बर्फी उस समूची रात सो नहीं पाई थी। राम लाल और आनंद नहीं लौटे थे। लौटा था एक पैगाम – उड़ गया पंछी पिंजरा तोड़ के। राम लाल मर्द तो था पर उसका मन मीत न था। जेठवा के बाद उसे कोई मन मीत मिला ही नहीं। लाश रह गई थी वह जेठवा के मरने के बाद।

जेठवा याद आते ही अचानक आनंद का चेहरा भी उजागर हुआ था। जेठवा भी तो बिलकुल वैसा ही था। बिलकुल ऐसी ही मूंछें थीं जेठवा की। शेर सरीखा था जेठवा। पहली बार जब ब्याहने आया था तो ओट फेंट से देखा था उसे। हाय राम। उसकी खुशी गूंज उठी थी। कित्ता वीर मानुष है – उसने स्वयं से कहा था।

शादी करके जेठवा जब उसे लाया था तो मुहल्ले में हल्ला पिट गया था।

ऐसी सुंदर बहुरिया न देखी न सुनी – डंका पिटा था और उसका घूंघट उठा-उठा कर उसका मुखड़ा देखती पडोसनें परेशान हो गई थीं। चंद्र मुखी है – उसने कहते सुना था – पडोसनों को।

और जेठवा ..? पागल हो गया था जेठवा उसे पा कर। और वो .. मर मिटी थी जेठवा की पिंडी देख। कैसा गबरू जवान था जेठवा। लाखों में एक था। बर्फो कह कर पुकारता था उसे और वो भी उसे जेठा कह कर बुलाती थी। इशारों-इशारों में बातें होती थीं। गुप चुप छूते थे एक दूजे को। मन तो अटका ही रहता था – जेठवा में। और जब जेठवा तन को छूता था तो तूफान उठ खड़ा होता था।

घर में मां बाप ही थे। जेठवा अकेला बेटा था। और वह अकेली बहु थी। घर की वो मालकिन थी। सास ससुर उसे बेहद लाढ़ करते थे। ससुराल क्या थी निरा सुरग थी। लेकिन .. लेकिन किसी की बुरी नजर खा गई थी उसके सुख साम्राज्य को।

कलह का कारण और कुछ नहीं – बर्फी का हुस्न ही तो था।

जलती शमा के चारों ओर मंडराते पतंगे न मरने से डरते हैं न मिटने से।

“तुम अकेले हो जेठा, लड़ो मत इनसे।” बर्फी ने समझाया था जेठवा को। “कहीं बाहर काम ले लो।” उसका सुझाव था। “आंख ओझल पहाड़ ओझल।” बर्फी ने दलील दी थी।

“मैं डरता नहीं हूँ बर्फी।” जेठवा का उत्तर था। “गांव छोड़ कर न भागूंगा। बूढ़े मां-बाप हैं, ये कहां जाएंगे?”

फौजदारी हुई थी। जेठवा अकेला ही लड़ा था। मारा गया था – उसका पुरुष प्रियतम। बर्फी ने घटना को समझ लिया था। उनकी आंख बर्फी पर ही तो थी। अब उन गीदड़ों ने शेर के मरने के बाद उसी की काया को फाड़-फाड़ कर खाना था। उसी रात वह घर से चुपचाप निकली थी। शादी में मिला पैसा और कुछ गहना उसने कांख में दबाया था और गांव से भाग आई थी – बंबई।

हुस्न तो हुस्न था। उसके साथ ये भी बंबई चला आया था। कौन सा ताला था जिसमें हुस्न को वह बंद कर देती और भूल जाती। बर्फी ने हिम्मत जुटाई थी और अपने दस कीमती हुस्न को अपने पास ही बिठा लिया था। चाय बनाते-बनाते वो छोटा घूंघट निकालती। इतना छोटा कि ग्राहक को उसके हुस्न की भनक लग जाए। फिर वो वहां चिपका रह जाता। कभी-कभी कोई-कोई ग्राहक तो कई-कई प्याले चाय चढ़ा जाता पर उठ कर न जाता। बर्फी की दुकानदारी जोरों से चल पड़ी थी। पतंगे आते ही रहते .. जान झोंकते ही रहते .. और बर्फी जीविका को आगे धकेलती रहती – हर रोज।

मन कहता – तलाश ले किसी जेठवा को। लेकिन बंबई की भीड़ में उसे जेठवा कहीं दिखा ही नहीं। यहां तो सब व्यापारी थे। और जब एक दिन राम लाल आया तो लगा – ये ठहरेगा। इसे ही पटा ले और घर बसा ले। जेठवा अकेला था मारा गया। अकेली तू क्या कर लेगी? मरद तो चून का भी चोखा। बिठा ले इसे। राम लाल को टटोला था तो बेल मढ़े चढ़ गई थी।

लेकिन आज तो राम लाल भी चला गया था।

“तेरा क्या ले गया?” अचानक उसने अपनी अंतर आत्मा की आवाज सुनी थी। “तुझे तो सब कुछ दे कर गया है। बंगला है। दुकान है। बच्चे हैं। और क्या चाहिए तुझे?”

“जेठवा।” बर्फी कह देना चाहती थी। “मुझे मेरा जेठवा तो मिला ही नहीं।” उसने उलाहना दिया था। “मन की प्यास तो बुझी ही नहीं।”

अचानक ही राम लाल के पीछे से उसने आनंद का चेहरा देखा था।

“फिर चला गया जेठवा।” आह रिता कर बर्फी ने आंखें फेर ली थीं।

बच्चे स्कूल चले गए थे। बर्फी बंगले में अकेली रह गई थी।

आज पहली बार बर्फी समूचे बंगले के आर पार डोली थी। उसने हर कोने, हर किवाड़ और यहां तक कि आस पास पड़े कबाड़ को भी निगाहें भर-भर कर देखा था। वह मालकिन थी – उसे एहसास था। राम लाल चला गया था – उसे विश्वास था। उसे गम नहीं – खुशी थी।

“बच्चे बड़े हो गए हैं। शर्म भी किया करो।” उसे याद आ रहा था कि कैसे वो आज कल राम लाल को कुत्ते की तरह दुत्कार देती थी।

बगीचे में डोलते-डोलते अचानक ही बर्फी को आनंद दिख गया था। आनंद – पढ़ा लिखा था, वह जानती थी। पेड़ों से और फूल पत्तियों से अंग्रेजी बोलता आनंद उसे एक नया सा अनुभव लगता था। जेठवा तो अनपढ़ था। लेकिन .. लेकिन आनंद?

आनंद को चोरी छुपे देखने का उसका मन मचलने लगा था।

“बच्चे बड़े हो रहे हैं।” वह राम लाल वाला संवाद स्वयं को भी सुनाती थी। “कुछ हो गया तो डूब मरने को जगह न मिलेगी।” वह अपने मन को समझाती।

लेकिन मन तो मन है। ये किसी की नहीं मानता। इसे जो भा जाए वही भला।

और यही कारण था कि उसने राम लाल से आनंद को भगाने के लिए जोर दे कर कहा था।

एक नहीं दोनों ही चले गए। बंगला सूना-सूना उसे देख रहा था और प्रश्न पूछ रहा था कि उसने उसे क्यों उजाड़ा?

सहसा बर्फी को याद आया था कि दुकान तो आज उसे खोलनी थी। रिक्शा आया खड़ा था। वह दौड़ी थी। लइयन पइयन तैयार हुई थी। दुकान की चाबियां संभाली थीं और रिक्शे में आ बैठी थी। आदतन रिक्शे वाले ने रिक्शा हांक दिया था। उसे कोई गरज न थी कि रिक्शे में कौन आ बैठा था।

इतने दिनों के बाद यों फिर रिक्शे में बैठ दुकान पर जाना बर्फी को अजीब लगा था।

दुकान के आस पास सन्नाटा बैठा मिला था बर्फी को।

हिम्मत जुटा कर उसने दुकान खोली थी। चारों ओर नजर दौड़ाई थी। कल्लू और कदम भी उसे दिखाई न दिए थे। वह समझ गई थी कि राम लाल अपनी माया समेट कर हमेशा के लिए चला गया था। उसने हाथ के इशारे से दो तीन लड़कों को बुलाया था। सीधे साफ सफाई के आदेश दिए थे। वह स्वयं भी काम में जुट गई थी।

न जाने क्यों उसे हर कदम पर राम लाल ही खड़ा मिला था। हर आइटम से राम लाल की बू उसकी नाक में चढ़ने लगी थी। लेकिन उसने बहादुरी के साथ राम लाल के वजूद को बाहर खदेड़ा था। वह फिर से छा गई थी, उस पूरे दृश्य पर।

ग्राहक आने लगे थे। बर्फी ने बड़े मन से चाय बनाई थी। चाय के प्यालों को खूब धुलवाया था। छोकरों को काम बड़े प्यार से समझाया था। चाय जाने लगी थी। ऑफिसों से ऑडर आने लगे थे। बर्फी चाहती थी कि इस बार वह इस पुराने को एक नया रूप देगी। बढ़ा देगी व्यवसाय को। विक्की – उसका बड़ा बेटा अब बड़ा हो रहा था। उसने तय किया था कि विक्की को अब दुकान पर बैठना सिखाएगी।

अचानक ही बर्फी को अपना विगत याद हो आया था।

आधे घूंघट से झांकता उसका हुस्न और उस पर टूट-टूट कर पड़ते ग्राहक उसे साफ-साफ दिखने लगे थे। मुसकुराई थी बर्फी। वो अलग वक्त था – उसने महसूसा था। तब अकेली थी बर्फी, अनाड़ी थी बर्फी और डरी सहमी थी बर्फी। राम लाल के आने के बाद ही उसकी हिम्मत बंधी थी। और राम लाल ..? खूब-खूब खटा था उसके लिए। लेकर तो कुछ नहीं गया। हां, देकर खूब गया।

लेकिन गया क्यों?

“उसे अब कोई चाहता न था।” उत्तर आया था। “न बच्चे और न तुम।”

सच था। राम लाल से उसका मन भर गया था। अब उसे अपने बच्चे ज्यादा प्यारे लगने लगे थे। राम लाल कहीं मन में कभी-कभी खटक जाता था। उसे डर लगता था कि कहीं कभी उसका मुंह खुला तो ..?

“क्या करता?” बर्फी का अहम बोला था। “था कौन राम लाल?” उसने तड़क कर कहा था। “न बच्चे उसके थे, न घर उसका था। और वह स्वयं तो विधवा थी।”

शायद राम लाल सब कुछ समझता था। और किसी नई मंजिल की तलाश में निकला था वह – बर्फी मान गई थी।

Major Kripal Verma Retd.

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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