जैसे कोई अहंकार आनंद की जुबान पर आ बैठा था – उसे अंग्रेजी बोलते ही महसूस हुआ था।
जुबान मरोड़ कर और मुंह एंठ कर अंग्रेजी के शब्दों को चबा-चबा कर बोलना एक अलग ही कला थी। अचानक उसे पूरा देश दो भागों में बंटा नजर आया था। जो अंग्रेजी बोलते थे वो संभ्रांत लोग थे, सफल और सभ्य थे और जो नहीं बोलते थे – वो निकृष्ट थे, बेकार थे और बेहूदा थे।
न जाने कैसे अचानक ही उसे कदम और कल्लू दोनों किसी निम्न प्रजाति के प्राणी लगते थे। वो मनुष्य तो थे ही नहीं। वो दोनों कल पुर्जों से डोलते बोलते दो अदद आइटम थे जिन्हें खाने नहाने के सिवा और कुछ न आता था।
“आइए आनंद बाबू!” इंतजार में खड़े कल्लू ने जब आनंद का स्वागत किया था तो उसे अच्छा नहीं लगा था। न जाने क्यों कल्लू उसे सुहाता नहीं था। लगता था – वह राम लाल का चमचा था और उसी के कहने पर काम करता था।
“मत आया करो, मुझे लेने।” आनंद ने कल्लू को तनिक कठोर आवाज में कहा था।
कल्लू की आंख उठी थी, उसने आनंद को कई लंबे पलों तक देखा था, उसके चेहरे के भाव बदले थे। आनंद को तनिक निराश हुआ लगा था कल्लू। शायद उसे आने के लिए ना नहीं कहना चाहिए था – आनंद सोचता रहा था।
“आनंद बाबू।” एक छोटी तैयारी के बाद बोला था कल्लू। “आनंद बाबू, हम तो आप जैसे बड़े लोगन की छाया में ही बड़े हुए हैं।” उसने बताया था। “बचपन से ही हमारा एक ही सपना रहा – बड़े लोगन के बड़े-बड़े कामों में काम आना।” उसकी दृष्टि आनंद पर जमी थी। “आप महान बनेंगे एक दिन – सो हम सोचते हैं कि .. आपकी सेवा ..” कल्लू का गला रुंध गया था। उसकी आंखें भी सजल थीं।
आनंद कहीं से दरक गया था। आहत हुआ था वह। और तुरंत ही उसने अंग्रेजी के मिले श्राप को सड़क पर छोड़ कल्लू को अपनी बांहों में समेट लिया था।
“नहीं रे।” आनंद कह रहा था। “मैं और तू तो एक हैं कल्लू।” उसके शब्द मीठे थे, प्रेमिल थे और दुलारते लगे थे।
“हम मानते हैं आपको आनंद बाबू।” कल्लू कहते हुए प्रसन्न हो गया था।
राम लाल भी उनके आने के इंतजार में था। आज कल स्कूल से लौटने के बाद सब साथ-साथ चाय पीते थे। राम लाल आनंद से स्कूल में हुई हर घटना के बारे पूछता जरूर था। न जाने वो कौन सी जल्दी में था – आनंद समझ ही न पाता था।
पर हां। राम लाल लगता उसे एक रंगा सियार ही था। आनंद को वह शेर के किए शिकार का मांस चुपके से खाता कोई गीदड़ ही लगता था। और उसे यह भी एहसास होता था कि राम लाल ..
“क्या पढ़ा आज।” राम लाल ने हंस कर पूछा था।
“आज ..?” आनंद ने राम लाल की आंखों में झांका था। “आज मैंने स्वामी विवेकानंद की दी स्पीच सुनी राम लाल जी।” आनंद ने एक खास सूचना राम लाल को दी थी। “ब्रदर्स एंड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका ..” आनंद ने अंग्रेजी में ठीक स्वामी जी की तरह ही कहा था। “जानते हो राम लाल जी कौन थे ये स्वामी विवेकानंद?” उसने पूछा था।
एका एक उसने महसूसा था कि राम लाल की आंखें चमक उठीं थीं। एक नया नूर राम लाल के काले कलमुंहे स्वरूप पर अचानक आ बैठा था। अनंत की कोई मुस्कान थी जो उसके चेहरे पर फैल गई थी। आनंद हैरान था कि स्वामी विवेकानंद का मात्र नाम लेते ही राम लाल उद्भासित क्यों हो उठा था?
“स्वामी जी महान थे, विद्वान थे और वेदांती थे।” राम लाल एक उसांस में कह गया था। “वो तो इस देश के मन प्राण थे।” राम लाल का स्वर एक अनाम सी श्रद्धा में डूबा था।
“लो चाय का हिसाब।” कल्लू बीच में आ टपका था। उसने नोटों की एक मोटी गड्डी राम लाल को थमाई थी। “रिक्शा खड़ा है।” उसने सूचना दी थी।
वह दोनों छिड़ी चर्चा को वहीं छोड़ बंगले में लौट आए थे।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड