भई! वाकई ! यह ज़ुकाम तो सभी बिमारियों में सबसे बुरी बीमारी है। एकबार को बेशक बुख़ार हो जाए.. पर ज़ुकाम तो होना ही नहीं चाहिए।
अब ज़ुकाम हो जाता है.. तो केमिस्ट से गोलियां लाए.. कम्बल में विक्स वगरैह लगाकर .. ढ़ककर सो गए.. बस! दो-चार दिन में हालात चंगी हो जाती है।
ये ज़ुकाम भी कोई ज़ुकाम हुआ..
ज़ुकाम तो बचपन में हुआ करता था.. थोड़ी सी भी ज़्यादा सर्दी हो जाया करती थी.. तो लापरवाही से.. नाक बंद हो जाती थी.. बंद नाक से परेशान होते.. मुहँ से सांस लेते घुमा करते थे.. बंद नाक को खोलने के चक्कर में ज़ोर लगाते तो एक कान में अजीब सी आवाज़ आ.. वो भी बंद हो जाया करता था।
बस! हम तो मान ही बैठते थे.. कि हाय! मर गए.. हो गए एक कान से बहरे!
वो ज़बरदस्ती का सूड़-सूड़ कर नाक साफ़ करना.. और लगातार नाक साफ़ कर-कर नाक का ही लाल होकर और छिलकर भूत बन जाया करता था।
ज़ुकाम तो माँ ही ठीक किया करतीं थीं..
पलंग पर माँ की गोद में सिर रखकर लेट जाते.. माँ विक्स लगाती .. सिर दबातीं चलतीं थीं.. और बालों को भी अपनी उंगलियों से सहलाती चला करतीं थीं। और संग-संग अपनी प्यारी बातों से जुकाम में सिर दर्द का अहसास भी नहीं होने देतीं थीं।
दवा के संग-संग मईया का प्यार हुआ करता था.. जो हर विक्स और सभी दवाओं को मात कर.. हमारा ज़ुकाम झट से ठीक कर दिया करता था।
ज़ुकाम तो बचपन वाला ही अच्छा था.. कैसे गाय के बछड़े की तरह चिपक जाया करते थे.. माँ की गोद में।
दवाई के पत्ते तो ज़ुकाम अब भी ठीक कर देते हैं.. पर माँ के स्पर्श की एंटीबायोटिक अब नहीं मिलती।