दादर स्थित सर्व सेवा संघ द्वारा संचालित अस्पताल में भारी भीड़ जमा है। पुलिस इंस्पेक्टर पंकज पवार और वैज्ञानिक हर्ष नंदा आपस में किसी गहन विषय को लेकर बातचीत कर रहे हैं। अच्छी खासी भीड़ अस्पताल के भीतर भर आई है।

सभी को अचेत बिस्तर पर पड़े एक युवक मन सुख राम के होश में आने का इंतजार करना होगा।

मनसुख राम का लंबा छरहरा बदन हल्दी की गांठ की तरह पीला पड़ गया है। आंखें निस्तेज, शरीर निष्प्राण। वह किसी दुर्घटना के मुंह में से उगली हुई लाश जैसा ही लगता है।

डॉक्टर बेडेकर का कहना है कि मनसुख राम को रेडियो धर्मी तरंगों ने पूरी तरह चूंस डाला है। उसे तो तीन सौ से लेकर चार सौ रैम्स तक की रेडियो धर्मिता ने भीतर तक जला डाला है। उनके कथन के अनुसार रोगी मन सुख राम ने रेडियो धर्मी पदार्थ को स्पर्श किया है और शरीर का कोई हिस्सा बहुत देर तक उस रेडियो धर्मी पदार्थ के साथ संपर्क में रहा है।

तो क्या मन सुख राम उस अंतर राष्ट्रीय गैंग का मेंबर है जो भारत से रेडियो धर्मी पेंसिलें चुरा कर करोड़ों कमा रहा है?

मुद्दा हाथ आने पर पुलिस के लिए बहुत सारी उलझी गुत्थियां सुलझ जाया करती हैं। इंस्पेक्टर पंकज पवार किसी भी तरह मन सुख राम की आवाज लौट आने की कामना कर रहा है। वैज्ञानिक हर्ष नंदा अपने आंकड़ों में नाक तक डूबे हैं। डॉक्टर बेडेकर किसी तरह से भी रोगी मन सुख राम को मौत के मुंह से छीन लेना चाहते हैं।

चोरी की इस घटना ने अब कई और घटनाओं को जन्म दे दिया है। फैक्टरी में उच्च आयुक्त श्री रैना के साथ और चार सीनियर ऑफीसर मिलकर जांच कर रहे हैं। फैक्टरी ने अभी तक कुल पांच सौ पैंसिलें बनाई हैं। इनमें से जो भी बिकी हैं उनका पूरा-पूरा रिकॉर्ड मौजूद है। लाइसेंस होल्डरों के नाम और पतों के साथ-साथ उन्हें कब पेंसिलें दीं उसकी तारीख भी दर्ज है। चौदह पेंसिलों का टोटल नहीं मिलता है।

ये पेंसिलें रेडियो ग्राफी के काम के लिए इस्तेमाल होती हैं। इनके द्वारा मैटल टैस्टिंग करना बहुत ही आसान होता है। लैड के बने एक कमरे में पेंसिल को बंद करके इस्तेमाल किया जाता है। इसके लिए शिक्षित कारीगरों की दरकार होती है। जिन कंपनियों को ये पेंसिलें बेची जाती हैं उन्हें पहले इसके लिए लाइसेंस लेना होता है। लाइसेंस होने के वक्त अधिकारी इस बात की पूरी-पूरी जांच करते हैं कि कंपनी के पास वैज्ञानिकों के उपयोग के लिए उपयुक्त उपकरण और शिक्षित कारीगर हैं या नहीं।

“लाइसेंस, लाइसेंस, लाइसेंस।” उच्च आयुक्त श्री रैना एक बारगी चिल्ला से पड़े हैं। “ये लाइसेंस ही सारे करप्शन की जड़ है।” वो गुर्रा कर कहते हैं। “हर काम के लिए लाइसेंस और हर बात के लिए लाइसेंस?”

“लेकिन सर। इस आइटम के लिए तो निहायत ही जरूरी है लाइसेंस।” फैक्टरी के डायरैक्टर मिश्रा जी बताते हैं।

मिश्रा जी मित भाषी होने के साथ-साथ मिष्ट भाषी भी हैं। वो अपने मधुर व्यवहार के लिए विख्यात हैं। उच्च आयुक्त श्री रैना मिश्रा जी को कई पलों तक घूरते रहते हैं।

“हमारे हिसाब से कहीं कोई गड़बड़ घोटाला नहीं है।” मिश्रा जी हाथ फैलाते हुए कहते हैं। “चोरी के लिए ..”

“लेकिन ये किसी साधारण आदमी का काम नहीं हो सकता मिस्टर मिश्रा।” रैना एक शक को उछाल देते हैं।

“सब चोर असाधारण ही होते हैं, रैना साहब।”

“मेरा ये मतलब नहीं है।” रैना चोट खा कर मचलते हैं। “इस चोरी में जरूर किसी वैज्ञानिक का हाथ है।”

“होगा।” मिश्रा जी तनिक नाराज हो जाते हैं। “आप पुलिस को बता दीजिए कि मुझे अरैस्ट कर लें।”

मनसुख राम को होश आते ही सारे जमा लोग जग से जाते हैं। इंस्पेक्टर पंकज पवार आंधी तूफान की तरह कमरे में दाखिल होते हैं। वैज्ञानिक हर्ष नंदा वहां पहले से ही उपस्थित हैं। युवक मनसुख राम उन दोनों को कातर दृष्टि से देखता है। वह मर-मर कर बयान देता है।

वह अपने गांव भागवेड़ा से आ कर दादर स्टेशन पर हर रोज की तरह काम करने उतरा था। रेल के पुल से न जा कर वह सीधा रेलवे ट्रैक पार कर रहा था। अचानक उसने चांदी जैसी चमक वाली एक वस्तु को देखा। उसने उसे चांदी की छड़ समझ कर अपने पेंट की जेब में छुपा लिया। काम करते-करते उसे जेब में रक्खी पेंसिल से जांघ पर जलन सी होती महसूस हुई तो उसने उसे अपने खाने के झोले में रख कर शेड की छत से लटका दिया। वह कब बेहाल हुआ उसे नहीं पता। क्यों बेहोश हुआ – वह नहीं जानता।

बयान देते-देते बेदम हुए मनसुख राम से प्रश्न पूछते हर्ष नंदा बौखला उठते हैं। इंस्पेक्टर पंकज पवार को भी भोला बनता मनसुख राम कोई नम्बरी स्मगलर लगता है। ये लोग शक्ल से तो हमेशा ही शरीफ दिखते हैं – वो बड़बड़ाते हैं।

हर्ष नंदा बताए हुए घटना स्थल की ओर लपके हैं। दादर स्टेशन पर बताए स्थान को वो यंत्रों की मदद से सूंघ लेते हैं। उन्हें अजीब किस्म के कांच के कुछ छिलके घटना स्थल से मिलते हैं। वो उन्हें सहेज कर लैबोरेटरी भेज देते हैं।

वसुंधरा देहली से ट्रंक पर बातें करने में व्यस्त है। उसके पैर में आई चोट पर पट्टी बंधी है। उसने पार दर्शी नाइटी के भीतर से एक फोटो निकाला है। उस फोटो को कई पलों तक वह घूर कर देखती रही है।

“नो-नो।” वसुंधरा कहती है। “फोटो से तो लगता ही नहीं कि .. कोई दूसरा हो।”

“लेकिन मुझे लगता है कि तुम किसी गलत आदमी को पकड़ बैठी हो। खून की रिपोर्ट का रिजल्ट क्या है?”

“रेडियाे धर्मिता का नामाे निशान तक नहीं। एक दम नेगेटिव।”

“ऒ माई गाॅड।” उधर से आवाज कड़की है। “हाऊ इट इज पाॅसिबल?”

“किस का नेगेटिव है और क्या?” एक हाथ वार्तालाप में आकंठ डूबी वसुंधरा का कंधा छू लेता है। “बहुत तमतमाई हाे।” बसंत हंस कर पूछता है।

डरावने सपने की तरह साकार हुए बसंत काे देख वसुंधरा सकपका जाती है। उसे लगता है जैसे उसे किसी ने गरम-गरम सलाखाें से छू दिया हाे। उसका चेहरा पसीने से तरबतर हाे आता है। बसंत उसके चेहरे पर अनेक प्रकार के भावाें काे आते जाते देखता रहता है। पारदर्शना नाइटी में फाेटाे काे छुपाते हुए वसुंधरा बहुत बाैनी बन जाती है।

“किस का फाेन था?” बसंत पास पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए पूछता है। “साॅरी फाॅर इंटरप्शन ..”

“वाे .. वाे मामा जी थे।” वसुंधरा संयत हाे कर बताती है।

“कहाँ रहते हैं?”

“देहली।”

“फाेन किस लिए किया था?”

“मेरी जान के पीछे हाथ धाे कर पड़े हैं।” वसुंधरा पसीना पाेंछते हुए बताती है। “कहते हैं शादी कर लाे। लड़का नहीं – पहले फाेटाे पसंद कराे। क्या हुआ अगर उसके खून की रिपाेर्ट नेगेटिव है, ताे क्या हुआ?”

“ऒह ताे ये बात है।” बसंत मुसकुराता है। “देखें फाेटाे – आपके हाेने वाले उन का।” वह हाथ बढ़ा कर वसुंधरा से फाेटाे मांगता है।

“आई एम नाॅट गाेइंग टू गेट मैरिड टू दिस मैन।” वह तड़तड़ा कर कहती है और फाेटाे काे सूटकेस में इस तरह बंद करती है जैसे आग्रही पुरुष काे उम्र कैद दे रही हाे।

बसंत काे याें नाराज हाेती वसुंधरा बेहद अच्छी लगती है। खासकर उसका शादी के लिए दाे टूक मना करना उसे और भी भाता है। वह नई निगाहाें से वसुंधरा के आकर्षक अंग विन्यासाें काे देखता है।

“इस तरह क्या देख रहे हाे?” वसुंधरा उसकी घूरती निगाहाें के नीचे लाजवंती लता की तरह सिमट आती है।

“देख रहा हूँ – तुम्हें, साॅरी आपकाे और आपसे दूर जाते हुए इस अछाेर संसार काे।” बसंत शीशे के पार देखने का इशारा करता है। “इस बारह मंजिल की इमारत से देखने पर पेड़ कितने बाैने लगते हैं। वाे देखाे नावाें और तैरते जहाजाें के क्रेन और मच्छराें की तरह भिनभिनाती लाॅरियां, बसें, कारें और ..”

“इन बेकार की बाताें के अलावा और कुछ?” वसुंधरा मचल कर पूछती है।

“और ..? और क्या?”

“अपने बारे में ताे मिस्टर आपने अभी तक ये भी नहीं बताया कि ..”

“अकेली लावारिस जिंदगी के बारे पूछ कर क्या कराेगी?”

“कुछ करना हुआ ताे?”

“ताे ..।” बसंत बेहद लंबे पलाें तक वसुंधरा काे घूरता रहता है। “चलो। तुम्हें आज अपनी फैक्टरी दिखा कर लाता हूँ।” बसंत प्रस्ताव रखता है। “वही है मेरा सब कुछ। मां, बाप, भाई, बहन और हर रिश्ता वहीं खत्म होता है।”

“एक रिश्ता और भी तो बच गया?” वसुंधरा प्रश्न करती है। “पत्नी .. प्रेमिका ..?”

“उसके लिए भी धन की ही दरकार है। क्या तुम किसी गरीब लड़के से प्रेम कर सकती हो?”

“क्यों नहीं। पसंद आने की देर है हुजूर।” वसुंधरा बन कर कहती है। “मैंने तो मामा जी को साफ-साफ कह दिया है कि मेरी शादी तो मेरी ही मर्जी से होगी।”

“मामा जी से ही क्यों? पापाजी से क्यों नहीं?” बसंत पूछ लेता है।

“इसलिए कि मेरा मामा जी के सिवा कोई नहीं है।” वसुंधरा बताते हुए गंभीर हो आती है। “अनाथों की कतार में ..”

“छी-छी ऐसा क्यों कहती हो वसु।” बसंत द्रवित सा हो आता है।

फैक्टरी दिखाते वक्त वसुंधरा ने बसंत का माथा चाट लिया है। प्रश्न के बाद प्रश्न दागती वसुंधरा उसे इन्क्वारी पर आई कोई इनकम टैक्स ऑफीसर जैसी लगती है। बसंत के एक्सपोर्ट क्वालिटी के वैज्ञानिक यंत्रों को देख कर तो वह विमुग्ध ही हो गई है। तरह-तरह की परख नलियां, भिन्न-भिन्न प्रकार के बीकर, पिपिट और किस्म-किस्म के जार तथा फ्लास्कों को देख कर वसुंधरा असमंजस सा जाहिर करती है।

“देयर इज ए ग्रेट डिफरेंस इन क्वालिटी।” बसंत बताता है। “क्यों कि मैं खुद वैज्ञानिक हूँ इसलिए कारीगरों को भी सिखा सकता हूँ। लेकिन परमल एंड संस में मालिक को खुद बीकर और फ्लास्क का फरक नहीं पता।” वो हंसता है। “इसलिए न वहां फिनिश है और न क्वालिटी।”

“वैज्ञानिक होकर तुम बिजनिस क्यों करते हो?”

“क्यों? बुरी बात है क्या?” बसंत पूछता है। “नौकरी करने के माने शायद तुम नहीं जानती वसु।” वह सहसा गंभीर हो आता है। “कोरी बकवास। लल्लो-चप्पो करो .. ऊपर मत देखो और जो होता है उसे होने दो। आवाज उठाई तो – बस।” वह दांत पीसता है। “देश की शिराओं में धधकते इस करप्शन का जहर एक दिन ..” वह चुप हो जाता है।

“लगता है बहुत कड़े अनुभव हैं नौकरी के?” वसुंधरा उसे छू कर पूछती है।

“नौकरी के उस दुख से ऊब कर ही तो मैं सुख की तलाश में निकला था।”

“और अब ..?”

“अब मैं पूर्ण सुखी हूँ। अपनी मर्जी का मालिक, अपनी कमाई का हकदार और आकाश की सीमाओं तक फैलने फूटने को आजाद।”

वसुंधरा महसूसती है कि बसंत कहीं गहरे में घाव खा गया है। उसकी अतृप्त इच्छाएं आज भी बसंत को साल रही हैं और अपूर्ण वासनाएं उसे कच्चे-कच्चे घाव दे रही हैं। वसुंधरा को उसके भीतर अभी-अभी एक विस्फोट हुआ लगा है।

“प्रमोशन पाने के लालच में औंधा पड़ा डायरैक्टर मिश्रा उसका वो पिट्ठू वी के पाल ..” बसंत दांती भींचता है।

“कौन लोग हैं ये?” वसुंधरा पूछ लेती है। “तुम कैसे जानते हो इन्हें?”

“हैं कुछ लोग।” बसंत जैसे स्वयं से कहता है। “ये लोग कभी मेरे भी बॉस थे। भ्रष्ट ..। चोर ..।” बसंत चुप हो जाता है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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