मच्छी टोला पहुंचा था कल्लू तो सबसे पहले उसका मिलन मुन्नी से हुआ था।
मुन्नी उसकी प्रेमिका थी। बेहद प्यार करता था वो मुन्नी से। शाम ढलते अंधेरा घिर आता था तब आती थी मुन्नी चुपके-चुपके। वो उसे बांहों में भरता और कलेजे से लगा लेता। न जाने कब तक वो दोनों ..
“अरे कल्लू तुम?” किसी ने कल्लू को पुकारा था।
“बाबू भइया तुम ..?” कल्लू ने मुड़ कर देखा था तो चौंक गया था।
“जिंदा हो।” कल्लू ने मजाक किया था।
“मरना अपने हाथ होता तो मैं मर जाता कल्लू।” बाबू भइया का स्वर गमगीन था। “सम्मपट बंध गया यार।” उन्होंने बताया था। “बना बनाया खेल बिगड़ गया।”
“उजड़ तो मैं भी गया था – तुम्हारे ही सामने।” कल्लू ने भी अपना दर्द कहा था। “लेकिन मरा तो मैं भी नहीं।” उसका गम तनिक हलका हुआ था। “मच्छी टोला में तो मौज है न?” कल्लू ने पूछा था।
बाबू भइया बहुत देर तक चुप रहे थे। कुछ बोलने की जैसे तैयारी कर रहे थे। कुछ ऐसा याद कर रहे थे जहां कल्लू प्रासंगिक था।
“तुम्हारा तो, ‘कल्लू का कारखाना’ भी उजड़ गया था।” बाबू भइया कुछ याद करते हुए बोले थे। “तुम्हारे जाने के बाद फिर वो रौनक कभी नहीं लौटी कल्लू।” बाबू भइया बताने लगे थे। “मुन्नी के साथ हुआ लफड़ा सब ले बैठा।” बाबू भइया की आवाज में अफसोस उभरा था।
कल्लू चुप था। वह मुन्नी के बारे कुछ भी कहना सुनना न चाहता था। लेकिन लोगों की आदत है कि रिसते घावों पर उंगली जरूर धरते हैं।
“मग्गू का क्या हाल-चाल है?” कल्लू ने चतुराई के साथ प्रश्न मोड़ा था।
“अब तो बुरे हाल हैं।” बाबू भइया बताने लगे थे। “इस बार तो टिकट भी नहीं मिलने का।”
“क्या ..?”
“विलोचन शास्त्री को मिलेगा।” हंसे थे बाबू भइया। “मग्गू ने खूब खा कमा लिया।” उनका उलाहना था। “पांच सितारा होटल है। कोठी है। बेटा फिल्में बनाता है।”
“क्या ..? फिल्में बना रहा है।”
“पैसे उड़ा रहा है – वो इस का आवारा छोकरा मानस। रोज एक नई हीरोइन ले आता है। हाहाहा। विनाश काले विपरीत बुद्धि। तुम्हीं ने चढ़ाया था इसे खजूर पर, कल्लू। ये तो ससुरा ..”
कल्लू को अचानक ही ‘कल्लू का कारखाना’ याद हो आया था।
उसकी नाई की दुकान – या कहो सैलून का नाम ‘कल्लू का कारखाना था’। तब कल्लू गबरू जवान था। तब कल्लू का रौब और रुतबा खूब था। दिन में लोगों की हजामत बनाता था और रात में उनकी खाल खींचता था। सभी शाम होते न होते अपनी-अपनी बोतलें, पव्वे और अघ्धे ले-लेकर कल्लू के कारखाने में चले आते थे। ज्यों-ज्यों रात ढलती त्यों-त्यों रंगीन होती जाती। खूब संगत लगती थी। वो सब जवान थे, होनहार थे, समर्थ थे और कमाते थे।
“यार, नेता बनने का तो मजा ही अलग है।” याद है – कल्लू ने ही कहा था। “ये साला घोशी नेता बनते ही साहूकार बन गया।”
“तू बन जा नेता?” मंगेश बोला था।
“मैं बन जाता हूँ नेता।” मग्गू उठ खड़ा हुआ था। “बोलो, कौन-कौन देगा मुझे वोट?” उसने पूछा था।
सब मजाक-मजाक में चल पड़ा था। लेकिन फिर सही में तय हो गया था कि वो सब मिल कर मग्गू को इस बार नेता बनाएंगे और मच्छी टोला का स्वयं काया कल्प करेंगे।
घोशी खूब पैरों पड़ा था लेकिन कल्लू ने उसकी खाट खड़ी कर दी थी।
बाबू भइया के जाने के बाद कल्लू को थकान चढ़ने लगी थी।
कल्लू ने निगाहें उठा कर देखा था। सामने कछुआ कोटी उसे बुला रही थी। कल्लू और मुन्नी का ये मिलन महल था। एक छोटा टापू नुमा ऊंचा टीला था। पेड़ पौधों से घिरा बंधा था। समुंदर की ठीक नाक पर बैठा चौकीदार जैसा था। कल्लू चल कर कछुआ कोटी पर आ बैठा था। उसे अच्छा लगा था। समुंदर की ठंडी हवा दौड़-दौड़ कर नारीमन पॉइंट से टकरा रही थी और लौट-लौट कर कछुआ कोटी पहुंच कर सुस्ता रही थी।
समूचा विगत कल्लू की आंखों के सामने हरा हो गया था।
“ब्याह कर लेते हैं कल्लू।” मुन्नी उसके कान में चुपके से कहती थी।
“लेकिन तेरा बाप टांग मारेगा।” कल्लू ने साफ-साफ कहा था।
“तो भाग चलते हैं।” मुन्नी ने लजाते हुए सुझाव सामने रक्खा था। “इत्ती बड़ी दुनिया है। कहीं भी रह लेंगे, कल्लू। तू तो कमा लेता है न, फिर ..”
कल्लू बहुत देर तक चुप बैठा रहा था। वह मुन्नी के घर वालों को अच्छी तरह जानता था। झगड़ालू लोग थे। बाप भाई सब मिल कर मारा धाड़ा थे। वह उनका मुकाबला कर ही नहीं सकता था। लेकिन हां उसका परम मित्र मग्गू अब नेता था। अगर बात बिगड़ी तो मग्गू मदद जरूर करेगा – कल्लू मानता था।
और जब मुन्नी को ले कर कल्लू भागा था तो बंबई में तूफान आया था।
अपने ही घर वालों ने कल्लू और मुन्नी को दुत्कार कर घर से भगा दिया था। उन्हें मुन्नी के घर वालों का डर था। और फिर मुन्नी के घर वालों ने ऐसा ऊधम मचाया था कि बंबई हिल गई थी। पुलिस ने उन दोनों को खोज निकाला था। मुन्नी को उसके बाप को सोंपा था और कल्लू को हिरासत में ले लिया था।
“ये क्या कर बैठा बे कल्लू?” मग्गू ने पुलिस स्टेशन आ कर उसे पूछा था। “छोकरी का केस है। सारा शहर थू-थू कर रहा है। अब .. बोल?”
“बचा ले मग्गू। इस बार बचा ले। फिर कभी ..” कल्लू खूब रोया था। उसे खूब याद है।
मग्गू ने मुन्नी की शादी उसके घर वालों के मुताबिक कराई थी। और पुलिस से कह सुन कर कल्लू को रिहा करा दिया था।
“लंबा निकल जा कहीं।” मग्गू ने ही उसे सलाह दी थी। “पुलिस तो पुलिस है। ये किसी की सगी नहीं है। आंख ओझल पहाड़ ओझल। समझा कर कल्लू .. मैं .. मैं भी ..”
“तेरी बात तो मैं मानता हूँ।” कल्लू ने सुबकते हुए कहा था। “भूल जाता हूँ मुन्नी .. भूल जाता हूँ .. मुलाकातें ..” वो रोता ही रहा था – बहुत देर तक।
और तब वो चल कर राम लाल के ढाबे के सामने पहुंचा था – हारा थका .. बे हाल .. बद हवास।
“ले। चाय पी ले, गरम-गरम है, तेरे गम मिटा देगी।” राम लाल का कहा कल्लू को आज तक याद है। “रोटी के पैसे ले।” राम लाल ने उसे नए नोट निकाल कर दिए थे। “यहीं रात को सो रहना।” उसका आदेश था।
बे ध्यानी में कल्लू उठा था और चल पड़ा था।
कल्लू ने सामने की आलीशान इमारत को गौर से देखा था। लिखा था – माधव भवन। कई लमहों तक वह भरमाया सा खड़ा रहा था। फिर उसे याद आया था कि माधव का मतलब मग्गू ही तो था। वह ठीक जगह पहुंच गया था।
जगमग रोशनी में माधव भवन नहाया धोया खड़ा था।
क्या करे कल्लू – समझ न आ रहा था। लंबा वक्त बीत गया था। मग्गू को कहीं याद हो न हो – वह तय न कर पा रहा था। फिर भी उसे मुकाबला तो करना ही था। उसे आनंद बाबू के लिए ठिकाना तो खोजना ही था।
उसने हिम्मत बटोर कर कॉल बैल बजा दी थी।
एक आदमी बाहर आया था। आप कौन – उसने पूछा था। कल्लू – उसका उत्तर पा कर वह आदमी भीतर चला गया था। और कल्लू खिल गया था जब मग्गू ने घर से बाहर आ उसका स्वागत किया था।
शाम ढल गई थी। रात उतर आई थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड