नहीं! आज न जाने क्यों वह टेलीविज़न सिरीज़ देखने के बाद मन उदास हो चला था.. बहुत कोशिश करने पर भी मन की उदासी दूर नहीं हो पा रही थी।

अकेले में बैठ कर सोच में डूब गई थी.. मैं! आख़िर क्यों होता हैं.. अपराध.. 

क्यों बिताते हैं.. लोग सज़ा याफ़्ता ज़िन्दगी! क्या अपराध करने के बाद.. सलाखों के पीछे रखना ही एक उपाय है.. क्या किसी मुजरिम को अलग से स्वछंद वातवरण में रखकर उसे सुधारा नहीं जा सकता.. इस सज़ा को सुधारकार्य का नाम देकर.. बेहतर तरीक़े से एक ग़लत इंसान की ज़िंदगी क्यों नहीं बदली जा सकती.. हमारे समाज में! क्यों दोबारा से सज़ा के नाम पर एक बंद अपराध की दुनिया में धकेल दिया जाता है.. जहाँ दिमाग़ बजाय.. सुधरने के घुटन से फ़िर विद्रोह करता है.. और उस सज़ा की चार दिवारी में फ़िर एकबार अपराध पनपता है!

हमारे समाज में आज अपराधी और मासूमों की खिचड़ी सज़ा के नाम पर एकसाथ पकाई जा रही है.. कानून की जेब न भरी जाने पर आज मासूमों को भी उसी कैद नामक अपराध की दुनिया में धकेल दिया जाता है.. जहाँ सुधार तो ख़ाक है.. पर अलग से और दूसरे तरीकों से बर्बादी की संरचना हो रही है.. क्यों नहीं हम समाज को बदलना चाह रहे.. कौड़ियों के लालच के पीछे आज हमारे कारागारों में मैला और स्वच्छ सब मिल कर.. मैला ही दिखाई दे रहा है.. 

माँ के पेट से कोई अपराधी नहीं होता.. हालात और समाज सोच बदल कर एक अच्छे-खासे इंसान को अपराधी का नाम देते हैं.. 

इस अपराध को जड़ से मिटाने के तरीक़े बदलने होंगें..  चार दिवारी में बंद कर.. सलाखों के पीछे रखना.. फ़िर शायद एक नए अपराध को जन्म देना.. या फ़िर इंसान को कमज़ोर बनाना है।

काश! हमारे समाज में यह मासूमों और सही मायने में अपराधों की एकसाथ सज़ा के नाम पर खिचड़ी बननी बंद हो जाए.. 

आख़िर क्यों नहीं हम सब मिलकर एक नए और सुंदर समाज का निर्माण नहीं कर सकते.. क्यों नहीं उखाड़ फेंकते उस दुनिया को जसके नाम से भी सोचकर हमारा दिल घबराता है..

काश! ऐसा कुछ हो जाए.. जिससे वो दुनिया.. यानी अपराध की वो दुनिया ही ख़त्म हो जाए।

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading