ख्वाबों के शहर में हम कुछ यूँ खो गए हैं
अपने उलझनों में उलझे ही सो गए हैं

उलझने दिमाग को ही अपना घर समझती हैं
मुझे परेशाँ करना अपना मकसद समझती हैं

परेशानियों की बातें भी हम कुछ बताते हैं
एक खतम होते ही दूसरे शुरू हो जाते हैं

किन्ही तरीकों से उलझने अब नहीं सुलझती हैं
जितना सुलझाओ उतना ही और उलझ जाती हैं

हमने ख्वाबों की बुनाई कुछ इस तरह कराई है
इसमें मकड़ी के जालों सी खुदको ही फँसाई है

इस मकड़जाल से निकलने की कोशिश में हम हैं
पर अभी तक हमारी जद्दोजहद काम ना आयी है।

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