ओ मांझी रे,नदिया किनारा मेरा किनारा है !!
अलसुबह ही शाही टमटम उसे लेने विचित्र लोक आ पहुंची थी !
राजन तैयार था . राजन प्रसन्न था . राजन को उम्मीद थी कि आज की मुलाक़ात में वह पारुल से कुछ न कुछ तय कर लेगा ! वह पारुल को मना लेगा …और ले जाएगा – कलकत्ता !!
“कैसी गुजारी रात ….?” पारुल का पहला प्रश्न था .
“विचित्र है ….तुम्हारा ये – विचित्र लोक !” राजन ने हँसते हुए कहा था . “सोना चाहो तो नींद नहीं ….और जब नींद लौटे …तो रात नहीं ….! ना सोना होता है …न जागना !!”
“होता क्या है , फिर …..”
“यादें ….घटनाएं …विगत – जो लौट-लौट कर सताता है ! वही – जो पीछे छूट गया है – बार-बार लौट आता है ! और सताता है …..”
“वैरी सेड ….!” पारुल ने सीधा राजन को आँखों में घूरा था . “इस का अर्थ हुआ कि हम जो दावा करते हैं – झूठा है ? नहीं,नहीं ! आज से …अभी से ऐसा नहीं होगा !” पारुल रुकी थी. “हम वक्त को रोकेंगे ….भोगेंगे ….और फिर सोचेंगे … कि और नया-नवेला क्या हो ….कैसे हो …..?”
“रही …!” राजन ने पारुल के हाथ पर हाथ मारा था . “चुनौती रही ….आप पर …योर …ग्रेस ….!!”
“रही ….!!” पारुल ने स्वीकारा था .
और जब नाव पर नास्ते का प्रस्ताव और प्रयोजन सामने आया तो राजन हैरान रह गया था .
“अपनी चौइस का लीजिए ….और अपने स्टाइल में खाइए ….!” पारुल का आग्रह था. “ये नदिया नहीं …मानस है …महान मानस ….! ये ब्रह्मपुत्र की सहोदर है !! इस की ये विपुल जल -राशि …….”
“हमारे प्राण हैं …हमारी जान हैं ….और ये ही हमारा सम्मान हैं ….!!” राजन भी भावुक हो आया था . “सच,पारुल ! हम कितने अभागे हैं कि… हम अपने इन अनमोल नैसर्गिक सन-साधनों का मान-सम्मान तक नहीं कर पाते . विदेश में जा कर देखो तो ….एक-एक कण को उन्होंने …संजो कर …सजा कर रख छोड़ा है ! और हमने …..”
“मेरा यही तो प्रयास है, राजू ! पंद्रह किलोमीटर की इस यात्रा पर चल कर तुम देखना ….कि ब्रह्मपुत्र और मानस का संगम ….”
“मेरा सौभाग्य है , पारुल ….कि ….” राजन चुप हो गया था .
लेकिन संगम का द्रश्य देख कर राजन दंग रह गया था …..!!
तभी पारुल को संभव की याद ने आ घेरा था …..!!
“कहाँ खो गईं ….?” राजन ने उसे तुरंत टहोका था.
“वो ….वो ….देखो ! मछुआरे …..! चलें …..?” पारुल ने पूछा था . “वही चल कर लंच लेंगे और फिर ….”
“एक मांझी सोंग ….” राजन अब मूड में था . “ओ …मांझी रे ….! नदिया किनारा………. मेरा किनारा है …..”
“हाँ,हाँ ! मांझी ….सोंग ….!!” पारुल अब होश खोने लगी थी . ” ना जाने मुझे क्या होने लगता है , यहाँ आ कर …..” वह कुछ अटपटा-सा कहे जा रही थी.
संभव से पीछा छुडाना कभी-कभी असंभव हो जाता था ….पारुल को .!!
लेकिन लौटते वक्त हवा का रुख पलट गया था . नाव खूब भाग रही थी . पर राजन तनिक उदास था . वह अभी तक पारुल से मन की बात कह नहीं पाया था !
“अच्छा , बताओ राजन ! कि हमें इस नौका विहार का कितना वसूलना चाहिए अपने सैलानियों से ….?”
“यू कैन …आस्क …फॉर …ए …मून , माई डियर ….!!” राजन अब फिर से मूड में था . “इस जन्नत का तो कोई मोल नहीं ….! और जो यहाँ आता है ….उस के लिए पैसे का कोई मोल नहीं ….!! चाहे जितना …मांगलो ….” वह हंस रहा था .
“मेरी योजना है कि …..”
“सफल हो सकती है ….!” राजन ने बिना कुछ सुने ही स्वीकार में सर हिलाया था . “मुझे देख लो ….! आज मेरा घोड़ों का व्यापार …पूरे देश-विदेश में प्रख्यात है ! मेरे घोड़ों की कीमत ….वो है …जो मैं मांगता हूँ . नो बार्गेन …..”
“और मेरी कीमत …….?” पारुल पूछ लेना चाहती थी…..पर कुछ कह न पाई थी . उसे राजन से पैसा ही तो चाहिए था ! ढेरों …सारा पैसा ….!! पैसा- ताकि काम-कोटि का राज्य पुनः स्तापित हो सके ….और वह राज माता …..
“यौर ग्रेस ! ये राज माता का किरदार …..तो कमाल का है ! इतनी आकर्षक लगाती हो …..”
“और थोडा पैसा हो ….वैभव बढे ….शान-बांन ….राज्य-विस्तार ….हो तो ….देखना …!” पारुल ने पाशा फेंका था ताकि राजन को कुछ धन देने पर राज़ी कर ले .
“पैसा और चाहिए …तो चलो कलकत्ता ….!” राजन ने भी मौका देख तीर छोड़ा था . “दो डर्वी खेलने के बाद देखना ….! मेरा जिम्मा रहा , योर ग्रेस ….कि …..”
“नहीं ….!” पारुल का दो टूक उत्तर था . “काम-कोटि का राज-वंश चाहता है कि मैं इस का जीर्नौद्धार करूं ….पुनरास्थापना करू….और ….”
बुझ गया था , राजन ! उस का उल्लास भागती नौका के साथ जा जुडा था . उस के मुंह का जायका ही बिगड़ गया था . उसे लगा था कि वह व्यर्थ में ही अपना समय नष्ट कर रहा था . नाव ने पलटा खाया था . एक जोर का झटका लगा था . नाव अचानक ऊँचे से कूद एक निचान में आ कर खड़ी हो गई थी . राजन ने आँखें पसार कर देखा था . एक मनोहारी छटा के बीचोंबीच नाव खड़ी थी . एक भव्य महल जैसा सामने था !
“ये ….ये ….कौन स्थान है ….?” राजन ने हडबडा कर पूछा था . “इतना ….सुपर्व …..इतना …..मोहक ….?”
“ये सोना झील है , राजू !” विहंस कर बता रही थी , पारुल . “ये महारानी सोना के नाम पर …मानस के पेट को काट कर बनाई है . महाराज प्रथ्वी जीत सिंह ने इस झील का निर्माण कराया था . महारानी सोना – कहते हैं , बेजोड़ सुंदरी थीं . ”
“होंगीं …..!” राजन ने हामीं भरी थी . “झील देख कर ही ….”
“लेकिन उन का अंत ….बड़ा ही दुखद अंत रहा ! महाराजा प्रथ्वी जीत सिंह की हार के बाद उन्होंने इसी झील में डूब कर जान दे दी ! सती थीं . उन्हें लगा कि महाराज के युद्ध हार जाने के बाद ….उन्हें ….
“अमर हैं, सोना महारानी !” राजन ने कुछ सोच कर कहा था . “उन का नाम …उन की कहानी ….और उन का बलिदान आज भी ज़िंदा है !”
“यों तो वो भी जिन्दा हैं ! लोग कहते हैं कि रात के एकांत में उन्हें यहाँ देखा जा सकता है ! विरहा गाती …महारानी सोना …. का स्वरुप लोगों ने देखा है .” पारुल ने विस्तार से बताया था .
“रात को यहीं रुकते हैं ….!” राजन ने सुझाव रखा था . “शायद महारानी सोना ……?”
“आओ !” पारुल ने आग्रह किया था . “अगला प्रोग्राम हमारे इंतज़ार मैं खड़ा है !” पारुल का इशारा कहीं और था .
वो दोनों अब नाव से उतर उस भव्य राज महल में चले आये थे .
यहाँ चाय-नाश्ते के साथ-साथ झील में नहाने का उपक्रम भी था ! पारुल ने राजन से स्विम शूट पहनने का आग्रह किया ….और स्वयं भी दूसरे कमरे में जा कर तैराकी के लिवास पहन साथ में आ खड़ी हुई !
“लगाएं छलांग ….?” पारुल का प्रश्न था .
“लगा दो ….!!” राजन ने विहंस कर कहा था .
पारुल मछली की तरह जल के भीतर कूद कर विलीन हो गई थी . राजन उस मोहक द्रश्य को सराहता रहा था . उस के मन में भी उचंग उठी थी और वह भी झील में कूद ….पारुल को पकड़ने का प्रयत्न करने लगा था . एक छोटा-छोटा मुकाबला आरंभ हुआ था . पारुल हंसती और गोता लगा जाती . राजन लपकता और उसे तलाश करता . अंत में पारुल राजन की बांहों में थी ! राजन ने उसे एक खोई निधि की तरह …आज पा लिया था . अपनी जाँघों पर उस ने पारुल को पसार , पारुल के अंग-विन्यास निहारे थे . वह अंधा हो गया था ! पारुल का हुश्न आज द्विगुणित हो कर उस के साथ घात खेलने लगा था . नरम …कोमल और मन भावन पारुल का शारीर राजन के मन-प्राण को सुलगा कर रख गया था . फिर मछली की तरह पारुल उस के आगोश से खिसक पानी मैं डबकी लगा गई थी ! निराश राजन केंकड़े की तरह अब उस के पीछे गया था . और वो भागती रही ….तैरती रही …राजन को बुलाती रही …भगाती रही ….थकाती रही …….!!
“इस की कीमत नहीं पूछोगी …?” उन्हें लेने आई कार में बैठते हुए राजन ने पूछा था .
“क्या दोगे, बोलो …..?” पारुल प्रसन्न थी .
“सर्वस्व ….!!” राजन कह उठा था .
“कब दोगे ….?” पारुल ने पूछा था .
इस प्रश्न का उत्तर राजन नहीं देना चाहता था . वह कहना चाहता था – बदले मैं क्या दोगी ? वह पूछना चाहता था कि ….आखिर उसे रिंझाने का ….मनाने का ….खिलाने का …और खुश करने का पारुल का आशय क्या था ?अगर पैसा ही था – तो राजन को अपना सब कुछ पारुल को सौंपने में कोई उज्र न था ! लेकिन पारुल उस की हो कर रहे …..तभी न …..!!
निरुत्तर लौट गई थी , पारुल …..!!!
और बुझे सोच के साथ राजन भी विचित्र लोक लौट आया था . रात के ग्यारह बजे थे . रात भांय -भांय करने लगी थी . अकेले राजन को विचित्र लोक खाने को दौड़ रहा था . उसे लग रहा था कि …..वो विरहा गाती महारानी सोना की आवाजें सुन रहा था ….उस की डोलती परछाई को निहार रहा था ….उस के दुःख बाँट रहा था …और शायद सोना की तरह ही अपनी जान देने की सोच रहा था …..!!
“नहीं,नहीं ! में मारूंगा नहीं ….!! न में हारूंगा …और में पारुल को पा कर ही दम लूँगा …..!!!” समय से वायदा किया था – राजन ने !!
……………….
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!
