कि एक साये ने आग का कुल्ला सा किया। धांय से एक विघ्वसंकारी गोला उनकी पोस्ट में घुस गया। उसके बाद दनादन गोलों ने समूची पोस्ट को नेस्तोनाबूद कर डाला।

एक पल के लिये वीरू भयाक्रांत हो तिनके सा कांप उठा था, लेकिन दूसरे ही पल वह सूचना देने टेलीफोन की ओर दौड़ा। टेलीफोन के तार कट चुके थे। वायरलैस भी पोस्ट के अंदर दफन हो चुका था। प्लाटून के उपर गोलों और मशीन गनों की गोलियों की बौछारें बरस रही थीं। वीरू ने गहराते अंधेरे के एक कतरे में अपना बदन छुपा लिया था। घोर विभ्रम की स्थिती उसके सामने थी।

भारत मॉं के वक्ष पर लेटा उसका अमूल्य लाल वीरू साफ-साफ देख पा रहा था – धड़धड़ाते तीन टैंक। वो मस्त गजराज की चाल से पुल पर चले आ रहे थे। अब किससे आज्ञा ले? किसे पुकारे वीरू? क्या पुल को वो स्वयं ही उड़ा दे? अगर ..? मगर ..? न जाने कितने ही एसे प्रश्न वीरू को बहरा बनाए दे रहे थे!

वीरू जानता था कि स्विच बोर्ड पर बटन दबाने को तैयार बैठा भीम सिंह भी उसका आदेश नहीं सुनेगा। उसे स्विच बोर्ड के बंकर में स्वयं ही जाना होगा .. बटन दबाना होगा ..। वीरू बंकर की ओर लपका। उसने मृत टेलीफोन को मुड़कर लात मारी ओर अक्षम्य गुनाह करने पर उसे कोसा।

टैंकों का वो ग्रुप लगातार आगे बढ रहा था। सोच-समझ के लम्हे बहुत ही बौने हो गये। अगुआ टैंक पुल का मध्य भाग पार कर चुका था। वीरू ने मुड़कर एक बार फिर से टैंकों को घूरा। अगुआ टैंक ने तुरंत ही मशीनगन खोल दी। वीरू बला की फुर्ती से जमीन पर लेटकर छोटे ढलान पर लुढकने लगा था।

पेट के बल सरककर वह स्विच बोर्ड के बंकर में दाखिल हुआ। वीरू अब तक घायल हो चुका था।

भीम सिंह बंकर में मृत पड़ा था। रीकॉललैस गनों के सीधे प्रहार से बंकर तहस-नहस हो चुका था। शायद भीम सिंह भी उसी जद्दोजहद में मारा गया था। वीरू को लगा, भीम सिंह की लाश सीमा रेखा पर जड़ा एक अडिग स्मृति चिन्ह हो।

“मेरे नाम की गोली बनी ही नहीं है साहब।” भीम सिंह हँस कर कहा करता था।

वीरू को लगा, भीम सिंह मरा नहीं है। वह अपनी मुक्त हँसी से आज मौत को छल रहा है। सैनिक मौत और ममता के मोह से विरक्त होकर ही तो लड़ पाता है।

अगुआ टैंक आगे वाले पुल के दर पर आ चुका था। वीरू नें दांत भींचकर एक नम्बर के स्विच को दबाया। वीरू के होठों से ‘जय दुर्गे’ का जयघोष एक गुर्राहट के रूप में बाहर आया। भयंकर गूँज के साथ पुल का दर हवा में उछला। पुल के दर के साथ ही दुश्मन का अगुआ टैंक भी सतलुज के जल में निमग्न हो गया। विक्षुब्ध हुआ नदी का जल किनारे से टकरा अजीब तरह के छपाके पैदा कर रहा था।

वीरू की ऑंखों में भरती वेदना के बीच परम संतोष और तृप्ती के भाव थे। एक बीभत्स हँसी उसके होठों पर जड़ सी गई थी। उसने पुल का दूसरा दर उड़ाने से पहले समूची स्थिती का जायजा लिया। पिछला टैंक पैर बंधे मुर्गे सा पूल पर खड़ा-खड़ा गुर्रा रहा था। वीरू को लगा, दुश्मन उड़े पुल के दर को किसी तरह से पार कर आगे बढने की अब भी कोशिश कर रहा है। वीरू ने क्षणांश में स्विच दबाकर दूसरे टैंक को भी धराशायी कर दिया। उसे लगा, वह महाबली है – भीम जैसा। हाथियों के स्थान पर उसे लगा कि वह टैंकों को उठा कर फेंकने की सामर्थ्य रखता है।

प्रतिक्रिया का समय पा अब अपनी तोपों, टैंकों और सैनिकों ने हमला कर दुश्मन की धज्जियां उड़ा डालीं।

लेकिन आज की विजय पताका वीरू के हाथों में फड़फड़ाकर फहरा उठी थी। उसे वीर चक्र मिला।

हमारे भारत की अक्षुण एकता वीरू जैसे भारत वीरों के विराट साहस का ही परिणाम है।

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