राम लाल की मंजिल की दूसरी सीढ़ी का नाम था – आनंद बाबू।
आदमी की चाहत ईश्वर पूरी करता है – अचानक राम लाल को एहसास हुआ था। उसे बिन मांगे बर्फी मिली, उसे बर्फी से दो बेटे और एक बेटी मिली। तीनों तंदुरुस्त, गोरे चिट्टे और साफ सुघड़ और अब आकर ईश्वर ने ही उसे आनंद ला कर दे दिया।
आनंद की प्राप्ति को लेकर जो आनंद राम लाल के मन प्राण में उगा था, उसका तो कोई मोल न था।
“अब इसे गढ़ना है।” राम लाल ने स्वयं को आदेश दिया था। “अब इस पुतले में प्राण फूंकने होंगे।” वह जानता था। “जादू टोना से भी बहुत कुछ आगे का खेल तमाशा सिखाना होगा – आनंद को।” उसने निर्णय ले लिया था।
आनंद कोरा घड़ा था। निर्दोष था। कोरा कागज था। जो भी इबारत उस पर लिख जाती – अमर हो जाती, राम लाल का अनुमान था।
“क्या लिखें?” राम लाल का स्वयं से ही प्रश्न था।
अचानक उसे बर्फी याद हो आई थी। अंत में आ कर बर्फी ने अपनी जादू की कलम से उसकी किस्मत लिखी – राम लाल को याद हो आया था। बर्फी को छूते ही वह पागल हो गया था। अपना तो वह नाम गांव तक भूल गया था। बर्फी ने जो कहा – वह करता चला गया था।
“वही ..!” राम लाल बोला था। “ठीक वैसा ही जादू आनंद को पढ़ाए सिखाएगा।” वह सोच रहा था। “लेकिन .. लेकिन – औरत नहीं!” राम लाल की निषेध की उंगली उठी थी। “संन्यासी विवेकानंद के मानिंद!” उसकी कल्पना ने उसे सुझाया था।
आनंद बड़ा ही आकर्षक युवक था। लंबा कद काठ, गोरा रंग, काले घुंघराले बाल, ओठों पर झांकती मस्त मूँछें और अनूठी चाल चल गत।” सब कुछ तो था, और श्रेष्ठ था। उसका तो मन प्राण भी निरा निर्मल था। सिर्फ उसमें एक विशुद्ध आत्मा का प्रवेश करना ही बाकी था।
“कहां से लाएगा उस विशुद्ध आत्मा को?” राम लाल फिर से प्रश्न पूछ रहा था।
गज्जू …! राम लाल को अचानक ही गज्जू दिख गया था।
“तुम्हीं ने तो गज्जू के कान में कुछ फूंका था।” कोई राम लाल को याद दिला रहा था। “गंवार गज्जू आज एक सरनाम स्वामी था। तुम चाहते तो ..”
“नहीं।” राम लाल बमका था। “मैं .. मैं तो ..” राम लाल की जुबान अटकी थी। “काला कलूटा, चेहरे पर चेचक के दाग और बदशक्ल एक आदमी राम लाल – जहां भी गया – जूता पड़ा। न जाने कैसे उस झुग्गी के एकांत और अंधेरे में बर्फी ने उसका रूप रंग नहीं देखा और ..”
“किस्मत के धनी हो।” राम लाल सुन रहा था। “आनंद अनमोल रत्न है। पढ़ा लिखा है। अंग्रेजी पढ़ने के बाद तो और भी चमकेगा ये हीरा। चिड़िया वाला पाठ पढ़ाओ इसे।” राय सामने आई थी। “पिंजड़े में रहने की आदत अभी से डालो।”
आनंद अगर चल पड़ा तो समझो – पौ बारह।
राम लाल की निगाहों के सामने कोई परलोक आ कर खड़ा हो गया था। कल्लू और कदम उसके दो पैर थे जो उसे लिए-लिए भाग रहे थे। बर्फी उसका पेट थी जिसमें जो आता सब समाता चला जा रहा था। और वो था दिमाग – राम लाल का अपना दिमाग जो अब आ कर खुला था। वह कदम की तरह पिंजड़े का मालिक था। प्रश्न आ जा रहे थे, धन वर्षा हो रही थी और अच्छा बुरा सब घट रहा था। लेकिन राम लाल असंपृक्त था। उसकी निगाहें तो नोटों पर थीं।
और प्रश्न कर्ता के उत्तर में कार्ड उठा कर फेंकता आनंद पिंजड़े में बैठा पंछी था। राम लाल ने वहीं पिंजड़े में उसके लिए दाख चिरौंजी भी मोहिया करा दिए थे। उसे अब बाहर मुंह मारने की जरूरत ही न थी।
राम लाल का जुगाड़ी दिमाग हमेशा ही एक अनूठे सुख संसार की रचना कर लेता था। और आज जो उसने सोचा था – वह सही था।
फिर न जाने कैसे राम लाल को रोमी याद हो आया था।
ढाबे का मालिक रोमी। वो अमानुष रोमी। छोकरों पर अदल चलाता बे रहम रोमी। सब का माल हड़पता रोमी। और उस गंदे संदे ढाबे का मालिक – हां-हां, मालिक – वो मूर्ख रोमी।
“नहीं-नहीं। मेरा बसाया सुख संसार तो सब के लिए होगा।” राम लाल वायदा कर रहा था। “बर्फी और मेरे बच्चे ..” वह सोचते-सोचते ठहर गया था। “मेरे बच्चे ..?” राम लाल का आज आ कर दिमाग घूमा था। “सब गोरे चिट्टे थे, लेकिन वो तो काला कलूटा था। क्यों ..?”
कमाल ये कि उसने आज तक बर्फी से प्रश्न पूछा क्यों नहीं? हाहाहा! अचानक ही राम लाल जोरों से हंसा था। रोमी ही क्यों हम सभी टुच्चे हैं। उसने घोषणा की थी। गज्जू गोस्वामी टुच्चा चोर है, बर्फी जादूगर है, कल्लू और कदम नम्बरी हरामी हैं और वह स्वयं भी तो ..? और आनंद बाबू ..
राम लाल को अचानक आनंद को छूने में डर लगा था।
आंख उठा कर देखा था – राम लाल ने। आनंद बाबू बगीचे में थे। न जाने वो रोज-रोज इन फूल पत्तियों से क्या-क्या कहते सुनते रहते थे। न जाने ये कैसा अनुराग विराग था जिसे राम लाल की बुद्धि पकड़ ही नहीं पाती थी। उसे तो वहां कुछ न दिखता था। और न कुछ महसूस होता था। लेकिन आनंद बाबू तो वहां पहुंच कर आपा ही भूल जाते थे।
“आज स्कूल नहीं जाना क्या आनंद बाबू।” राम लाल ने जोर से हांक लगाई थी।
आनंद का दिमाग घूमा था। उसे याद हो आया था – स्कूल और अंग्रेजी की पढ़ाई।
वह तुरंत ही दुनियादारी में लौट आया था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड