बसंत काे लेकर वसुंधरा के दिमाग में हजाराें तरह की उलझनें भरी हैं। इतना सभ्य, शिष्ट, पढ़ा लिखा और पैसे वाला आदमी एक अपराधी की अपावन जिंदगी क्याें जीएगा?
लेकिन प्रमाणाें की भाषा अलग हाेती है। वह बार-बार हाँगकाँग से आए बसंत के रंगीन फाेटाे काे देखती है। उसके साथ बसंत के पार्टनर और मित्र सुकुमारन का भी फाेटाे है। इसके अलावा गुप्तचर विभाग से मिली फाइल में बसंत के बारे जाे लिखा है वाे अविश्वसनीय है।
वसुंधरा के नथुनाें में बसंत के आस पास बिखरी आकर्षक पुरुष गंध मंडराने लगती है। वह महसूसती है कि बसंत उसे हिप्नाेटाइज किए दे रहा है। एक चाेर भावना उसे बरबस बसंत के साथ रंगीन सपने देखने काे बार-बार कह रही है।
फाेन की घंटी बजती है। वसुंधरा उछल सी पड़ती है।
“हैलाे। हाँ सर। मैं बाेल रही हूँ।” वह गुप्तचर विभाग के कमिश्नर श्री डी पी सक्सेना की आवाज सुन संयत हाे आती है।
“हुआ कुछ?” सक्सेना साहब सीधा प्रश्न पूछते हैं।
“सर, फ्रेंकली स्पीकिंग मेरा ताे विचार है कि ..” वसुंधरा हिचक कर रुक जाती है।
“आए थे हरि भजन काे ऒटन लगे कपास।” आह भर कर श्री सक्सेना कहते हैं। “तुम अपना काम कभी भी नहीं सीख पाऒगी वसुंधरा।”
“लेकिन सर, मेरे पास तर्क हैं ..” वह टेलीफाेन पर ही फूट पड़ना चाहती है।
“और मेरे पास सूचना है।” सक्सेना साहब बीच में ही बात काट देते हैं। “फैक्ट्री में फिर चाेरी हुई है।” वाे बताते हैं। “अब की बार पेंसिलें गेट से ही ले ली गई हैं। ऑडर सप्लाई के लिए भेजी जा रही थीं। बीच से ही गायब ..।”
“क्या ..?” वसुंधरा आश्चर्य चकित हाे चीख सी पड़ती है।
“तुम साेचती ज्यादा हाे।” सक्सेना साहब व्यंग जैसा करते हैं। “बैटर यू गैट ऑन याेर जाॅब।” फाेन कट जाता है।
किंकर्तव्य विमूढ़ वसुंधरा कई पलाें तक माथा पकड़ कर बैठी रहती है। उसके दिमाग में बसंत के साथ बिताई शाम और स्काई लार्क हाेटल में डांसिंग फ्लाेर पर बसंत के साथ किया नाच याद हाे आता है। बसंत का बदन सेंट की खुशबू में सराबाेर था। संगीत की मादक लहराें पर वाे दाेनाें राज हंसाे से तिरते रहे थे .. बहुत रात गए तक।
ताे क्या ये बसंत की चाल थी?
इंस्पेक्टर पंकज पवार सिक्योरिटी ऑफीसर नरेंद्र मलिक के बयान ले रहे हैं। सिक्योरिटी गार्ड के संतरी राम सिंह और मलखान सिंह को हिरासत में ले लिया गया है। चोरी की छानबीन के साथ-साथ सप्लाई ऑडर्स पूरे किये जाने के तरीकों पर भी भरपूर टीका टिप्पणी हो रही है।
शुक्रवार को सप्लाई ऑडरों के हिसाब से सात पेंसिलों की पैकिंग की गई थी। सातों पेंसिलें बाकायदा गेट पास के साथ सीक्योरिटी ऑफिस आई थीं। वहां रजिस्टर में चढ़ाने के बाद मनफूल सिंह जिसे पेंसिलें ले कर जाना था, गाड़ी का तीन बजे तक इंतजार करता रहा था। जब गाड़ी नहीं आई तो वो घर चला गया। गाड़ी वाला शाम को उसे घर लेने पहुंचा लेकिन उन दोनों ने पाया कि अब तक देर हो चुकी थी और अगले दो दिनों की छुट्टियां थीं। अत: वो पेंसिलें पारसल की हालत में ही सीक्योरिटी ऑफिस में पड़ी रहीं।
जब तीसरे दिन डिलीवरी हो गई तो पारसल से पेंसिलें गायब थीं।
अब सभी को शक है कि इस चोरी में सीक्योरिटी वालों का हाथ जरूर है। वरना यूं सरेआम चोरी हो जाना आसान काम नहीं होता।
पूरी जानकारी लेने के बाद वसुंधरा कई पलों तक सोचती रहती है। वह मन ही मन बसंत को रंगे हाथों पकड़ने की शपथ जैसी लेती है। उसके कानों में सक्सेना साहब के दिए उलाहने घनघनाते लगते हैं।
“हाय बसंत।” वह बसंत के कमरे पर पहुंची है।
“अरे, तुम। यानी कि ..” बसंत चौंक सा पड़ा है। “लेकिन तुम्हें तो देहली चला जाना चाहिए था? कल शाम को ..”
“हां। लेकिन नहीं गई। अब पूछिए क्यों?”
“क्यों ..?”
“क्यों कि मामा जी से झगड़ा हो गया है, फोन पर।” वसुंधरा तुनक कर बताती है। “वही शादी की जिद। मैंने तो साफ-साफ ना कह दिया है .. और .. अब ..” वह चुप हो जाती है।
“लेकिन तुम्हारी पढ़ाई?”
“जाए भाड़ में।” वह हाथ फैला कर कहती है। “क्या मैं तुम पर विश्वास कर सकती हूँ बसंत कि ..?”
“यू कैन डिपेंड ऑन मी – फॉर एवर।” बसंत प्रसन्नता पूर्वक बताता है।
“तो ले आऊं सामान?” वसुंधरा खुश हो कर पूछती है।
“मेरे साथ रहोगी? और वो भी यहां ..? माने कि ..”
“क्यों। हर्ज है कोई?” वह हंस कर पूछती है।
बसंत बिलबिला सा जाता है। उसकी समझ में नहीं आता कि दरवाजा खटखटाती इस खुशी का कैसे स्वागत करे।
वसुंधरा आंख फाड़-फाड़ कर बसंत के भव्य घर को निरख परख रही है। हर वस्तु कीमती है, चुनिंदा है और उस से एक खास रुचि का पता चलता है। बसंत भीतर से कहीं बहुत सात्विक और दयावान व्यक्ति होना चाहिए – वह सोचती है।
“आज का अखबार देखा है?” वसुंधरा सोफे में धंसते हुए पूछती है।
“कुछ खास है क्या?” बसंत बे मन पूछता है। वह अखबार के बारे बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता।
“ये देखो।” वसुंधरा अखबार में छपा एक फोटो बसंत के सामने तान देती है। “यह वही युवक है जिसने रेडियो धर्मी पेंसिल का स्पर्श किया था। मर गया बेचारा।” वसुंधरा तनिक ठहरती है। “कितनी बेरहम मौत मरा। बूढ़ी मां का इकलौता सहारा था। ये देखो। उसकी मां। ये किस तरह जारो कतार हो कर रोती लगती है।”
बसंत की आंखों में करुणा के बादल उठते हैं और धरासार बरसने लगते हैं। वसुंधरा को उसके चेहरे पर छपा अपराध भाव साफ-साफ नजर आ जाता है। लगता है बसंत को मन सुख राम की मौत नागवार गुजरी है।
“ये लालच भी गरीब को ही लीलता है।” वह कहता है। “गरीब इस प्रेत के चंगुल में आसानी से फस जाता है न।” वह रुक कर वसुंधरा की आंखों में सीधा झांकता है। “वसु। आई हेट पॉवर्टी।” वह टीस कर बताता है। “जिस दिन मां मरी थी उस दिन मैं एक बेरोजगार, लावारिस और अनवॉन्टेड इंसान था। मेरी तो नौकरी भी चली गई थी। एक साल झक मारने के बाद किसी ने न नौकरी दी और न कोई काम मिला।”
“नौकरी क्यों छोड़ी?” वसुंधरा पूछती है।
“कर नहीं पाया। क्योंकि नौकरी में बने रहने की कीमत मिश्रा जी ने बहुत ऊंची रख दी थी।”
“वो क्या?”
“नैतिक पतन। अहम की आहूति। अस्मिता का अंत। और मैं किसी भी कीमत पर ये सब करने पर राजी नहीं हुआ था।”
“मिश्रा जी .. इसका मतलब हुआ कि ..”
“बहुत घटिया इंसान है।” बसंत सीधा-सीधा बताता है। “मैं अखिल भारतीय दृष्टिकोण ले कर इस फैक्टरी में दाखिल हुआ था। सोचा था – मैं सच्चे वैज्ञानिक की परिभाषा को जी कर दिखाऊंगा। डॉक्टर होमी भाभा मेरे आदर्श हैं। राष्ट्र का नाम आलोकित करने की धुन में मैं अपने आप तक को भूल गया। लेकिन जो पगार थी उसमें गुजारा भी कठिनाई से हो पाता। मां को कुछ भेजता लेकिन मेरी जरूरतें सीमित थीं। मुझे भविष्य हरा-हरा दिखाई दे रहा था।” बसंत रुक जाता है।
“फिर क्या हुआ?” वसुंधरा उत्सुकता से पूछती है।
“मिश्रा जी ने इसे हाई हैडिडनैस मान लिया। चूंकि कॉनट्रेक्टर कंवर लाल से उनकी जेब में आती आमदनी मैंने बंद करा दी थी अत: उन्होंने मुझ पर कंवर लाल से कह कर उल्टा आरोप लगवाया और नौकरी से निकाल बाहर किया।”
“दूसरी नौकरी न मिलने पर बिजनिस डाला?” वसुंधरा प्रश्न पूछती है।
“इसे यों समझो वसु, जिस तरह नींद के परदों के पार चेतना का अधिकार होता है, वैसे ही गरीबी के परे गुजारा ही दरकार होता है। अगर ये गुजारा भी न मिले तब मनुष्य क्या करे?” बसंत चुप हो जाता है।
वह वसुंधरा की गंभीर मुद्रा को खोजती निगाहों से परखता है। “तंग आ कर उसे भी दुनियादारी में चलती छीना झपटी में शामिल होना पड़ता है। यू कैन कॉल इट बिजनिस।” बसंत एक तोड़ सा ला देता है।
“मैं तो कहूंगी कि ये एक कमजोर व्यक्तित्व के लिए आसान हल है।” वसुंधरा तुनक कर तर्क करती है। “अगर पडौसी बेईमान है तो तुम्हारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?”
“पड़ता है वसु।” बसंत फिर सिर हिला-हिला कर कुछ तथ्य जैसे लीलता लगता है। “मेरे सीने में एक-एक घटना पिघलते हुए शीसे सी भरी है। मैंने व्यापार आरंभ किया। गया था अपने परम पूज्य गुरु जी वीरेन मित्रा के पास – सामान बेचने। ग्वालियर यूनिवर्सिटी में कैमिस्ट्री के हैड ऑफ डिपार्टमेंट हैं। पहले तो पहचाना ही नहीं फिर माल पसंद नहीं आया। जानती हो क्यों?” बसंत तनिक रुकता है। “टैन परसेंट। ये उनका कमीशन बंधा हुआ है। लेकिन मुझसे कैसे मांगते। और जब मैंने दिया तो – तो ही। सच मानो वसु – उस दिन मेरे भीतर बसते महा मानव की मौत हो गई। न जाने कितना रक्त मेरे अंदर बहा। लगा मैं ही मूर्ख हूँ। एक ऐसा हट धर्मी हूँ जिसे पत्थर से सर मारने में आनंद आता है।”
वसुंधरा के भीतर भावनाओं का कौलुहल सा मचा है। एक नए बसंत से होती पहचान उसे बुरी तरह से झकझोर रही है। वह बसंत के बारे में अब और भी ज्यादा जान लेना चाहती है।
“मैंने उस दिन आंख उठा कर देखा तो दंग रह गया।” बसंत बात का सूत्र आगे बढ़ाता है। “एक दर्जी ठाठ से रह रहा है। एक दुकानदार हवेली पर हवेली ठोकता चला जा रहा है। और मैं एक वैज्ञानिक – जो भारत के भविष्य के लिए मरता-मिटता रहा है – वो दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज है। जिनके लिए मैं होम हो जाना चाहता हूँ वही लोग मेरा हक मार कर ऐश कर रहे हैं।” बसंत बुरी तरह से आंदोलित हो उठा है।
“यू मीन – डिसपैरिटी?” वसुंधरा पूछ लेती है।
“एग्जैक्टली। और वो भी अपनी ही दी हुई। अपने द्वारा पैदा की हुई। तुम्हीं सोचो वसु भूखा रह कर एक वैज्ञानिक औरों के पेट भरने के लिए खोज क्यों करेगा?”
“अपना पेट भरने के लिए तो आज तक किसी वैज्ञानिक ने कोई खोज नहीं की है।” वसुंधरा किसी दुस्वप्न से जाग गई लगती है। “बड़ी महत्वाकांक्षा बड़ा ही बलिदान चाहती है।”
“कहना क्या चाहती हो?”
“यही कि तुम्हें खोज करनी चाहिए थी।”
“मैंने खोज की है।” बसंत बेधड़क बताता है।
“क्या ..?” वसुंधरा तुरंत दूसरा प्रश्न दागती है।
बसंत का धारा प्रवाह बोलना रुक जाता है। न जाने कौन सा विवेक उसे उसकी बांह पकड़ मौन के लंबे विस्तारों में खींच ले जाता है। प्रशांत अंधकार की गोद में बालक सा दुबका सागर शोर मचा-मचा कर बसंत को जगाता लगता है। जो बसंत वापस लौटता है वो कोई दूसरा ही होता है।
“यही कि – अपनी रोटी कमाओ। अपना पेट भरो। अपनी-अपनी गरीबी दूर करो।”
बसंत के भीतर बैठी घुटी-घुटी सी आकांक्षा आज भी आजाद नहीं हो पाती।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड