देखा मैंने इक श्रमिक
जो निज कर्म पर इतरा रहा था
कर्म को ही धर्म माने
नित निरन्तर जी रहा था
शून्य सा लगता मुझे वो
जिसका कोई मूल्य न था
पर संग जिसके वो खड़ा था
उस सा कोई बहुमूल्य न था
अपने लहू से सींचकर वो
धरती से सोना बनाता
पर निरा अभिशिप्त था वो
खुद को कुछ न दे था पाता
पूँजीपतियों के घरों को
भरता था वो अन्नदाता
फिर भी उसकी झोली खाली
सोता था वो पी के पानी
नित नए आवास गढ़ता
महलों का वो निर्माण करता
फिर भी सोता था खुले में
आसमान के छत तले में
सुबह उठता ख्वाब लेकर
दो जून रोटी की आस लेकर
वो भी उसको था न मिलता
फिर भी उसका विश्वास न डिगता
लड़ रहा वो भाग्य से था
कर्म की तलवार लेकर
पर नहीं वो जीत पाया
भाग्य था खुद पर इठलाया
कर्म ही था भाग्य उसका
कर्म ही करता गया वो
देखा मैंने इक श्रमिक
जो निज कर्म पर इतरा रहा था
कर्म को ही धर्म माने
नित निरन्तर जी रहा था।

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