गुनाहों का गढ़ !

मुझे तो कुछ आता -जाता नहीं !

न जाने क्यों मैं एक ही चौखट पर आँख गढ़ाए कुत्ते की तरह ….गिरारे में बैठा रहा -आजन्म !

मालिक ने लात मार कर भगाया है तो अब एहसास हुआ है …कि मुझे कुत्ते की वफादारी से अलग – मनुष्य की वफादारी पर मनन करना चाहिए था ! अच्छे को अच्छा …और बुरे को बुरा कहना चाहिए था ! मुझे बताना चाहिए था …कि मैं मालिकों के बारे वास्तव में क्या सोचता था ….क्यों सोचता था ….और अगर ….मुझे उन का व्यवहार ,आचरण ,निष्ठा …….धर्म परायणता ….और देश-भक्ति गलत दिखते थे …..तो वो गलत थे ! उन्हें सही माना ही क्यों ? मैं कुत्ता तो न था !

अब मौत पास आ कर बैठ गई है . मेरे पास अब कोई खैरियत पूछने तक न आएगा . कारण -मैं अब मालिकों के काम का नहीं रहा ! मैं पत्नी -परायण तो कभी से नहीं रहा . मेरी बेटी ने तो मुझे पहले से ही बुरा-भला कह कर इस घर का कुत्ता ही कहा था . उस ने कहा था ,”गलत कर रहे हैं, आप ! ये कोई राजनीती नहीं ….अनीति है ! ये लोग किसी के भी सगे नहीं हैं . घोर स्वार्थी हैं . लुटेरे हैं ….! देश-भक्त नहीं , पेट भक्त है ! सब सूंत -सांत कर लिए जा रहे हैं …..जो मिलता है ….ढोए जा रहे हैं . और एक आप हैं , पापा ! जो अंधे हो गए हैं ….! आप देख ही नहीं पाते कि …इन्हें अपने अलावा और किसी की बू तक नहीं सुहाती ! सामने खड़े हम – इन्हें कुत्ते से आगे और कुछ नज़र नहीं आते !”

“बस कर ,नीलू !” मैं गरजा था . “देश पर इन का इतना उपकार है, बेटी ……””

“चुप करो !” वह तड़की थी. “खाख उपकार है ! बलिदान किसी ने किया – नाम इन्होंने लिख लिया ! आप जैसे मूर्ख लोग ….इन के जय-जय कार में रात-दिन जुटे हैं . क्यों ….?”

“हमारी आज़ादी ….., नीलू बेटे ….! हमें बिना खडग और ढाल के आज़ादी देने वाले ये लोग …..”

“सब झूठ है, पापा ! मैं जानती हूँ कि  ….आज़ादी के लिए सेना ने बगावत की थी …! अंग्रेजों को पता चल गया था कि अब उन की दाल न गलने वाली थी. वो जान गए थे……..कि …उन के पास भारतीय सैनिकों का मुकाबला करने के लिए …..कुछ भी नहीं था ! सेना ही तो उन की शक्ति का मूल-मंत्र था ! हाथ से जाने के बाद ….वो खाली थे ….निहत्थे थे ….लाचार थे ….और थे गुनाहगार- हमें गुलाम बनाने के !” नीलू का चेहरा तमतमाने लगा था .

मैं हैरान था . मैं परेशान भी था ! उस दिन लगा था ….नीलू मेरी आँखें खोल कर रहेगी . मुझे एहसास हुआ था – कि जो मार्ग मैं चुन बैठा था ….वो तो सरासर ही गलत था ! अचानक ही मेरे जहन में मेरे मालिकों के कारनामे कौंध गए थे ……! ‘चरित्रहीन’ मेरे दिमाग ने धडाक-से मुझे बता दिया था ! ‘तुमने इन्हीं आँखों से …सब कुछ तो देखा है , बंधू ?” मेरी ही ललकार थी. “और …ये बइमान नहीं हैं , क्या ?” मेरा अंतर पूछ रहा था . “छोडो, ये भी ! याद करो , उस भले आदमी को दी अकारण मौत ! क्या दोष था , शिव का ….? यही कि वो पागल देश-प्रेमी था ! हटा दिया -उसे रास्ते से ….! और अगर मित्र माखन ! वही आदमी इस पार्टी का अध्यक्ष बन जाता तो ….?”

“देश वास्तव में ही आज़ाद हो जाता !” मेरा अंतर भवक कर बोला है . “शिव में था कुछ ऐसा …जो …वो देश-हित में कर डालता ! वह था – जो इस बेकारी, गरीबी,अशिक्षा और अनैतिकता को पीट देता !”

“लेकिन इन का पत्ता साफ़ हो जाता ….!!” विचार आता है, तुरंत . “हाँ ! ये चौखट उठ जाती !! और …शायद …तब मैं भी ….इस कुत्ते के चोले से छूट जाता ….? शिव मुझे बहुत चाहता था . लेकिन …..”

“गद्दारी तुमने की थी, माखन मित्र ! उस बेचारे शिव की मौत का खून तो तुम्हारे सर है !!”

नहीं,नहीं ! मैंने तो …मैंने तो …मात्र ….शिव को …. ! अब मेरी आँखें बरसने लगी हैं . पश्चाताप का बांध टूट गया है . अपराधों का सिलसिला चल पड़ा है ….! मेरे ही द्वारा हुए …अपराध ….! मैं इतना पागल क्यों निकला ….? इस चौखट में ऐसा क्या करिश्मा था ….जो मैं टकटकी लगा कर ….इसे ही देखता रहा ….? अच्छा-बुरा भूल …मैं इन्हीं के गुण क्यों गाता रहा …?

“बूढ़े …और बेकारों का क्या करेंगे , हम ….?” मैं आवाजें सुन रहा हूँ . “जाओ, भाई ! अपना रास्ता लो ….!!” एक आदेश है – जो बर्फ से भी ज्यादा ठंडा है .

चीर दिया है , मेरे अंतर को इस आदेश ने ! मैं अब मरणासन्न हूँ . असक्त हूँ …अकेला हूँ ….अपने गुनाहों के साथ हूँ ….और स्वीकार के साथ सन्नद्ध हुआ पड़ा हूँ . लेकिन न जाने क्यों एक तमन्ना अभी भी शेष है -जो मुझे जिन्दा रखे है !

मैं ….मैं …माखन लाल ….इस चौखट का ….इस परिवार का ….पराभव देख कर मरना चाहता हूँ ! मैं चाहता हूँ कि ये गुनाहों का गढ़ ….मेरी इन आँखों के सामने ही ढह जाए …ताकि मेरा देश जी जाए ! वरना मेरे जाते ही ….गुनाहगार इन्हें हथेलियों  पर धर कर ….जुबानों पर उछाल -उछाल कर …बार-बार सत्ता सौंपते रहंगे ….और …ये ….?

क्यों कि मैं तो कुछ जानता नहीं …..

…………….

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

 

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