धारावाहिक
‘सॉरी , बाबू ।’ अचानक ही नेहा के कंठ – स्वर आद्र हो आये थे । न जाने कैसा कोई अपराध – बोध था – जो उस के तन – मन में व्याप्त हो गया था । न जाने क्या था – जो वह कहना चाहती थी । और न जाने कैसा पश्चाताप था जो आज कूद कर बाहर आजाना चाहता था। ‘ग- ल – ती हो गई ।’ नेहा रोनेे लगी थी ।
‘नौटंकी है – या …..?’ भूरो कह रही थी । ‘टसुये बहाने से ….मरा मिल जाता है – क्या …?’ भूरो का प्रश्न था । ‘पहले ….सोचती ।’ कहती हुई भूरो चक्की से बाहर निकल गई थी ।
‘आओगे …..न ….?’ नेहा प्रश्न पूछ रही थी । ‘ अब तुम्हें तलाश न करनी पड़ेगी – अपनी नेहा।’ वह संभली थी । ‘पहले की तरह हवा में उड़ती – फिरती …..कूदती – उछलती ….बम्बई की भीड़ के महासागर में अलोप हुई – तुम्हारी नेहा , अब तुम्हें परेशान न करेगी ।’ वह जैसे स्वयं से कह रही थी । ‘अब तो मैं – एक रूह की तरह इस चक्की में बंद हॅू । अब तो मैं….तुम्हारी नेहा – कैद में हॅू । नहीं, नहीं । वो तो असंभव है – वह सब जो तुम्हारे साथ जिया ….किया …भोगा ….समझा और सराहा ……और …’ रुकी थी नेहा ।
‘कम्बल तो उठादे , मेरी बहिन …?’ कामिनी का उल्हाना था । ‘ वो आगई तो ….भुन्डी – भुन्डी गालियां बकेगी ……।’ चेतावनी मिली थी , नेहा को ।
‘अब नहीं डरती हॅू मैं किसी से …….।’ नेहा कह रही थी । ‘जो तुम्हारे साथ जी गई ….बस वही सच है , बाबू ।’ नेहा का स्वर फिर से भीग आया था । ‘बाकी सब तो …..वेदना है …एक भ्रम है मक्कारी है ….चालबाजी है ….और सब का सब धोखा है ।’ उस का मन खटट़ा हो आया था । ‘उस खुड़ैल – रमेश ने ही हमारी लाईन काटी ।’ बताने लगी थी, नेहा । ‘हमारे अमर – प्रेम को ये कलमुही दुनियां देख न पाई , बाबू ।’ फिर से कंठ भरआया था , नेहा का। ‘क्या पल थे – वे ? विंदास …। बहके – बहके । बोलते – बतियाते ..। हॅसते – खेलते हम …बम्बई के समुद्र तट पर …भीगे – डीगे ….नंगे – उघाड़े …नांचते – गाते लगते ही न थे कि हम दो थे …और अलग – अलग थे । मैं तो सच में ही तुम में समा जाती । सच मानो , बाबू । मैं …..मैं ….तुम्हारी एक – एक सांस को सूंघ लेती थी ….समैट लेती थी …..समझ लेती थी और ….और तब उन अतिरेक के पलों में तुम से लिपट जाती थी …और …और फिर …अनंत तक उस सुख को भोगने की अभिलाषा …..’
‘चलो , रे ….।’ आवाजें आ रही थीं। ‘बाहर ….। बाहर ….।।’ घोषणां हो रही थी।
‘दुष्ट हैं – ये लोग ।’ नेहा ने कोसा था और डायरी बंद कर चक्की से बाहरचली आई थी ।
क्रमश: …….