एक खूबसूरत सी शाम थी
और माँ गँगा की घाट थी
जहाँ बैठा मैं कुछ सोच रहा था
यादों में कुछ खोज रहा था
देख रहा था इक किरदार चमकता
था वो पिताजी का चेहरा दमकता
जो मेरे सपनों के आधार बने थे
मेरे हर इच्छाओं के साथ खड़े थे
हमेशा निराशा में आशा जगाते
मिलते हमेशा हौसला बढ़ाते
वो मुझमें मेरी काबिलियत दिखाते
चाहते थे मुझे कथाकार बनाते
कहानी सुनाना मेरा भी शौक था
कुछ रोचक कुछ नीरस जो था ठीक था
पर वो स्वप्न सच्चा न हुआ
जो हुआ अच्छा न हुआ
कुछ अपने शर्मीले स्वभाव से
कुछ लोगों की बातों के प्रभाव से
वो कथाकार कहीं सो गया
स्वप्न भी उनका खो गया
फिर इक दिन मैं शब्दों को तोड़ा
उनसे मैंने कविता जोड़ा
तब भी कुछ लोग हँसे थे
पिताजी मेरे साथ खड़े थे
पर मैं ये समझ न पाया
शब्दों से नाता तोड़ आया
अब मुझे कुछ मित्र मिले
शब्दों से वो खेलते दिखे
उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया
मुझे शब्दों से फिर मिलाया
अब झिझक छोड़कर मैं लिखता हूँ
मैं मनोभावों की कविता रचता हूँ
एक स्वप्न पिताजी का हुआ है पूरा
पर कई स्वप्न अभी भी है अधूरा
कोशिश है उनको भी पूर्ण करूँ
खुशियों से जीवन उनका परिपूर्ण करूँ।

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