राम लाल के कानों में बर्फी की आवाज घनघना रही थी।
“सुनो। इसे निकालो यहां से। मेरे बच्चे बिगड़ेंगे।” के स्थान पर अब राम लाल सुन रहा था, “सुनो। तुम निकलो यहां से। मेरे बच्चे नहीं चाहते कि तुम ..”
राम लाल के पसीने छूट गए थे। जिस स्वर्ग संसार के बसाने की कल्पना को लेकर वह चल रहा था – वह तो कोई उजाड़ बियाबान ही था।
क्या करे आनंद का? कहां ले जाए उसे? भगा दे ..?
“गुरु!” रिक्शा रुकते ही कल्लू चिल्लाया था। “कमाल हो गया गुरु।” वह तालियां पीट रहा था। “मुंह में घी शक्कर और इसका सर कढ़ाई में।” उसने कदम के कंधों पर दुहत्थड़ दे मारा था। “आज तो ..”
“हुआ क्या? बकेगा कुछ!” राम लाल का स्वर कठोर था। आज वह उद्विग्न था।
आनंद स्कूल चला गया था। राम लाल बहुत देर तक जाते आनंद का निगाहों से पीछा करता रहा था।
“लगाओगे दाव?” राम लाल के अंतर ने उसे पूछा था। “तुम्हारे आगे पीछे तो कुछ है नहीं।” उसकी निराशा बोली थी।
“लॉटरी निकल गई गुरु इसकी।” कल्लू शोर मचा रहा था। “मतलब, इसके एक ग्राहक की लॉटरी। मोटा माल देकर गया है।” कल्लू की सूचना थी।
राम लाल का मन बदला था। उसने पलट कर कदम को देखा था। कदम का चेहरा खिला हुआ था।
“मंगा ले लंच पर तीन थाली – चूड़ामन से।” राम लाल ने एक पुलक लीलते हुए कहा था। “बैठते हैं आज।” उसने घोषणा की थी। “बड़े दिन हुए यार।” राम लाल अब हंस रहा था।
लौट आया था राम लाल एक लंबी यात्रा से।
बड़े दिनों के बाद वो तीनो आज साथ-साथ लंच खा रहे थे। तीनों अंतरंग मित्र थे। एक दूसरे के सुख दुख में शामिल थे। राम लाल का मन हो आया था कि अपने अंतर की व्यथा में अपने उन दो मित्रों को भी शामिल कर ले।
“कदम। तेरा छोटा भाई दर्जी है न?” राम लाल ने अजब प्रश्न पूछा था।
“दर्जी नहीं, गुरु अब मास्टर है, टेलर मास्टर।” कदम सगर्व बोला था। “उसका जैसा कारीगर तो बंबई में नहीं।”
“तो उसे कह के आनंद बाबू के कपड़े सिले।” राम लाल ने प्रस्ताव सामने धरा था। “ये देख।” राम लाल ने जेब से स्वामी विवेकानंद का फोटो निकाल कदम को दिखाया था। “बिल्कुल ऐसे ही कपड़े।” उसने फिर से कहा था। “आनंद बाबू को शाम को नाप देने ले जाना।”
“नहीं चलेगा।” कल्लू ने तौला सा सर हिलाया था। “ये पगड़ी तो बिल्कुल नहीं चलेगी, गुरु।” उसका कहना था। “इत्ते अच्छे घुंघराले बाल हैं आनंद के।” उसने आंखें मटका कर कहा था। “और इसकी दाड़ी .. और वो सूरमाओं जैसी निराली मूंछें। खजाना है गुरु।”
“लेकिन यार ..?”
“मेरा भाई नाई है। सैलून में काम करता है। फिल्म एक्टरों का चहेता है। ऐसी धार धरेगा आनंद पर गुरु, दंग रह जाओगे।” हंस रहा था कल्लू। राम लाल और कदम दोनों ने कल्लू का सुझाव मान लिया था।
“नाम .. मेरा मतलब कि आनंद ..?” राम लाल ने उन दोनों को बारी-बारी देखा था।
“अनेकानंद होगा नाम, गुरु।” कल्लू ने गर्व से कहा था।
“चलेगा, गुरु।” कदम ने भी समर्थन किया था।
तीनों मित्रों ने मिल कर एक नया संसार रच दिया था।
“क्या बात है? आज बड़े प्रसन्न हैं सब लोग।” आनंद स्कूल से लौटा था तो उसने पूछा था।
अब उन तीनों की बारी थी आनंद को चौंकाने की उन्होंने उसे ले कर एक नया ही उत्पात रचा है। लेकिन तीनों ही हिचक रहे थे कि कैसे बताएं आनंद बाबू को कि उन्होंने मिल कर आनंद बाबू को अनेकानंद घोषित कर दिया है – उसे बिन बताए।
“क्या है आनंद बाबू कि – इसकी लॉटरी निकल गई।” कल्लू बोला था। उसने कदम के कंधे पर हाथ मारा था। “मेरा मतलब इसके ग्राहक की लॉटरी निकल गई। मोटा मिला था – सो इसे भी ..”
“अब आप की भी लॉटरी खुलेगी।” कदम ने सारे दांत दिखाते हुए ऐलान किया था। “चिड़िया ने क्या बोला था?” कदम ने आनंद को प्रश्न पूछा था।
आनंद को याद था कि चिड़िया के फेंके कार्ड में क्या-क्या लिखा था।
“फिर से उल्लू बना रहे हो मेरा?” आनंद ने तनिक सकुचा कर पूछा था।
“नहीं-नहीं आनंद बाबू।” अब राम लाल आगे आया था। “हम – माने कि हम चारों मिल कर .. आपके साथ ..”
“पर मुझे तो कुछ आता ही नहीं।” आनंद झींका था। “मैं तो कोरा ..”
“स्वामी विवेकानंद क्या थे?” राम लाल ने प्रश्न पूछा था।
“प्रकांड विद्वान थे।” आनंद ने तुरंत उत्तर दिया था।
“आप भी प्रकांड विद्वान हैं।” राम लाल ने कड़क स्वर में कहा था। “मन के हारे हार है – मन के जीते जीत। आनंद बाबू आप जैसा तेजस्वी युवक मैंने आज तक कहीं नहीं देखा।” राम लाल ने सीधा आनंद की आंखों में देखा था। “मैं बनाऊंगा आप को स्वामी अनेकानंद। मैं आपको वो गुरु मंत्र दूंगा जो आप की काया कल्प कर देगा।”
आनंद लंबे पलों तक चुपचाप राम लाल को देखता ही रहा था।
“मेरे साथ शाम को चलना है।” कदम बोला था। “कपड़े मैं अपने भाई से बनवाऊंगा। उसे नाप देने चलते हैं।” उसका आग्रह था।
“और कल मेरे साथ चलना है। मैं आपके बाल, दाड़ी और मूंछें बनवाउंगा। मेरा भाई नाई है। फिल्म वालों के बाल बनाता है।”
आनंद चुप ही बना रहा था। उसने कई बार राम लाल को घूरा था, परखा था और फिर आंखें फेर ली थीं।
कॉलेज में देखा वो स्वप्न, वो विचार और वो इच्छा न जाने आज इतने लंबे अंतराल के बाद जीवित क्यों हो गई थी?
“पागल बना रहे हैं।” आनंद का अंतर बोला था। “ये कमा जाएंगे और तुम्हें फसा जाएंगे।” उसका विवेक बोला था। “भाग लो। इसी पल .. और अभी ..”
“आओ आनंद बाबू।” कदम ने उसे पुकार लिया था। “चलते हैं भाई के पास। अभी दुकान पर ही मिल जाएगा।” उसने आश्वस्त किया था आनंद को।
आनंद ने एक बार फिर राम लाल की आंखों में झांका था। वह हंस रहा था। कदम के साथ जाता आनंद गहरे सोच में डूबा था। अभी भी उसका मन था कि रिक्शे से उतर कर भाग ले – कहीं भी चला जाए।
“बुरा कुछ नहीं है, आनंद।” उसकी आत्मा बोल पड़ी थी। “कुछ न कुछ तो बनना ही होगा।” उसकी आत्मा ने बताया था। “नौकर से तो कुछ भी बनना बुरा नहीं।”
और आनंद ने अपनी आत्मा की बात मान ली थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड