मात्र अंग्रेजी सीखने का विचार ही आनंद के शरीर को कीड़ों की तरह काटता बकोटता रहा था।
उसे रह-रह कर याद आता रहा था कि किस तरह वह अंग्रेजी का घोर और कट्टर विरोधी था। और किस तरह वह इसे गुलामी की जंजीर बताता था। उसका मानना था कि जब तक हम अंग्रेजी बोलते रहेंगे – गुलाम ही बने रहेंगे। लेकिन आज ..?
“मरता क्या न करता?” आनंद ने स्वयं से कहा था। और सो गया था।
सुबह बहुत तड़के उसकी आंख खुल गई थी। वो उठा था और बगीचे में निकल गया था। पेड़ पौधे और फूल फुलवारी उसे आज मुंह चिढ़ाते लगे थे। लगा था वह किसी का गुलाम होने जा रहा था – अपना स्वत्व बेचने जा रहा था और अब से .. आज से वह – वह आनंद न रहेगा जो वो होना चाहता था।
“आइए आनंद बाबू।” राम लाल ने हांक लगाई थी। वह आज बेहद प्रसन्न था। “आइए, बैठिए।” उसने पास आ गए आनंद से आग्रह किया था।
दोनों आमने सामने कुर्सियों पर बैठे थे। दोनों के मनों में भिन्न प्रकार के दो आंदोलन छिड़े थे। लेकिन थे दोनों मौन। फिर आनंद को ही कुछ याद आया था। वह राम लाल की जिंदगी को पढ़ना चाहता था – उससे सबक लेना चाहता था।
“झुग्गी में उस रात ..?” आनंद ने सकुचाते हुए पूछा था।
“हां। वह रात ..?” राम लाल ने भी पैंतरा बदला था। उसे भी भान हुआ था कि आनंद बाबू को भी वही सब बता दे जिसने उसे यहां पहुंचाया था। “बहुत रंगीली रात थी – वो।” ठहरा था राम लाल। उसने आनंद बाबू की आंखों को पढ़ा था। चमक उठी थीं आंखें। “मेरे जीवन की ये पहली रंगीन रात थी, आनंद बाबू।” राम लाल टूक-टूक कर कहानी सुनाने लगा था। “जब मैंने जीवन रहस्य को हाथ लगाया था .. छूआ था!” तनिक हंसा था राम लाल।
“लेकिन बर्फी ने?” आनंद बाबू आदतन प्रश्न पूछने लगे थे।
“विधवा थी – यही न?” राम लाल चहका था। “अरे, आनंद बाबू विधवा होने का अर्थ न जाने क्यों मेरी समझ में भी उसी रात आया था। मैं भी ठिठका था कि बर्फी तो किसी और की लुगाई है, लेकिन ..” ठहर कर राम लाल ने आनंद बाबू के चेहरे को पढ़ा था। आनंद बाबू जैसे अचानक ही उस कहानी से आ जुड़े थे। अछूते आनंद बाबू राम लाल की उस रंगीली रात के बारे सब कुछ जान लेना चाहते थे। “औरत एक जायदाद जैसी है।” राम लाल ने अपना दर्शन बताया था। “जो नाम लिख दे – उसकी। हाहाहा।” हंसता ही रहा था राम लाल।
“तो क्या आपने अपना नाम लिखा था?” आनंद ने भी चुहल की थी।
“बिलकुल लिखा था।” राम लाल की आवाज में दंभ था। “मैं डरा तो था, आनंद बाबू। मेरी हिम्मत कई बार जवाब दे गई थी। उस झुग्गी के नन्हे से एकांत में और उस नीरव रात में मुझे अपने सितारे चमकते दिखाई देने लगे थे। सच में ही बर्फी पर मेरा मन आशिक हो गया था। अब तन की बारी थी .. सो .. बार-बार बर्फी पर वार करने की सोचता पर ठहर जाता। नींद का तो नाम न था। और बर्फी भी सो न रही थी – मैं जानता था। पर वह तो शांत थी .. समुंदर की तरह अचल .. शांत .. पर थी आंदोलित।” राम लाल ठहरा था। लेकिन उसका ये विराम ध्यान से सुनते आनंद को बुरा लगा था।
“फिर ..?” प्रश्न आनंद ने किया था।
“फिर ..?” राम लाल ने आनंद के आरक्त हो आए चेहरे को घूरा था। “फिर आनंद बाबू .. मैंने आहिस्ता से .. बहुत हल्के से अपने पैर के अंगूठे से बर्फी के पैर को छुआ था।” हंस रहा था राम लाल। “और .. और मैं उस छुअन को .. उसके आनंद को .. उस उमंग को समेट ही न पा रहा था। बर्फी शांत थी। उसने इस छुअन को सहा भर था। तब मैंने तनिक और साहस किया था और उस छुअन को एक स्पर्श बना दिया था। और फिर ..”
“और फिर ..?” आनंद अब ठहरना न चाहता था।
“और फिर मैंने अपने शरीर को बर्फी के शरीर के समानांतर ला कर छोड़ दिया था .. फासला कम कर दिया था और आहिस्ता से – बेध्यानी में जैसे अपना दाहिना हाथ उसके शरीर पर टिका दिया था।”
“फिर ..?” आनंद को आनंद आने लगा था।
“फिर – उस अनुभूति का तो कहना ही क्या? लगा था मैंने एक किला फतह कर लिया था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड