राम लाल की आंखों में विजय गर्व सा कुछ तैर आया था।
“बर्फी चुप थी। बर्फी हिली भी नहीं थी। पर मैं मान गया था कि वो मेरे आने के इंतजार में थी। तब मैंने अपने उस पर धरे हाथ से उसे अपनी ओर समेटा था और उसने भी करवट बदल कर मुझे मौका मोहिया कराया था।”
“फिर ..?”
“फिर आनंद बाबू मैंने बड़ी हिम्मत जुटा कर बर्फी के होंठ चूमे थे – हौले से, हल्के से और मैं और मैं होंठों पर ही थमा रहा था, हटा न था और तब जा कर बर्फी ने उत्तर उगला था। उसके होंठ बोले थे, उसने मुझे स्वीकृति भेजी थी और मैं उसके आग्रह पर उसके मुंह के अंदर अपनी जीभ डाल कर खेलने लगा था। खूब-खूब खेला था मैं और अब बर्फी ने जम कर मेरा साथ दिया था।”
“बर्फी भी ..?”
“हां-हां। मैंने कहा न था आनंद बाबू कि जायदाद उसकी जिसका नाम लिखा हो। और अब मेरा नाम लिख गया था – बर्फी पर। मैंने फिर कुछ नहीं किया।”
“क्या मतलब ..?” बिगड़ सा गया था आनंद। “मैं कैसे मान लूं कि ..?”
“अरे, आनंद बाबू समझो बात को।” राम लाल खुश था। “उसके बाद तो बर्फी ने मुझे अपने भीतर समा लिया था।” राम लाल ने पैंतरा बदला था। “उसे तो सब समझ थी। और उसे ये भी समझ थी कि मैं अनाड़ी था। औरत की समझ बहुत पैनी होती है आनंद बाबू। उसे पुरुष की पहचान होती है। वह जान लेती है कि पुरुष कितने पानी में है। और बर्फी ने भी मुझे पहचान लिया था। उसने ही मुझे अपने साथ लिया, उसने ही मुझे होशियारी से पाठ पढ़ाया और उसने ही मुझे जन्नत के दरवाजे पर ले जा कर खड़ा किया।” ठहर गया था राम लाल।
अब वो दोनों मौन थे। आनंद को भी एक डर सवार हो गया था। लग रहा था जैसे वह कहीं किसी आग में कूदने जा रहा था। राम लाल अपने विगत के स्वागत में एक मुक्त भाव लिए बैठा रहा था।
“धीरज जाता रहा था मेरा। लाख बर्फी ने मुझे समझाया था, साधा था पर मैं .. मैं .. टूट पड़ा था, प्यासे आदमी की तरह पानी पीता ही चला गया था और ..”
“अनाड़ी हो ..!” बर्फी फुग्गा फाड़ कर हंसी थी।
“क्यों?” आनंद भी अनाड़ी की तरह पूछ बैठा था।
“अभी नहीं समझोगे आनंद बाबू।” उलाहना दिया था राम लाल ने। “औरत एक ऐसा यजुर्वेद है कि आदमी पूरी उम्र लगा कर भी इसे समझ नहीं पाता।” राम लाल ने बात का तोड़ कर दिया था।
रिक्शा आ गया था। राम लाल उठा था और बंगले के भीतर चला गया था। आनंद की निगाहों ने राम लाल का पीछा किया था। वो उस बंगले में कहीं छुपी उस फुग्गा फाड़ कर हंसती बर्फी को तलाश रहा था। फिर जब निराश निगाहें लौटी थीं तो फूलों से जा कर उलझ पड़ी थीं। फूल भी हंसे थे और पेड़ पौधों ने भी मंद पुरवाया के साथ हिल डुल कर आनंद को सलाम जुहार ठोके थे और जीवन के दर्शन को समझने पर बधाइयां दी थीं।
लेकिन न जाने कैसे आनंद प्यासा ही रह गया था।
“क्या होगा ..?” आनंद फड़फड़ाया था। “अब साली अंग्रेजी से सर मारना पड़ेगा।” उसने अपने आप को कोसा था।
राम लाल रिक्शे में आ बैठा था। आनंद भी तैयार था। उसने राम लाल की बगल में बैठ कर फिर एक बार बंगले को देखा था। वहां सब शांत था।
“आओ आनंद बाबू चलते हैं।” कल्लू ने सीधे ही रिक्शे में बैठ कर कहा था। “आज से आपकी क्लास शुरू।” उसने बताया था।
उड़ती निगाहों से आनंद ने राम लाल को देखा था।
हंस कर राम लाल ने हाथ हिलाया था और आनंद को क्लास में जाने की अनुमति प्रदान की थी।
अंधा मोड़ था – आनंद के सामने।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड