गतांक से आगे :-

भाग -६६

बंबई ‘दे टक्कर !’ के एक अद्भुत शोर से लवालव भरा था ……!!

हर युवा, युवती और .. यंग अंड ओल्ड न जाने क्यों ‘दे टक्कर’ के अजीब से आल्हाद को उछाले-उछाले सड़कों पर एक अनाम प्रमाद को जी रहा था. हर कोई टक्कर देना चाहता था – तो हर कोई टक्कर लेना चाहता था ! प्रीमियर कॉलेज के श्याम जी का लिखा ‘दे टक्कर’ गीत और उसका संगीत .. सब को बाबला बनाये था !

“दे टक्कर का रिहर्सल है !” रीना का फ़ोन था. “चल रही है न ..?” वह पूछ रही थी. “तेरी तो .. बेस्ट फ्रेंड है .. लब्बो !” उसने उलाहना जैसा दिया था. “यार ! आज मुझे भी मिला दे न ?” सूजी ने आग्रह किया था. “सच्च ! क्या .. कोमल चीज़ है. रे !”

“पर पागल बहुत है !” रीना ने प्रतिवाद किया था. “प्रिंसेस है, तो है …..!” रीना बता रही थी.

“नकचड़ी तो है ..! न बोलेगी .. तो न बोलेगी ..!! ख़ैर, मौका पड़ने दे. बर्थडे पर बुलाऊगी .. तब ..”

प्रीमियर कॉलेज में गजब की गहमागहमी थी. जैसे – दे टक्कर .. हर जर्रे-जर्रे पर जा लिखा था .. और कॉलेज की ईमारत भी पुकार रही थी – दे टक्कर ! कैसा उन्माद था…..!!

लब्बो और शब्बो अपनी अपनी गाड़ियों में आई थीं. स्टेट थ्री और स्टेट फोर दो ऐसी गाड़ियाँ थीं जिनका नम्बर हर कॉलेज के छात्र और छात्राओं को जबानी याद था. जब ये गाड़ियाँ हॉस्टल के गेट से निकलती थीं तो एक आह-सी रित जाती थी. ‘गई, रे…..!’ कोई न कोई अवश्य कहता और अनेकों निगाहें उस गई गाड़ी का पीछा करती – पीछे छूट जातीं !

बलि और खली अपने बाप – चन्दन बोस की खटारा पुरानी प्रीमियम पद्मिनी में पधारे थे. यार दोस्तों ने लानत भेजी थी और उन दोनों को लब्बो-शब्बो को छूने तक से वर्जा था.

“ब्बे , साले खली !” पंकज ने सीधे खली को ललकारा था. “आज किराए पर ही ले आता, नई गाड़ी !” उसने उलाहना दिया था. “तू आज छूके देखना शब्बो, को ?” उसने चुनौती दी थी. “बेटा ..! हम सब मिलकर मारेंगे तुझे !” उसने खली के काठ-कबाड़ को देखते हुए कहा था.

“क्या गला पाया है, यार ने !” किसी ने फिर प्रशंशा की थी. “बाई, जो…..! जब तू गाता है न – दे टक्कर, तो कलेजा दिल को आ जाता है, बे…….!”

रिहर्सल आरम्भ हो रहा था. दे टक्कर का ही संगीत बज रहा था. पूरा का पूरा सभागार जैसे एक प्रेम भावना से भर आया था .. और हर कदम ठुमक-ठुमक कर गा रहा था – दे टक्कर ! विचित्र माहोल था.

पहले स्टेज पर बलि और खली प्रकट हुए थे – तो तालियाँ बजी थीं. लेकिन जब लब्बो-शब्बो का आगमन हुआ था तो तालियों की गर्जना से पूरा हॉल हिल गया था. क्या हुस्न था .. क्या अदाएं थीं .. कैसा खिला खिला गोरा रंग था .. और उन दोनों के शरीर जैसे नपे तुले हाड़ -मांस से बने थे ! दंग रह गए थे लोग, लब्बो-शब्बो को देख कर !

“राज-पुत्रियाँ हैं, साले …!” मित्रों की भीड़ ने कहा था. “अरे, भाई …! इनकी तो पैदाइश ही ..”

“देख, साले ! वो दोनों भाई….!!” उधर लोग बतिया रहे थे. “जमते तो ये दोनों भी हैं …! खली की बॉडी देख और बलि की अदाएं ! साले फ़िल्मी हीरो ही लगते हैं !”

गीत – दे टक्कर शब्बो ने शुरू किया था. अन्तरा ख़त्म होते ही खली ने जोरों से कहा था – दे टक्कर ! उसके बाद तो उन्माद छा गया था. लब्बो गा रही थी .. लोग झूम रहे थे .. और फिर होंठ काटकर बलि ने कहा था – दे टक्कर !! हल्ला मच गया था. सीटियाँ बजी थीं – वाह-वाह के नारे लगे थे. और फिर खली गाने लगा था ! लोगों को इन्तजार था .. जब शब्बो ने कहना था – दे टक्कर ! और हुआ भी वही – शब्बो ने हलकी सी कुहनी कूँच खली से कहा था – दे टक्कर ! आसमान गिरने-गिरने को हो गया था !!

प्रेस पागल हो गया था. लोग अंधे हो गए थे. प्रेम-भावना का नशा पहली बार बम्बई के लोगों के सर चढ कर बोला था. तै हो गया था कि फाइनल के लिए ख्याति प्राप्त लोगों को आमंत्रित करेंगे .. फिल्म वालों को बुलाएँगे .. और पेरेंट्स विशेष आग्रह पर बुलाये जायेंगे !

अखबार और पत्रिकाओं में ‘दे टक्कर’ का वर्णन और लब्बो-शब्बो और बलि-खली के फोटो भी छपे थे. छात्रों की पत्रिकाओं ने अलग से इन कलाकारों का गुणगान किया था. रातों रात बम्बई के सूने पड़े क्षितिज पर चार सितारे उग आये थे .. और अब टिमटिमा रहे थे ..! उनके भविष्य के बारे में भी कयास लगाए जा रहे थे .. और उनकी तुलना भी की जा रही थी !

“दिलीप कुमार लगता है, ये बलि और बड़ा खली तो अमरीश पुरी जैसा है. बाई गॉड ! शब्बो मीना कुमारी की तरह बोलती है – दे टक्कर ! और ये लब्बो काट के धर देती है – जब, शर्मीला की तरह .. आँख मार कर कहती है – दे टक्कर …!

चन्दन बहुत प्रसन्न था. चेन्नई में काम धड़ाके से चल पड़ा था. प्रेस और पब्लिक दोनो से ही चन्दन को जी तोड़ रेस्पोंस मिला था. नई दुनिया का हर ओर स्वागत हो रहा था. चन्दन को अब अपना अंतर-राष्ट्रिय स्वप्न साकार होता लग रहा था. अचानक उसे पारुल की याद हो आई थी. पारुल ने उसे हर प्रकार की आजादी दी थी .. धन दिया था .. और हाँ, हाँ ! और मन भी दिया था ! का:श ढलती इस शाम के साथ .. अगर पारुल भी आ जाती तो ..

फ़ोन की घंटी ने विचार तोड़-फोड़ डाला था ….!

“हाँ, हाँ ! बोल रहा हूँ !! चन्दन……!!!” उसने जोर देकर कहा था.

“बच्चों के प्रोग्राम में .. आ जाते तो .. उन्हें अच्छा लगता !” आवाज कविता की थी. चन्दन एक बारगी उछल पड़ा था. “सबके पापा आये थे ..” कविता उलाहना दे रही थी.

चन्दन बौखला गया था. उसे कुछ उत्तर न सूझ रहा था. वह कविता के फोन की तो कोई उम्मीद लेकर ही न चल रहा था. उनका बिछोह तो हो चुका था. लेकिन .. ये .. कविता ..?

“मद्रास में हूँ !” चन्दन ने सांस रोक कर कहा था. “काम बहुत है .. कविता !” और उसने चुपके-से फोन काट दिया था.

अकेली पारुल चन्दन महल की दृश्य-दीर्घा में खड़ी प्राची में उगते सूरज को देख रही थी. उसे समुन्दर के पेट से उगता और शनै: शनै: ऊपर आता बाल रवि, किसी पल भी उसे पुकारने को था .. ‘माँ’ कहकर पुकारने को ! आज अचानक पारुल को अपना बेटा याद हो आया था. क्या करती …? उसे तो अपने बेटे का हुलिया तक याद न था ! हाँ ! सावित्री ने ही कहा था – बना बनाया राजन है !

हलकी फुहारें आने लगीं थीं. चन्दन महल का प्रतिबिम्ब समुन्दर में झूलने लगा था. बयार का रुख बदला था. सुखद पुरवैया ने .. पारुल का बदन छू कर कहा था – महारानी जी ! आपका ये इंद्र जैसा वैभव .. हमे पसंद आया ! चन्दन महल के साथ .. आपका मेल खाता हुस्न .. और आपका यश .. इन्द्रलोक की याद दिलाते हैं. इस दूधिया चन्दन महल के प्रतिबिम्ब को मै चुराकर ले जाती हूँ और ..

“माँ …..!” फ़ोन था. इत्ते सुबेरे-सुबेरे शायद .. चन्दन ने ही पुकारा होगा – वह सोचने लगी थी. लेकिन फिर से आवाज आने लगी थी. “माँ ..!!” अब पारुल को होश आया था. उसे सहसा याद आया था कि उसे दोनों बेटियों ने कॉलेज के फंक्शन में बुलाया था. फिर गप्पा ने जब ढेर सारे अखबार और पत्रिकाएं उसे दिखाई थीं तो वह दंग रह गई थी. “माँ ..!!!” आवाज फिर से गूंजी थी. “अगर .. आप आ जातीं तो ..?” एक मधुर और प्रिय आग्रह था. शब्बो बोल रही थी. उसकी आवाज बहुत मीठी थी .. बिलकुल उसी की तरह ! “कित्ता .. जोरदार .. प्रोग्राम था ..”

“सॉरी, बिट्टा …!” पारुल ने स-प्रेम कहा था. “आई ऍम वैरी सॉरी !” उसने क्षमा मांगी थी. “वो क्या है की .. नई दुनिया में एक साथ इतना काम उमड़ पड़ा है कि पूछ मत ! शाम तक पागल हो जाती हूँ .. पर .. काम ..”

फोन कट गया था. लेकिन पारुल का दिमाग घूम गया था …..!!

न जाने कैसे पारुल का विगत नगाड़े पीट-पीट कर कोई मुनादी कर रहा था …..!

मयूरी बनी पारुल ने – अखियाँ कर मोर बने संभव को देखा था. संभव शर्मा गया था. और फिर पारुल भी तो लजा गई थी. वो दोनों मोर और मोरनी की सज्जा में स्टेज पर प्रेम-सगीत और प्रेम-सन्देश को लोगों तक पहुँचाने के लिए तैयार खड़े थे. तभी तो ढोल पर डंका पड़ा था .. और वह – पारुल .. पंख फडफडाती स्टेज पर आकर थिरकने लगी थी .. नाचने लगी थी .. और अपने प्रेमी मयूर को टेरने लगी थी. टेर सुनकर मयूरा भगा-भगा चला आया था. संभव कितना जच रहा था – मोर की भूमिका में ! और फिर वो दोनों .. जम कर नाचे थे .. जी भर कर उन्होंने दर्शकों को लुभाया था .. और ..

“तभी तो देख लिया था-समीर सेकिया ने, उसे …!” पारुल की सांस रुकने लगी थी. “और फिर वह खरीद कर ही माना उसे ! क्या करते पापा ..? क्या करता सम्भव ! समीर युवराज था .. स्टेट का मालिक था .. अकेला मालिक और माँ का लाडला !!”

“नजर न लग जाये मेरी बेटियों को !” बडबडाई थी, पारुल ! “हे, परमात्मा ! मेरी दोनों बेटियों की रक्षा करना !” उसने प्रार्थना की थी. “बेटियों का भाग्य ..?” वह सोचने लगी थी. “माँ जैसा तो नहीं होना चाहिए !” उसका सोच था. “समर्थ हूँ .. मै …!” पारुल स्वयं से कह रही थी. “अच्छा घर-वर तलाश कर के ही ..” वह रुकी थी. “रॉयल या रजवाड़ों में ही दूंगी .. अपनी बेटियां …!” पारुल ने निर्णय ले लिया था. “ये .. प्रेम का प्रमाद .. तो बे-हूदी बातें हैं ….!” उसने जोरों से कहा था.

और फिर नीचे उतर आई थी, पारुल…….!!

क्रमशः-

मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !

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