” स्टॉप..! स्टॉप..!.. स्टॉप…!!”।
ए..! जॉली दिखा..!!”
” one two three four….and five.. चल.. ओवर!”,।
” जॉली तो है.. ही नहीं..! हो गए तेरे पचास पैसे! .. अब तेरी जॉली की कल fifth period तक की ओवर!”।
यहाँ हम अपने ज़माने के दो मशहूर खेलों का वर्णन कर रहे हैं.. स्टॉप और जॉली।
लिखते और सोचते हुए.. भी हँसी आ जाती है.. कुछ नहीं.. बड़े प्यारे से नादान से खेल हुआ करते थे.. ये दोनों.. वाकई में यदि बात की जाए.. तो कोई मतलब नहीं हुआ करता था.. इनका..
पर फ़िर भी.. हम उस ज़माने में अपनी कक्षा में इन दो खेलों को लेकर ख़ास सीरियस हुआ करते थे.. और.. और खेलों की तरह इनके भी चैंपियन थे..
स्टॉप का मतलब होता था,” london स्टॉप” और जो जिस मुद्रा में हुआ करता था.. उसी में ठहर जाता.. जब तक हम ओवर नहीं कहा करते थे.. और थोड़ा भी हिलने पर पचास पैसे या एक रुपया देना पड़ता.. जितने की भी शर्त होती।
ऐसे ही जॉली में.. हथेली के कोने या फ़िर कहीं पर भी हथेली में अपने नीले रंग के पेन से गोला बना कर रखा करते थे.. कभी भी हमारी क्लास में जॉली का हल्ला हो जाता.. हथेली पर जॉली न मिलने पर फ़िर वही.. पचास पैसे या एक रुपया देना पड़ता।
ये हमारी जीती हुई.. पचास पैसे और एक रुपए की कमाई स्कूल कैंटीन में समोसे और ब्रेड पकोड़े खाने में ही जाया करती थी..
आज अकेले में बैठ हम अपने आप में ही हँस देते हैं.. जब हमें अपना वो.. पूरे जोर-शोर से बिना मतलब का जॉली और स्टॉप ख़ासकर लास्ट पीरियड में छुट्टी से पहले चिल्लाना याद आता है।