न चाहते हुए भी जालिम सर रॉजर्स के लिए एक सच्ची संभावना बनता ही चला जा रहा है।

उन्हें नींद नहीं आ रही है। वो बैचैन हैं। परछाइयां बार-बार आती हैं और जालिम का भूत बन कर सामने खड़ी हो जाती हैं। तारा मण्डल की तरह अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैंड उनकी आंखों के सामने घूम रहे हैं – उन्हें डरा रहे हैं।

यूरोप असमर्थ होता चला जा रहा है – सर रॉजर्स ये जानते थे।

दुनिया भर के देशों से आए अजब गजब से शरणार्थियों ने यूरोप के पूरे देशों को नाक तक भर दिया था। लालच। लालच में मरा यूरोप। सस्ता लेबर चाहिए था। खुद काम नहीं किया। नौकरों को सोंप दिया अपना साम्राज्य। अब वो नौकर – नौकर नहीं रहे। अब तो उन्हें देश चाहिए।

कौन लड़ेगा इनसे- सर रॉजर्स प्रश्न पूछ रहे हैं।

बूढ़े लोग बचे हैं। यूथ पावर है नहीं। संतान हुई नहीं। लड़ेगी तो सेना ही। लेकिन सेना तो जन सैलाब के सामने शक्तिहीन हो जाती है।

“क्या टैड को बताऊं कि यूरोप को सचेत कर दें जालिम के बारे।” सर रॉजर्स स्वयं से प्रश्न पूछ रहे हैं। अगर .. अगर जालिम? वो डर गए हैं।

उन्हें फिर से याद आता है – ब्रिटेन में बैठा गोल्डी, जर्मनी में बैठा जज और फ्रांस में राज करता डूडो। और अमेरिका में बैठी लिंडा चाहे तो आज कहर ढा दे।

“अमेरिका ने किसी के लिए क्या बुरा किया?” सर रॉजर्स सोचते हैं। क्यों जालिम मिटा देना चाहता है पूंजीवाद को? क्यों डॉलर के पीछे पड़ा है और क्यों .. क्यों ..?

“कम्यूनिस्टों का किया दिया है ये सब।” उत्तर आया है। “यही विचार है जो जालिम के पास चल कर आया है। अब जालिम के साथ-साथ इस विचार को भी मारना होगा।” सर रॉजर्स एक दूसरे दुश्मन पर भी उंगली धरते हैं।

धन और धरती बंट कर रहेगा – यही तो कम्यूनिस्टों का नारा है। कैसा पागलपन है? एक कमाए और दूसरा उसमें हक मांगे? तो कोई काम क्यों करेगा? सारी व्यवस्था ही चौपट हो जाएगी। इन लोगों का इलाज ..

“माइट इज राइट।” सर रॉजर्स की उंगलियों में एक सहज उपाय आ कर उलझ गया है।

नर संहार भी तो हुए हैं – सर रॉजर्स को उत्तर मिला है। लेकिन क्या हुआ परिणाम? कहां मरा विचार? और ज्यादा प्रचार प्रसार हुआ तो अब जालिम जैसे और भी हिमायती खड़े हो जाएंगे। सब छीन लेंगे ये लोग।

“तो क्या यूरोप को जगा दिया जाए? बता दें कि जालिम से सावधान। बता दें कि भेड़िये की मांद में गीदड़ घुसा बैठा है। मार डालो इसे, जिस से पहले कि भेड़िया आए और तुम्हें खाए।

खेल बिगड़ जाएगा – सर रॉजर्स स्वयं ही उत्तर देते हैं। प्रीमैच्योर हो जाएगा – वो मानते हैं। लैट्स कैच जालिम फर्स्ट एंड ..

जालिम को पकड़ने जाती सोफी उन्हें अंधकार के पार दिख जाती है।

“अब क्या करूं?” सर रॉजर्स स्वयं से पूछते हैं। “कहूं कि – लौट आओ सोफी। कहूं कि लौट आओ तुम मैं जाऊंगा इस जालिम के दांत गिनने। तुम .. तुम बच्ची हो, अबोध हो, नारी हो। तुम इस दरिंदे के चंगुल में फस जाओगी मेरी लाढ़ो।”

निराशा की आंधी उठी है और सर रॉजर्स को उड़ाने लगी है।

सर रॉजर्स खुली खिड़की को बंद करते हैं। उन्हें आती फ्रेश हवा अब नहीं चाहिए। उन्हें आते प्रकाश की अब दरकार नहीं है। अपनी सुरक्षा के लिए वो अंधकार को ही टेर लेते हैं।

लेकिन इस घोर अंधकार में विश्व कैसे जिएगा रॉजर्स? – प्रश्न है कि अंधकार के उस पार खड़ा ही रहता है।

सर रॉजर्स का मन विचिलित है। कुछ भी करना नहीं चाहता। न जाने कहां से दुर्गंध की तरह एक नफरत उनके मन प्राण को सताती जा रही है। यहां तक कि आज कॉफी पीने तक का जी नहीं कर रहा है। क्या करें? कहां जाएं?

“फेस द फो।” अचानक एक उमंग उनके भीतर से उठ कर आती है। जैसे उनकी नींद खुली हो। वो फेस द फो का अर्थ और आशय दोनों समझ जाते हैं।

फेस द फो का ध्यान आते ही लिंडा कैरोल का बेजोड़ हुस्न उनकी आंखों के सामने आ कर ठहर जाता है। कई लंबे पलों तक वो लिंडा को निहारते रहते हैं। उनका मन बन जाता है फेस द फो फिल्म देखने का। शरीर में जान लौट आई लगी है।

आनन फानन में सर रॉजर्स ने अपने आप को अपने चैंबर में फिट कर लिया है और फिल्म फेस द फो देखने से पहले कॉफी का ऑडर भी कर दिया है।

लिंडा कैरोल एक शोले की तरह उनके दिमाग के भीतर भड़क जाती है।

पहले जब फेस द फो फिल्म देखी थी तब लिंडा कैरोल एक कलाकार के रूप में सामने आई थी। तब वो सबकी थी। सबका हक था उस पर। उन्होंने भी लिंडा कैरोल के अभिनय की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। लेकिन आज .. आज लिंडा कैरोल का असली नाम, असली काम और असल औकात ही अलग थी। आज वो अमेरिका के दुश्मन की बेटी थी।

पिंटो और मौनी दो युवा प्रेमी स्क्रीन पर उजागर होते हैं और अपने अजस्र प्रेम का डंका पीट देते हैं। हंसते हैं, गाते हैं, नाचते हैं और एक दूसरे से लिपट-लिपट कर अपने प्रेम का इजहार करते हैं। मधुर संगीत प्रेम की भीगी-भीगी आंच को और भी असरदार बना देता है। हवा के झोंके दर्शकों को हिला डुला देते हैं। दोनों के प्रेमिल स्पर्श दर्शकों में उन्माद भरते लगते हैं।

सर रॉजर्स के रोंगटे खड़े हो गए हैं। वो अब जीवंत हैं, मुखर हैं, एक प्रेमी हैं और प्रेम भावना से ओतप्रोत हैं।

अचानक प्रेमी द्वय स्क्रीन से गायब हो जाते हैं। उनकी तलाश में कैमरा जंगल, पहाड़ और नदी नालों में भटकता है। दर्शक भी बेचैन हैं। अचानक एक परम एकांत में एक दूसरे की बांहों में सिमट कर बैठे पिंटो और मौनी दर्शकों को मिल जाते हैं।

हू हल्ला मचता है। दर्शक प्रसन्न हैं, प्रेमी धीमे-धीमे स्वरों में प्रेम के रस पगे संवाद बोलते हैं। मैं तुम्हारे बिन न जी पाऊंगी जानी – जब मौनी अपनी हस्की आवाज में यह संवाद बोलती है तो कत्ल हो जाता है। दर्शकों की सांस बंद हो जाती है।

सर रॉजर्स भी विलाप करते हैं। लिंडा की अभिव्यक्ति बेजोड़ है। अब पिंटो का टर्न है। वह भी भाव भीने स्वरों में कहता है – मैं मरूंगा भी मौनी तो तुम्हारी बांहों में। लो जी – तालियां। लो जी ..

दर्शकों को छोड़ वक्त भागता है और न जाने कैसे पिंटो और मौनी दो बच्चों के साथ दर्शकों के सामने आते हैं। फिर वक्त दौड़ लगाता है और उनका प्रेम नीड़ धड़ाम से जमीन पर गिर कर टूट जाता है। दोनों बिछुड़ जाते हैं। बच्चे अनाथ हो जाते हैं। दर्शक रोते हैं, सिसकते हैं लेकिन हवा नहीं मुड़ती।

और जब मौनी और पिंटो आमने सामने आते हैं तो एक दूसरे की जान के दुश्मन होते हैं। कैसे संभव हो गया ये सब?

सर रॉजर्स स्क्रीन बंद कर देते हैं।

“परदे पर ही क्यों, मैंने तो यथार्थ में जी कर देखा है इसे।” सर रॉजर्स अपने आप को सुना कर कहते हैं।

लिंडा कैरोल हो, मौनी हो या फिर पिंटो हो सब एक समान ही तो हैं। जीवन गतिमान है। मन चलायमान है। अच्छा बुरा भी सब अस्थाई है और वक्त बेईमान है। कब क्या करा दे ये वक्त कोई नहीं जानता।

“एनी वे लिंडा कैरोल हैज नो पैरलल्स।” सर रॉजर्स अनायास ही प्रशंसा करते हैं लिंडा कैरोल की। “बट शी इज टू डैंजरस।” अनजाने ही सर रॉजर्स की जुबान पर शब्द डैंजरस खरखराने लगा है।

लेकिन तभी मिष्टी न जाने कैसे उनके ताजा हुए घावों को सहलाने चली आती है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading