असंभव
उन का सोच तो सही था !
उन के साम्राज्य का सोच था – कि उन के उत्तराधिकारी आपस में मिल-जुल कर रहेंगे ! उन का मानना था कि उन के बच्चे पढ़-लिख कर लायक बनेगे और अपना दायित्व संभाल लेंगे. उनका मानना था कि सभी जातियां, सभी धर्म और सभी प्रान्त एक छत्र भारत के संविधान के तहत सुख पूर्वक रहेंगे .उन का कहना था – भाई-भाइयों की तरह रहना …और देश की अखंडता का ध्यान रखना !
उन्होंने इस साम्राज्य के लाने में कुर्बानियां दी थीं. उन की जेल यात्राएं ..काले पानी की यातनाएं …..और गोलिओं से छलनी हुए सीने हमें आज भी नजर आ जाते हैं ! एक साम्राज्य बनाने के सोच ने ही उन्हें प्रेरित किया था ….! एक मनीषा को मान कर ही उन्होंने जंग छेदी थी. सोच बड़ा था – उन का ! असंभव को ही तो माँगा था – तिलक ने ….गाँधी ने …बोस ने ….और नेहरु ने !
उन पर क्या-क्या नहीं गुजारी – हम जानते तो हैं ! उन्होंने एक संकल्प के साथ हमें साम्राज्य का वह सोच दिया जिस में -सर्वे भवंतु …सुखिनः , का सन्देश शामिल है !
फिर हम बहक क्यों रहे हैं …? लड़ क्यों रहे है …? हमें मिल क्या नहीं रहा है …?
अधिकार , आरक्षण …और रोज़ी-रोटी ….?
इसी सोच ने पहले भी हमारी लुटिया डुबो दी थी ….! विग्रह के बाद ही तो गुलामी आती है !!
सोचो , मित्रो !!
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