जेल में हूँ. माँ, बाबूजी, मालती .. विवेक .. हम सभी. हमारी बात कोई सुनने वाला नहीं है. दो साल भी पुरे नहीं हुए हैं शादी को ..
पहली बार उसे फोटो में ही देखा था. जैसा नाम वैसा ही रूप था उसका. गोरी थी और नाक-नक्श भी अच्छे थे. सुन्दर थी. माँ ने पूछा तो हाँ कर दी ..
वो कम शर्माती थी और मै ज्यादा .. शादी से पहले जब भी उसका फ़ोन आता तो मुझे संकोच होता. वो कहती भी थी – लड़की मै हूँ पर शरमाते तुम ज्यादा हो.
सगाई हुई और फिर शादी भी हो गई.
सब बढ़िया चल रहा था. फिर एक दिन जब ऑफिस से घर लौटा तो कुछ तनाव सा था. शायद किरण की माँ से कुछ कहा-सुनी हो गई थी. माँ को समझाया और कुछ किरण को भी .. और सब नार्मल हो गया. दो चार दिन ही हुए थे की फिर से माँ और किरण का झगडा हो गया. बात कुछ नहीं थी .. बस यूँ ही दाल में मसाले क्या पड़ेंगे ..
फिर तो आये दिन कोई न कोई नया मसला सामने आने लगा. न माँ झुकने को राजी और ना किरण. मालती, छोटी बहन, कभी माँ को समझती और कभी भाभी को. बाबूजी को इस झगडे में ज्यादा दिलचस्पी नहीं होती थी. विवेक, छोटा भाई, अपने काम से काम रखता था. कॉलेज और दोस्तों से ही फुरसत नहीं थी उसे.
फिर एक दिन शाम को जब घर आया तो पता लगा की किरण अपना सूटकेस पैक कर अपनी माँ के घर चली गई है. पूछा की क्या हुआ तो माँ ने अपनी कहानी सुना दी. मालती ने कहा कुछ नहीं भईया सब ठीक हो जायेगा तुम भाभी को माना लो.
किरण ने फोन उठाया और उठाते ही कहा – अब तुम्हारी माँ के साथ नहीं रह सकती, बस.
झुकना तो मुझे ही पड़ा. अलग घर लेकर रहने लगा.
एक दिन शाम को घर आया तो किरण मुझसे लड़ पड़ी – पैसों के लिए. मकान मालिक किराये के लिए आया था. मेने कहा कल दे दूंगा आज नहीं हैं तो बोली ठीक है कुछ पैसे शौपिंग के लिए दे दो. मेने कहा ऐसी क्या जल्दी है कल ले लेना ..
इसी बात पर झगडा बढ़ गया. उसने कमरा अन्दर से बंद कर लिया .. मै भी गुस्से में बहार ही सो गया. सुबह उठा तो किरण का दरवाजा अब भी बंद ही था. खटखटाया तो कोई उत्तर नहीं मिला ..
जब बहुत देर हो गई तो कुछ पड़ोसियों को बुलाया .. पुलिस को फ़ोन किया .. दरवाजा तोड़ कर अन्दर गए ..
पंखे से लटकी हुई थी किरण ..
उजाला ले कर आई थी .. अँधेरा कर के चली गई .. क्यों? मै तो खुद भी समझ नहीं पा रहा हूँ. अब ये रात कितनी लम्बी होगी .. क्या पता!