कहानी.

जो भी यहाँ आता है – अपने नाम-गाँव बनाता है ! बगीचों तक के नाम अपने रखता है . गाँव – नूर पुर ..रहीम पुर …फरीदाबाद …और …तो और ..कन्नाट प्लेस …बोम्बे ….कलकत्ता …और …और अजलू- फजलू …टॉम …और …खजूर हजूर …

“तो….?”

“तो …हमने …तो …अपना कोई नाम ही न धरा …?”

“धरा ….! खिचड़ी पुर …!! पुल का नाम भी – खिचड़ी पुर – पुल …”

“ये भी कोई नाम हुआ …?”

“क्यों नहीं हुआ …? सब का शामिल नाम नहीं हुआ …? खिचड़ी का अर्थ क्या है ..? सब को मिला कर जो बनती है …!”

“पर नाम …?”

“सब का शामिल है – खिचड़ी पुर ! हिन्दू,मुस्लिम, सिक्ख ,ईसाई – सब का है ! किसी एक का तो नहीं है – न …? हा हा हा! बाबू जी ! किसी एक का होता तो …बाकी सब …झंडे -डंडे ..ले-ले कर आ जाते …! मार-पीट तक हो जाती , भाई जी !”

“क्यों, भई …?”

“अरे , हम तो अब सकूलर हैं न …? एक नहीं – अनेक हैं …!! हा हा हा !! मुझे देख लो न …? पापा ने नाम दिया – गोपाल.! हो गया न – कम्युनल ….? और मैंने रख लिया – गप्पू …!! अब कौन जानता है – में कौन हूँ ….?

होगा …कोई झगडा …..?”

कृपाल .

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