बंबई शहर आज हलचल के अलावा एक अजीब हंगामे से भरा है।

पुलिस इंस्पेक्टर पंकज पवार पूरे पंद्रह सशस्त्र सिपाहियों के साथ पुलिस वैन ले कर बंबई की वक्राकार सड़कों पर चकरी की तरह चक्कर काटती वैज्ञानिक हर्ष नंदा की जीप का पीछा करते-करते तंग आ चुका है। सुबह से ही तलाश जारी है। वैज्ञानिक हर्ष नंदा अपनी जीप में लगे वैज्ञानिक यंत्रों की सूई आगे बढ़ने के संकेत दे रही है। हर्ष नंदा मन ही मन खिन्न हो कर सोचते हैं – सूइयों की भी जुबान होना जरूरी है। वह अगले अनवेषण प्रोग्राम में इस विषय को शामिल करना नहीं भूलेगा।

“नंदा साहब।” इंस्पेक्टर पंकज पवार लंबी चुप्पी को वायरलैस पर तोड़ते हैं। “कब तक यूं ही परेड कराते रहोगे? भाई हम तो तंग आ चुके हैं इस दाएं बाएं के चक्कर से। लंच ब्रेक ही हो जाए?”

“धीरज रक्खो पंकज।” हर्ष नंदा की संयत आवाज गूंजती है। “सूई गलत नहीं हो सकती है। चोर हमसे ज्यादा दूर नहीं है। अगर हमने देर कर दी तो ..!”

लेकिन तलाश का अंत नहीं होता।

बंबई के बाशिंदों को भी खबर लग चुकी है कि आज बंबई शहर में कोई अंतर राष्ट्रीय स्मगलर गैंग पकड़ा जाने वाला है। अखबार, रेडियो और टी वी पर इसकी चर्चा कई दिनों से विस्तार पूर्वक होती रही है। घाटकोपर स्थित परमाणू परिक्षण केंद्र से चोरी हुई रेडियो धर्मी पेंसिलों की कीमत करोड़ों में है – अब यह सभी को विदित हो चुका है।

“स्टॉप।” वैज्ञानिक हर्ष नंदा की आवाज रेडियो पर चहकती है।

जीप का ड्राइवर जोर से ब्रेक मारता है। जीप छोटी सी उछांट के बाद जमीन में जोंक की तरह पंजे गाढ़ देती है। जीप के पीछे चलती पुलिस वैन जीप से टकराते-टकराते रह जाती है। पुलिस के सशस्त्र सिपाही खतरा सूंघ वैन से कूदते हैं – धम्म-धम्म। भारी बूटों की धमकाती आवाज के साथ वह इधर उधर दौड़ भाग कर मोर्चा संभालते हैं।

इंस्पेक्टर पंकज पवार वैज्ञानिक हर्ष नंदा के सामने अपना तनाव ग्रस्त चेहरा लेकर कई पलों तक चुपचाप ही खड़ा रहता है।

हर्ष नंदा की निगाहें जीप में लगे वैज्ञानिक उपकरण की चारों ओर नाचती सूई को नहीं रोक पाता। एक दिग्भ्रांत जैसा पैदा करती सूई अशिक्षित नर्तकी की तरह अपनी चूल पर लगातार घूम रही है। टूं-टूं की आती आवाज एक तरह की चेतावनी है। हर्ष और पंकज दोनों ही एक दूसरे की ओर देखते रहते हैं।

“अब तुम्हारा काम बचा है पंकज।” हर्ष लंबी उसांस छोड़ कर कहता है। “सर्च .. कोना-कोना छान मारो।”

महीनों के बाद आज मिली सफलता पर हर्ष नंदा तनिक सा हंसते हैं। उन्हें चोर अनाड़ी लगता है। वन्य पशु की तरह अपनी थूथन से खतरा सूंघ-सुंघ कर चलता वैज्ञानिक हर्ष नंदा और उसके पीछे बंदूक थामे दबे पांव आगे बढ़ता शिकारी मुंडे एक महत्वपूर्ण उप्लब्धी लगता है। विज्ञान चाहे तो चोरियां होना भी बेद हो सकता है – पंकज पवार महसूसता है।

घंटों की खोज खबर के बाद इंस्पेक्टर पंकज पवार खाली हाथ लौट आते हैं। हर्ष नंदा के चौड़े ललाट पर चिंता रेखाओं के साथ-साथ झुंझलाहट की पैनी लकीरें उभरती हैं। वो वैज्ञानिक उपकरण को जीप से बाहर निकाल दो सिपाहियों की मदद से अब अपनी तलाश आरंभ करते हैं। आज उनका इरादा शिकस्त खाने का नहीं है।

वैज्ञानिक उपकरण एक गंदे-संदे शैड के भीतर पहुंच फिर से लाल बत्तियां जला कर टूं-टूं का शोर मचाता है। टूं-टूं की आवाज मशीन गन से आती गोलियों की तरह पुलिस के सिपाहियों को इधर-उधर मोर्चा संभालने की चेतावनी देती है। वातावरण फिर से तनाव पूर्ण बन जाता है। शैड में इधर उधर दौड़ते भागते औजारों से मजदूर पुलिस को देख चौंक पड़ते हैं।

तुरंत सबकी तलाशी आरंभ हो जाती है। शैड के बाहर जमा भीड़ भीतर होते इंटरनैशनल स्मग्लर गैंग के दर्शन करने को बेताब लगती है।

इंस्पेक्टर पंकज पवार महसूसता है कि आज का दिन उसकी कामयाबी का दिन नहीं है। हर्ष नंदा स्वयं तलाश में शामिल होते हुए पंकज पवार की कमर में बंधी पिस्तौल को बार-बार देख लेते हैं। कब धांय-धांय गोलियां बरसा कर कोई स्मग्लर भाग निकले – क्या पता? पंकज पवार हाथ में पिस्तौल ताने क्यों नहीं चलता – वह पूछ लेना चाहता है।

शैड की काली मटमैली छत में लगी बल्लियों से लटका एक धारीदार फुलालेन का झोला हर्ष नंदा की निगाहों में चुभता है। अपने वैज्ञानिक उपकरण को झूले के नीचे रख वह एक वैज्ञानिक की भाषा में चंद प्रश्न पूछ लेता है। सारे प्रश्नों के उत्तर सकारात्मक आते हैं।

“झोला ..!” हर्ष नंदा की उंगली झोले की ओर उठती है। “भागो ..! गैट लॉस्ट …!” वो मजदूर, पुलिस, जमा भीड़ और इंस्पेक्टर पंकज पवार से कहता है।

हजारों आंखों के जोड़े एक साथ हर्ष नंदा को घूरते हैं। उन आंखों में अजीब प्रश्न हैं।

“मैं कहता हूँ – जान प्यारी है तो भागो। खामोश मौत उस झोले से तुम सब को खा रही है।” वह स्वयं भाग कर शैड से बाहर आ जाता है।

हर्ष नंदा के गंजे ललाट पर पसीने की बूंदें उग आती हैं। हाव भाव से लगता है जैसे कोई ठंडी मौत की गोलियों से उन्हें घायल कर गया हो। कोई अदृश्य का हाथ विष के प्याले भर-भर कर भीड़ को बांट रहा हो। शिव के गले में अटका गरल का सागर घरघरा कर गरम-गरम लावे की तरह इधर-उधर बहने लगता है।

“रेडिएशन ..!” हर्ष नंदा स्पष्ट करना चाहता है। “पागलों की तरह क्या देखते हो। रेडियो धर्मी पेंसिलें उस झोले में हैं। हर पल स्पर्श करती रेडियो धर्मी तरंगें तुम लोगों का खून खराब कर रही हैं। आंखें जा सकती हैं। शरीर के अंग बेकार हो सकते हैं। कुछ भी हो सकता है ..” वह हांफते हुए बताता रहता है।

जमा भीड़ जैसे मिट्टी के शेर से डर कर भागने लगती है – ऐसा जान पड़ता है।

हर्ष नंदा की निगरानी में बड़ी ही सावधानी से उस छत से लटकते झोले को उतारने के लिए एक बीस मीटर लंबी लिफ्ट जैसे उपकरण को उपयोग किया जाता है। लगता है जैसे फन फैलाए खड़े शेष नाग को किसी सपेरे ने अपने वश में कर लिया हो।

आज की लड़ाई में इंस्पेक्टर पंकज पवार अपने आप को बेहद अनउपयुक्त पा चिंतित हो उठे हैं। उनकी समझ से सब कुछ बाहर का सा लगता है।

फिजा में चंद प्रश्न फैल गए लगते हैं। क्या आदमी विज्ञान के माध्यम से अपना ही महत्व नहीं खोता जा रहा है? क्या वह स्वयं भी प्रलय का कारण नहीं बनता जा रहा है?

“अस्पताल में जितने भी रोगी हैं सबके खून की जांच कराई जाए।” वैज्ञानिक हर्ष नंदा का अगला आदेश आता है। “जिस बॉडी से कॉन्टैक्ट हुआ है उसके ऊपर हुए बर्न से ही पता चल जाएगा। अब चोर अपने आप को छुपा नहीं सकता।”

“अगर वो अस्पताल में न आए तो?” इंस्पेक्टर पंकज पवार पूछते हैं।

“तो ..? एक दर्दनाक मौत का शिकार होगा। ऐसी मौत जो कैंसर से भी भयानक होगी .. और ..”

“ये सब क्यों बनाते हैं आप?” इंस्पेक्टर पंकज पवार पूछता है।

“अपनी कमर में पिस्तौल क्यों बांधते हैं आप?” हर्ष नंदा प्रश्न पूछता है। “अगर पिस्तौल की गोली अपने ही सीने में मार लो तो – पिस्तौल का क्या दोष?” वह टीस कर बताता है। “ये तो देश की संपत्ति है। देश की सफलता के लिए विज्ञान के बिना आज काम नहीं चलेगा पंकज।” तनिक ठहर कर हर्ष नंदा कुछ सोचता है। “आग में उंगली डालने वाले बालक की तरह तुम शिकायत करते मुझे भले नहीं लग रहे हो।” वह हौले से हंस जाता है।

बंबई की शामों का अलग महत्व होता है।

इंस्पेक्टर पंकज पवार और वैज्ञानिक हर्ष नंदा के छोटे प्रयास और सफलता विफलता सब छप-छप कर लोगों तक पहुंच रहे हैं। शाम का खाली वक्त भी पूरे दिन की खबरों से भर जाए तो सुकून सा आ जाता है। उसी दिन की गर्मा-गरम खबरें हारे थके मन मानस को गुनगुने पानी की सेक जैसी लगती हैं। जो ठंडे घाव लगे होते हैं वो शाम को इन खबरों की पट्टियां बांध लोग सोने का प्रयत्न करते हैं।

जूहू बीच पर अकेला बैठा बसंत आग बने सूरज के गोले को शिव के तीसरे आग्नेय नेत्र की तरह ठंडे समुद्र में तिरोहित होते देख रहा है। अरूण आभा से भरा समुद्र उसे अच्छा नहीं लगता। वह अपने जीवन का रंग रूप साफ-साफ देखना चाहता है। वह हर शाम बैठ कर अपने सपनों में प्रयासों की तूलिका से रंग भरता है और महसूस करता है कि किसी से प्रेम पा जाने की लालसा से वो अभी तक चिपका हुआ है।

बीच पर चहल पहल है। बाहर से आई लड़कियों की एक टोली मुक्त हास परिहास में लीन है। कभी वो बंदर का नाच देखती हैं तो कभी ट्रिक दिखाते जादूगर के आस पास जा जमा हो जाती हैं। बसंत अपनी जीन्स को घुटनों तक चढ़ा समुद्र के खारी पानी में भीतर तक डोल आया है। रह-रह कर मन कह रहा है कि उन लड़कियों के गिरोह में किसी तरह शामिल हो जाए और ..

लड़कियां अब ऊंट और घोड़ों की सवारी करने में लगी हैं।

एक लड़की को लिए ऊंट भाग रहा है। लड़की ऊंट की पीठ से गिर अधर में आ लटकी है। वह चीखने चिल्लाने लगी है। बचाओ-बचाओ की आवाजों का पीछा करता बसंत भागता है। दृश्य भागता है। वह भागता है। जैसे वो कोई मूवी कैमरा हो – और उस अपूर्व दृश्य को साक्षात पकड़ने के लिए दौड़ लगा रहा हो।

ऊंट की नकेल पकड़ बसंत उसे रोक लेता है। लड़की को सहारा दे पायणें में उलझे पैर को मुक्त करा लड़की को अपनी बांहों में फूल की नाईं थाम लेता है। लड़की के आरक्त हो आए कपोल लज्जा और आभार से एक साथ दहक जाते हैं। अब बसंत स्वयं कैमरा बन जाता है। वह हर क्षण, हर भंगिमा, हर हरकत को कैद करता चला जा रहा है। लड़की बसंत के सुदर्शन चेहरे और ऊंचे कद काठ को देख विमुग्ध हो जाती है। दोनों देर तक एक दूसरे को खोजी निगाहों से देखते रहते हैं।

बसंत को अपनी चिराग सी जलती लालसा का आज अंत आ गया लगता है। वह अपने अधूरे सपने को आज ही पूर्ण हुआ मान लेना चाहता है। लेकिन हांफती कांपती उस लड़की की सहेलियां उस ठहर गए दृश्य को फिर से दिशा दे देती हैं।

“थैंक यू मिस्टर ..” एक लड़की आभार चुकाने हेतु बसंत से हाथ मिलाने आगे आती है।

“मुझे बसंत कहते हैं।” वह परिचय देता है। “बसंत कुमार।” वह हंस जाता है।

“हीरो जैसे लगते हो यार।” दूसरी लड़की पहली वाली लड़की में कंधा मार कर कहती है। “इसका नाम – वसुंधरा है।” पहली लड़की फिल्ल से हंस जाती है।

वसंत महसूसता है कि आज की नारी के मुक्त विकास पर उतनी पाबंदियां नहीं हैं जितनी पहले हुआ करती थीं। किसी वैसी ही विकसित नारी का विशुद्ध प्रेम पाने के लिए ही तो वो अब तक भटका है। उसका मन कहता है – कि अपने समूचे वैभव को एक साथ वसुंघरा की झोली में डाल दे और उन्हीं पलों में उसका पूर्ण प्यार पा ले।

“पैर में चोट लगी है। चलो पट्टी करा देता हूँ।” बसंत वसुंधरा से कहता है।

अब वसुंधरा बसंत के कंधे का सहारा लिए उसकी कार की ओर जा रही है। सहेलियां बहती बयार में इधर उधर पंखुरियों सी बिखर जाती हैं।

“ये आपकी कार है?” वसुंधरा पहली बार बोली है।

“इंपोर्टिड है।” बसंत सगर्व बताता है। “लो कॉफी पियो। दम लौट आएगा।” वो गाड़ी में धरे फ्लास्क से दो प्यालों में कॉफी डालता है।

वसुंधरा की निगाहें बसंत पर स्थिर नहीं हैं। वह गाड़ी में अल्लमखल्लम पड़े अखबार और मैग्जीनों को घूरे जा रही है।

“ये सब क्या है?” वसुंधरा अबोध बालिका की भंगिमा बनाते हुए प्रश्न पूछती है।

“पुलिस और वैज्ञानिक मिल कर चोर तलाश रहे हैं।” बसंत तिक्त भाव से बताता है। “घर में छोरा बाहर ढिंढोरा।”

“मतलब ..?”

“मतलब ये वसुंधरा जी कि चोर तो फैक्टरी का डायरैक्टर मिश्रा है। उसके साथ मिला हुआ है कमीना वी के पाल – असिस्टैंट डायरैक्टर। दोनों मिल कर कमा रहे हैं।”

“तुम .. सॉरी .. आप कैसे जानते हैं?”

“क्यों कि मैं ..” बसंत अपने भावावेश को रोक लेता है। वह पलट कर वसुंधरा की ओर घूरता है। “क्योंकि मैं बंबई में बीस साल से रह रहा हूँ।”

“बहुत भावुक हैं आप।” वसुंधरा ने बसंत का स्पर्श कर उसे संभाल सा दिया है।

एक ही लमहे के बीच अनन्य रूप मति वसुंधरा बसंत के भीतर सुगंध की तरह फैलती चली जाती है। उस मौन भरे प्रशांत पल में बसंत कुछ पा गया लगता है। वसुंधरा का वो स्पर्श उसे एक आग्रह जैसा ही लगता है। वसुंधरा उसे उत्तरोत्तर उत्साहित करती चली जाती है।

“बहुत सुंदर नेल कटर है।” वह गाड़ी के डैश बोर्ड को खोल कर उसमें धरे नेल कटर से खेलने लगती है। “काट लूं नाखून?” वह बसंत से पूछती है।

बसंत एक निगाह भर वसुंधरा के लंबे-लंबे सुंदर रंगे नाखूनों को देख द्रवित सा हो आता है।

“इन पर जुल्म न ढाओ। लो मेरे नाखून काट दो। अबकी बार होंगकोंग जाऊँगा तो तुम्हारे .. सॉरी आपके लिए ..”

“तुम भी चलेगा।” बसंत के नाखून काटती वसुंधरा हंस जाती है।

“उइइइ!” बसंत अचानक उछल पड़ा है। “मार डाला रे।” वह चीखता है।

गलती से बसंत की उंगली का अगला छोर नेल कटर से कट गया है। खून बह निकला है। वसुंधरा अपने पर्स से एक सैनिटरी रूमाल की शक्ल का नैपकिन निकालती है। उंगली पर नैपकिन रख जोर से दबाए रखती है।

“देखना इसका कमाल।” वह कहती है। “खून भी बहना बंद और .. घाव भी सैप्टिक नहीं होगा।”

वसुंधरा ने सैनिटरी नैपकिन गोल कर बाहर फेंक दिया है। बसंत ने गाड़ी स्टार्ट की है। दोनों अब वसुंधरा की पट्टी कराने चल पड़े हैं। वसुंधरा बहुत खिली-खिली सी लग रही है।

बसंत गाड़ी के रिअर व्यू शीसे में एक आदमी को वसुंधरा द्वारा फेंके सैनिटरी नैपकिन को उठाते देखता है। उसका चेहरा पलांश के लिए शक सुबहों से सजग हो गया लगता है। फिर वह संयत हो मुसकुराने लगता है।

“वो सैनिटरी नैपकिन ..?” बसंत पूछता है।

“इंपोर्टिड है।” वसुंधरा हंस कर बताती है। “होंगकोंग से एक आपके लिए भी मंगवा दूंगी।” वह चुहल करती है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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