सुलभा और नरेन्द्र को एक दुसरे से प्यार हो जाता है |
प्रेम की कोई उम्र नहीं होती | प्रेम की कोई जाती भी नहीं होती | प्रेम होने के लिए कोई विशेष स्थान भी दरकार नहीं होता | प्रेम होना तो एक ऐसी घटना है जो स्वयं में ही विचित्र है | इसके होने के लिए, घटने के लिए, पनपने के लिए क्या हो और क्या न हो – कोई नहीं जानता |
यह रोग जब लग जाता है, तभी इसका अता पता मालूम होता है |
यही सुलभा के साथ भी हुआ | यही नरेन्द्र के साथ भी हुआ | दोनों ही जब मिले तो लगा वह दोनों अमर प्रेमी हैं, एक दुसरे को सदियों से जानते हैं, कभी न वह जुदा थे, और न अब कभी जुदा होंगे !!
उपन्यास – सुलभा का न्याय