आज समर कोट लौटते जालिम का मन लौटना न चाहता था। वह तो कभी दिल्ली तो कभी हैदराबाद की गलियों में डोल रहा था।
न जाने क्यों जालिम का मोह दिल्ली में फस गया था।
दिल्ली युगों से चली आ रही एक सांस्कृतिक धरोहर जैसी थी। न जाने यहां कितने आए और कितने गए। कौन जीता – कौन हारा। लेकिन किस्से सब के थे। सब के हस्ताक्षर भी मौजूद थे। अनगिनत मजारें, मस्जिदें, गिरजाघर, मंदिर और न जाने कितने महल, कितने ऐशगाह, दरगाह, मीनारें और उन सब का जिंदा रहा इतिहास।
मुगलों को हिन्दुस्तान में भरपूर स्पेस मिली, तो अंग्रेजों को उनसे भी ज्यादा कुछ हासिल हुआ। सब के लेख हैं, शिला लेख हैं और कहानियां किस्से हैं जो पढ़े जाते हैं और लिखे जाते हैं।
दिल्ली ही क्यों, हैदराबाद का भी अलग अपना जलवा है। एक बार वहां हाजिर हो जाओ फिर तो शहर आपको पकड़ कर बैठ जाता है। बड़ा ही मन रमता है हैदराबाद में। दिल्ली के बाद हैदराबाद को सजाएंगे और बनाएंगे एक रंगीला जन्नते जमील। अगर सात सौ बेगम थीं हैदराबाद के नवाब की तो दिल्ली में हजार थीं खिलजी की। और अब राज आएगा शहंशाह जहांगीर द्वितीय का। तो फिर तो .. हाहाहा। खूब हंसा था जालिम।
फिर न जाने कैसे जालिम के सामने अचानक ही रोलेंडो आ खड़ा हुआ था। और वह रोलेंडो न जाने कैसे लॉर्ड क्लाइव बन गया था। और अब जालिम सिराजुद्दौला बना उसके सामने आ खड़ा हुआ था। युद्ध हुआ था। सिराजुद्दौला भाग खड़ा हुआ था। लॉर्ड क्लाइव ने .. अंग्रेजों ने ..?
“नहीं-नहीं। इस बार नहीं।” जालिम की मुट्ठियां कस आई थीं। “इस बार हरगिज न हारेंगे हम।” उसने जैसे शपथ ली थी। “इस बार की हमारी चाल कोई नहीं काट पाएगा।” उसे विश्वास था। “बहें खून की नदियां।” वह संवाद बोलने लगा था। “हम हरगिज न छोड़ेंगे हिन्दुस्तान।” वह बार-बार वायदा कर रहा था।
जालिम ने अचानक ही चाहत पूर्ण निगाहों से सजी-वजी बैठी रजिया सुल्तान को देखा था। उसका पागल मन लौटा था और रजिया सुल्तान के पहलू में आ बैठा था।
“ये देखिए। इब्राहिम लिंकन का पैन।” जालिम ने रजिया सुल्तान को खुश करने की गरज से पैन दिखाया था।
“बहुत खूबसूरत है।” रजिया सुल्तान ने मनुहार बखेरते हुए था।
“तुम्हें आता है – लिखना?” जालिम ने रजिया की आंखों में घूरते हुए पूछा था।
“आता है।” रजिया सुल्तान फिर मुसकुराई थी।
“अंग्रेजी आती है?” इस बार जालिम ने एक चुनौती दी थी रजिया सुल्तान को।
“आती है।” रजिया सुल्तान ने हामी भरी थी। “मैंने एम ए हिस्ट्री में किया है। पी एच डी रजिया सुल्तान पर की है।” उसने मुड़ कर कहा था।
“ओह, हां-हां। गुलाम अली ने बताया तो था।” जालिम को याद आया था।
रजिया सुल्तान चुप थी। जालिम भी चुप हो गया था। अब दोनों दो भिन्न दिशाओं में सोच रहे थे।
“मैं तो अनपढ़ हूँ।” एक लंबी सोच के बाद जालिम बोला था। “तुम रख लो ये पैन।” उसने रजिया सुल्तान से आग्रह किया था। “तुम्हारे काम आएगा।” उसने अपनी झेंप उतारी थी।
जालिम खिसका था और रजिया सुल्तान के बहुत समीप आ बैठा था।
“तुम मुझे अंग्रेजी सिखा दोगी?” जालिम ने अप्रत्याशित प्रश्न पूछा था।
रजिया की जैसे नींद खुली थी। अचानक उसे एहसास हुआ था कि अंग्रेजी और अंग्रेजियत का सिक्का दुनिया के हर कोने में दुनिया के हर आदमी की कमर पर छपा है। ये जालिम कोई सूरमा नहीं था। ये भी अंग्रेज और अंग्रेजियत का गुलाम ही था।
“क्यों नहीं।” रजिया ने विहंस कर हामी भरी थी। “कुछ मुश्किल नहीं है अंग्रेजी सीखना।” उसने अब जालिम को अपांग देखा था।
जैसे जालिम एक अबोध शिशु था और अब रजिया उसे ए फॉर एप्पल का पाठ पढ़ाएगी – वह मन ही मन खूब हंसी थी।
“मैंने अपनी मां का मुंह तो नहीं देखा पर अब्बा खूब याद हैं।” जालिम रजिया बेगम को बता रहा था।
जालिम ने अपना सर रजिया की गोद में रख लिया था। वह रह-रह कर रजिया को देखता था और मुसकुरा लेता था। रजिया सकते में थी। उसकी समझ में न आ रहा था कि जालिम करना क्या चाहता था – कहना क्या चाहता था?
अचानक सोफी को भी अपनी मां याद हो आई थी। उसका चेहरा मोहरा उसे खूब याद था। लेकिन उसका सर्वस्व तो सर रॉजर्स ही थे।
“वशीर हाट में रहते थे अब्बा।” जालिम ने कहना आरम्भ किया था। “हमारा एक टपरानुमा घर था। छोटा मोटा सामान घर में इधर उधर पड़ा रहता था। अब्बा सब्जियां बेचते थे। बशीर हाट के खुले मैदान में सब्जी की दुकान लगाते थे अब्बा।” जालिम ने मुड़ कर रजिया की प्रतिक्रिया पढ़नी चाही थी। “हमारी कोई नवाबी नहीं थी।” जालिम मुसकुराया था। “मैं भी अब्बा की सब्जी बेचने और लाने ले जाने में मदद करता था।”
“स्कूल नहीं जाते थे?” अचानक रजिया ने प्रश्न पूछ लिया था।
“स्कूल ..? कहा न मैं शाही अनपढ़ हूँ। कहां था स्कूल वशीर हाट में। मैं तो खुले में रहा .. आजाद रहा, मस्त रहा और बेफिक्र। अब्बा ने मेरा नाम जालिम क्यों रक्खा जानती हो? क्यों कि मैं बचपन से ही ..?” रुका था जालिम।
“शरारती थे ..?” रजिया ने विहंस कर पूछा था।
“हाहाहा। खूब कारनामे करता था। मारधाड़ से ले कर ..”
“फिर समर कोट कैसे पहुंचे?” रजिया का प्रश्न था।
“बताता हूँ।” जालिम तनिक संभला था। “यूं हुआ कि शहर नवीस मुआइने पर वशीर हाट आया था। उसने अब्बा को देखा। फौरन तैश में आ कर बोला – ये क्या सड़ी गली सब्जियां बेचते हो। बदमाश ..” और उसने फर्श पर सब्जियों में ठोकरें मारी। फिर उसने अब्बा पर भी हाथ उठाया। बूढ़े अब्बा खेल गए।” जालिम गंभीर था। “मेरा खून खौलने लगा था बेगम।” जालिम की आवाज बदल रही थी। “मुझसे रहा न गया था। मैंने लपक कर शहर नवीस का गला पकड़ लिया था और उसे तब तक न छोड़ा था जब तक वो मर न गया था। दो लाशें मेरे सामने पड़ी थीं। मैंने अब्बा की लाश को कंधों पर उठाया था और घर चला आया था।” रुका था जालिम।
“फिर क्या हुआ?” रजिया ने पूछा था।
“मैं जानता था कि अब शहर नवीस का लाव लश्कर मेरे पीछे आएगा और फिर मुझे ..?” जालिम ने रजिया की आंखों में झांका था। “मैं अब्बा की लाश को लावारिस छोड़ भाग लिया था। मुझे पता नहीं मैं कहां जा रहा था। इतना पता था कि मुझे अब दूर – बहुत दूर जाना था जहां शाही लाव लश्कर पहुंच ही न पाए। मैं तीन दिन और तीन रात लगातार भागता रहा था।”
“कमाल है।” रजिया ने प्रशंसा की थी।
“हां। कमाल ही था। अब मैं एक पहाड़ी प्रदेश में पहुंच गया था और किसी ठिकाने की तलाश में था। लेकिन वहां कुछ दिखा ही न था और कुछ था ही नहीं।” जालिम चुप था।
“और फिर?” रजिया को कहानी दिलचस्प लगी थी।
“अचानक मैंने नदी पर बना लकड़ी का पुल पार किया तो मुझे शहर दिखा। मैं घबराया। सोचा न जाने क्या बवाल था? लेकिन जाता तो जाता कहां। मैं शहर में हिम्मत बटोर कर घुस गया।”
“समर कोट था ..?” रजिया ने पूछा था।
“हां समर कोट ही था।” जालिम मुसकुराया था। “अभी इतनी ही कहानी अंग्रेजी में लिखो और मुझे पढ़ कर सुनाओ।” जालिम की आवाज अब सहज थी। वह प्रसन्न था।
रजिया ने महसूसा था कि जालिम प्रेम पर्व जैसा कुछ उसके साथ मिल कर मनाना चाहता था। वह कुछ करना चाहता था। और अपनी कहानी के माध्यम से कुछ हासिल कर लेना चाहता था।
नएला के साथ कई बार आंखें चार हुई थीं। लेकिन न तो राहुल के पास कुछ करने को था और न ही सोफी के पास कुछ कहने को था। लेकिन वो दोनों अब जालिम के चंगुल में थे। उन दोनों को ही किसी तरह से जालिम को वश में करना था और ..
लेकिन दोनों विवश थे।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड