लो, जी ! मैं जेल में पहुँच गया !!
सच में ही मैंने गीता को कूड़े दान में फ़ेंक दिया था.
तब मैं नया-नया पठ्ठा हुआ था . तब मैंने दुनियां को नई निगाहों से निहारा था . तब मुझे सतरंगी हुआ माहौल पुकारने लगा था….बुलाने लगा था …रिन्झाने लगा था . क्या-क्या नहीं था ? मन भागा डोला था – महा-माया की फुल-बगिया में और डूब-डूब कर नहाया था . जो था – सो तो था ही पर जो नहीं था – वह भी मुझे चाहिए था . मैंने माँगा नहीं , लिया …सब लिया ! सब जिया !! सच में – मैं पूर्ण सुखों की तलाश में घात लगाए घूमा था – गली,गली …गाँव -गाँव ….शहर-शहर !
बूँद-बूँद कर इकठ्ठा किया था – मैंने ….शहद का महा सागर !
अब आ कर नहाने बैठा था . डूब-डूब कर शहद के महा सिन्धु में – हर स्वाद …हर जाइका ….और हर अदा को मैंने हाथ लगा-लगा कर सहा …सहलाया …चखा …और पेट भर कर खाया -खुर्ताया ! मेरी जीत के झंडे – फहराने लगे थे . मैं श्रेष्ट ही नहीं …सर्व श्रेष्ट कहलाने लगा था . लोग मेरे तलवे चाटने लगे थे . सब कुछ मेरे कदमों पर आ गिरा था .
‘मैंने किया है – ये सब !’ पुरजोर घोषणा थी – मेरी !!
“चलो !”
“कहाँ …?”
“जेल !”
लो जी ! मैं जेल पहुँच गया था . सच कहता हूँ – मैं बेगुनाह था . सब कुछ मेरे खिलाफ झूठा था . गढ़ा हुआ था . …सब कुछ ! लेकिन क़ानून का कहा कौन टाल सकता है ? किस में हिम्मत है – जो लिखे झूट को सच कहे ! प्रमाण चाहिए …अकल चाहिए ..!.और ठोस सत्यों को कानूनी जामा पहना कर तीरों की तरह छोड़ना आप के वश की बात तो नहीं होती !
“आइये !” जेल के वार्ड नम्बर चार में पहुचते ही मैंने आवाज सुनी थी . “स्वागत है, आप का और आप के अहंकारी अहं का !” एक हंसी उठ बैठी थी. “मुझे पता था कि तुम आज के ही दिन यहाँ पहुंचोगे !”
“कैसे ?” मैं अकड़ा था .
“मैं …मैंने ही तो किया है , ये सब !” वो जोरों से हंसा था. “तुम तो बहाना मात्र हो , मिस्टर मूर्ख ! सत्यवादी हो ….अखंड ब्रह्मचारी हो …विपुल वैरागी हो …! निर्दोष हो …सब कुछ हो …, मान लिया ! लेकिन ….अखबार में क्या छपा है …? टी वी पर क्या चल रहा है …? सुना है – लोग क्या-क्या कह रहे हैं …? हा हा हा …, बहुत भोले हो !”
वार्ड में कौने में रखी गीता को उठा कर मैंने अनायास ही माथे चढ़ाया था !
“भूल हो गई !” मैंने आहिस्ता से कहा था . “क्षमा चाहूंगा …!!” मैने आँखें बंद कर प्रार्थना की थी .
“मैंने ‘अंश’ हो कर अपने आप को ‘पूर्णांश ‘ मान लिया ! अहंकार और अहं ने मुझे अँधा बना दिया . उन्हें अपना मान बैठा जो बिलकुल ही बेगाने थे . उन्हें पुकारा – जिन्हों ने मुझे जेल भेजा ! उन के लिए कमाया – जिन्होंने मुझे लूटा !! लेकिन ….”
“लेकिन ….?”
“समर्पण ….! अभी ….इसी वक्त ….इसी पल से …समर्पण …आप के चरणों में सब कुछ समर्पण !! नहीं, नहीं . मेरा कुछ है कहाँ – जो मान करू …?”
और मैंने गीता को खोल कर पढ़ना आरंभ कर दिया था . सच मानिए ! जेल के उस वार्ड नंबर चार में बैठ कर मुझे गीता समझ आने लगी थी . मैं हैरान था कि मैंने अहंकार और अंधकार में अपनी उम्दा उम्र गुजार कैसे दी ?
‘आप का तो केस ही कुछ नहीं हैं !’ ‘केस तो बनता ही नहीं है !’
मुझे सूचनाएं मिलाने लगी थीं !!
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !