आनंद आज गुरु से नाखुश था। पेड़ों और पौधों के लाख मनाने पर भी उसने किसी से बात न की थी।
उसे मां बहुत याद आ रही थी। छोटे भाई का चेहरा बार-बार सामने आता और पूछता – कैसे हो भाई साहब? और मां की याचक आंखें ..? आनंद ने आलीशान बंगले को आंखें भर-भर कर देखा था। और न जाने क्यों वह हंस पड़ा था।
“अपना कोई ठिकाना खोजो आनंद बाबू।” बंगले ने राय दी थी।
“आज ही – हां-हां। आज ही भाग जाऊंगा।” आनंद अपने आप को सुना कर कह रहा था। राम लाल अभी तक आया न था। लॉन में कुर्सियां खाली पड़ी थीं। “मैं .. मुझे भी ..” आनंद अटक गया था – आज भी।
और तभी राम ला कुर्सी पर आ कर बैठ गया था। उसने आनंद बाबू को आवाज दे कर बुलाया था। आनंद पैर घसीटता-घसीटता कुर्सी तक पहुंचा था।
“लो।” राम लाल ने एक करारा पांच सौ रुपये का नोट आनंद के हाथ में थमा दिया था। “मां को भेज देना।” उसने बड़ी विनम्रता से कहा था।
आनंद गदगद हो उठा था। उसने राम लाल का आभार माना था। उसे लगा था जैसे राम लाल उसका सच्चा मित्र था। हितैषी था, शुभ चिंतक था और जरूर ही उसका कोई जुगाड़ लगाने वाला था।
“वो .. हां।” आनंद कह रहा था। “उसका क्या हुआ? मेरा मतलब कि गज्जू ..?”
“गज्जू ने मेरी दोनों जेबें नोटों से लबालब भर दी थीं। फिर बोला – कहीं और चला जा राम लाल। देख। कोई ऊक चूक कैसी भी मुझसे हो जाएगी।” वह रिरिया रहा था। मुझे उस पर दया आ गई थी। मैं उठा और चल पड़ा। मुसकुराया था राम लाल।
“कहां?” आनंद आज राम लाल की कथा में आनंद ले रहा था।
“बंबई।” राम लाल ने एक घोषणा जैसी की थी। “मैं सीधा बंबई पहुंचा था, आनंद बाबू।” राम लाल की आवाज में दम लौट आया था। “अब मेरे पास धन था। धन की धमक थी, गरमी थी .. और आंखों में एक चमक थी। सोच रहा था – अब मैं चाहूं तो चांद पर भी पहुंच सकता हूँ।”
“कौन सा चांद खरीदा?” आनंद ने हंस कर पूछा था।
राम लाल चुप था। थोड़ा गमगीन भी हुआ था वह और उसकी आंखें बुझ सी गई थीं।
“सारी अक्ल, और सारी कुव्वत झोंकने के बाद भी आनंद बाबू मुझे किसी ने पास तक न बिठाया था।” राम लाल की आवाज डूबने लगी थी। आनंद का चेहरा भी पीला पड़ गया था। “मेरे चेहरे को देखते ही लोग बिदक जाते।” राम लाल ने आनंद को अपांग देखा था। “आप जैसा आकर्षक पुरुष मैं न था। हारा थका मैं पटरी पर ही पसर गया गया था। पूरा शरीर पिरा रहा था। वहीं बैठी एक औरत चाय बना कर बेच रही थी। मन हुआ कि एक चाय पी लूं। पैसे तो मेरे पास थे। कोई चिंता न थी।” राम लाल चुप हो गया था। कहीं खो गया था वह।
“फिर ..?” आनंद ने उसे जगाया था। आनंद को राम लाल की कहानी एक प्रेरणा दे रही थी।
“चाय!” मैंने उसे ठसक के साथ आदेश दिया था।
वह मेरे लिए चाय बनाने लगी थी। मैं उसे देख रहा था। मैं सोच रहा था कि ये औरत निरी बे शऊर है। इसे चाय तो बनानी ही नहीं आती। मेरे हाथ अचानक ही चाय बनाने के लिए फड़कने लगे थे।”
“चाय!” उसने मुझे चाय का गिलास पकड़ाया तब मैंने ध्यान दिया कि उसकी आवाज कितनी मीठी थी। फिर मैंने उसके चंचल नयनाभिराम को निहारा। सफेद दांत बड़े ही मोहक लगे मुझे। “कहां के हो ..?” उसने मुझे पूछ लिया था।
“धोबी का कुत्ता – घर का न घाट का।” मैंने दुखी मन से पहेली बुझाई थी। “तुम कहां की हो ..?” फिर मैंने भी प्रति प्रश्न किया था और उसे अपलक देखने लगा था।
“समस्तिपुर से।” संक्षेप उत्तर था उसका। “भाग आए .. वरना तो ..” उसकी आंखों में आंसू थे। “मरद को तो जमींदारों ने लाठियों से मार गिराया, फिर .. हमारी ओर ..!” वह रोने लगी थी। “विधवा हैं। पढ़ी हैं ..!” वह सुबकियां ले रही थी।
“कहां रहती हो?”
“यहीं। नुककड़ के पीछे कंदरा के साथ झुग्गी है।” उसने बताया था।
ग्राहक आ गए थे। वह चाय बनाने लगी थी। मैं अपनी चाय को आहिस्ता-आहिस्ता सुड़क रहा था – जैसे वही जीवन था – जिसे मैंने घूंट-घूंट कर पीना था और न जाने कब तक जीना था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड