बड़े दिनों के बाद बाजना लौटा हूँ!
मेरी यहॉं की यादें भी मेरे साथ चली आई हैं। यूँ तो विकट विकास हुआ है और एक्सप्रेस वे से लेकर सड़कों का जाल बिछ गया है। हाट-बाजारों से लेकर मंडी तक बन गई है। नए-नए लोग आ-आकर बस गए हैं। पूरा का पूरा परिदृश्य ही बदल गया है। लेकिन जो कुछ घटा है वह तो पुराने से बिलकुल अलग है। यह विकास की देन है और वक्त का बेटा है!
लेकिन मैंने महसूस किया है कि वक्त और बयार तो अभी भी ज्यों की त्यों जिंदा जिंदा हैं!
एक हमीं हैं – जो अपने घर का पता तक भूल गए हैं। अब समझ ही नहीं आ रहा है कि यहीं कहीं बसा हमारा नौहरा – है कहॉं? यहीं तो था ..
“भाई जी!” मैंने एक बुजुर्ग दुकानदार को पुकारा है। “यहॉं हमारा नौहरा था ..?” मैंने बड़ी ही आजिजी से पूछा है। “लेकिन अब ..?”
“मेजर साहब हैं क्या ..?” उस बुजुर्ग ने मुझे पहचान लिया है। “आइए-आइए! बताते हैं आपके नौहरे का पता।” वह हँस रहा है।
“अरे, नाहर तुम ..?” मैंने भी अब उसे पहचान लिया है। “इत्ते बूढ़े कैसे हो गए भाई?” मैंने एक उलाहना दिया है जैसे कि मैं अभी तक जवान होऊँ?
और फिर इस मिलन की गहमागहमी में हम दोनों आगा-पीछा भूल जाते हैं!
“अपना कोई पुराना साथी है?” मैंने यूँ ही पूछ लिया है।
“हॉं चरन सिंह है। पर मरने वाला है!” नाहर ने बताया है। ” बाकी सब तो ..” उसने मुझे हरी झंडी दिखा दी है।
नाहर ने हमें हमारा नौहरा दिखा दिया है। लेकिन वह नौहरा जिसे मैं जानता था – वह तो ..? यह तो कोई नव निर्माण का अलग-थलग नमूना था और मैं विगत के उस बेहाल पंछी के पास जा पहुँचा था जहॉं नौहरे के विस्तारों में बिटौरा था, बुर्जी थी, भेंस-गाएं थीं, चारा काटने की मशीन थी .. और ..
वो पुरानी बाखर भी कहॉं बची होगी!” मैंने लम्बी उच्छवास छोड़ी है। “परिवार था। हम छह भाई-बहन थे। दादियां थी, काका जी और मां थे और थी एक गहमागहमी .. सौहार्द प्रेम और थी एक पवित्र मानस गंध जिसमें पूरा परिवार डूबा रहता था। वक्त के पेट में सब कुछ समा गया – न जाने कैसे?
“बहुत दिन के बाद लौटे चाचू!” भतीजे ने उलाहना दिया है।
“दे दो इसे भी अपनी महत्वाकांक्षा का पता कृपाल!” मेरा अंतर बोल पड़ा है। “बता दो अपने भतीजे को कि तुम किन सपनों के पीछे बाजना छोड़ कर भाग गए थे और भटकते रहे हो उन वीरानों में जहॉं स्वार्थ ही सर्वोपरि है!”
“बस, बेटे!” मैंने सधे स्वर में कहा है। “यूँ ही वक्त गुजर गया!” मैंने मन की बात को चुरा लिया है।
लेकिन मेरा बागी हुआ मन उन पुरानी सौगातों को ढूँढने निकल पड़ा है जिन्हें छोड़ कर मैं चला गया था। “वहॉं तो पोखर थी बेटे?” मैंने प्रश्न पूछा है।
“ब्रज विहार उसी पर तो बना है!” उस ने हंस कर बताया है।
और अचानक मुझे याद आ जाता है कि बाजना ब्रज में है – उस ब्रज में जिस के लिए कभी कवि रसखान का हिया उमड़ आया था – रसखान कहे इन ऑंखों से ब्रज के बन-बाग-तड़ाग निहारो! उस कविता के बोल मैं भी कहॉं भूला हूँ? और कहॉं भूला हूँ कि इस विशाल पोखर पर जब राम-लीला के दिनों में सरयू पार जाने के लिए डोंगियां पड़ती थीं, उत्सव मनाया जाता था और केवट बना केवल अड़ जाता था राम जी के आगे पैर पखारने के लिए और वह बोल – बिन पग धोए नाथ नाव ना चढ़ाय हों और फिर हमारा वो डोंगियों में बैठ-बैठ कर सरयू पार जाना ..
“ब्रज चौरासी की परिक्रमा चल रही है चाचू!” भतीजे ने मुझे बताया है। “चलो! डोल आते हैं।” उसने सुझाव रक्खा है।
मैंने उसकी बात मान ली है। मेरा भी मन है कि मैं डोल-डोल कर देखूँ अपने इस जन्म स्थान को जहॉं मेरा बचपन बीता और मैंने चलना सीखा!
“बेटे! यहॉं तो वो हुक्मी वाला बगीचा था – कई एकड़ में फैला और ..?” प्रश्न पूछते-पूछते मुझे आम, जामुन ओर नीबू, करोंदों की महकारें आने लगती हैं।
“मंडी यहीं तो बनी है!” वह बताता है।
मुझे अच्छा नहीं लगा है – बगीचा उजाड़ कर मंडी बनाना!
ब्रज चौरासी की परिक्रमा करते श्रद्धालुओं को देख मन तनिक प्रसन्न हुआ है। मुझे अच्छा लगा है कि विकास के इस शंखनाद में भी लोग केशव को नहीं भूले हैं और कमर पर खुर्जी लादे अभी भी ब्रज की रज लेने देश विदेश से चले आते है। मुझे भी अपने इस सौभाग्य पर गर्व हो आता है कि मैंने भी यहॉं गाएं तो नहीं चराईं पर हॉं – भेंसें चराई थीं और ब्रज के वन-बाग-तड़ागों का जम कर आनंद उठाया था!
“अरे, भइया! इधर तो स्कूल था .. मंदिर भी था .. और ..?”
“अब कहॉं धरा है, चाचू!” उस ने हँस कर उत्तर दिया है। “ये नया बाजार बन गया ना!” उसने सूचना दी है। “उधर से चलते हैं। चक रोड बन गया है हमारे चक तक। नदिया पर पुल भी बन गया है!”
“अच्छा ..?” मैं प्रसन्नता से उछला हूँ। कारण कि तब नदिया पर पुल कहॉं था? पैदल ही पार करते थे। बैल-गाड़ियों के लिए घाट था। और हमारे खेलने के लिए नदिया के किनारे पर बने थे रेतीले विस्तार। “चलो, चक तक डोल आते हैं!” मैंने उसे मना लिया है।
अचानक ही हरा-भरा चक मेरी ऑंखों के सामने आ मुझे झुक कर सलाम करता है! गेहूँ की फसल को अपने सीने पर उगाए चक का वो गर्वान्वित चेहरा देख मैं खुश हो जाता हूँ। मुझे याद आ जाता है कि जब कभी मैं छुट्टी आता था और हैंड हो से गेहूँ की नरमाई करता था तो लोग मुझे लाला जी समझ लेते थे!
“बेटे!” मैं हैरानी से बोला हूँ। “यहॉं तो कुछ नहीं है?” मैंने पूछा है। “कहॉं है .. यहॉं जो कैमारा था? बड़ा विशाल एक जलाशय! और न कोई फसल .. न कोई ..” मैं परेशान हूँ।
“कब की बातें हैं ये चाचू?” भतीजा गर्जा है। “एक्सप्रेस वे के लिए सड़क निकाल दी है यहां से!” वह बताता है।
हारा-थका, आस-निराश मैं अब भतीजे के साथ चलकर नदिया के पुल पर आ खड़ा हुआ हूँ।
पुराने वक्त ने भाग कर हाथ मिलाया है, मुझसे। न जाने कैसे वही पुराना दृश्य उसने मुझे खुश करने के लिए पेश किया है!
स्कूल की छुट्टी होते ही हम भागे हैं और नदिया में आ कूदे हैं। फिर हम सब मिल कर मृग छैलाओं के बिलों में पानी भर-भर कर उन्हें बाहर निकाल रहे हैं .. पानी पर तैरा रहे हैं – और तालियां बजा रहे हैं! घर-घरोंदा बनाना और चलते वक्त उन्हें मिटाना – मुझे याद आ जाता है। और याद हो आते हैं कबड्डी खेलने के जो मुकाबले जो हम नदिया के रेतीले विस्तारों पर जम कर जीतते थे हारते थे लड़ते थे और सुलह सफाई करते थे!
नदिया में स्वच्छ जल प्रवाह रहता था और हमारे तैरने के लिए यह खुला आमंत्रण था। और जब चौमासा लगता था – नदिया उफान पर आती थी .. बाढ़ को साथ ला कर सारे प्रदेश को जल मग्न कर देती थी और पूरे प्रकारान्तर में पानी ही पानी डोलने लगता था तो कैसा विपुल आनंद आता था। मुझे याद है कि दनकौर के खादर से यमुना का पानी बहकर नदिया में आता था। और ऊपर नौहझील पर भी झील बरसात के दिनों में लबालब भर जाती थी। यमुना का संबंध भी उससे था। पोखर को नदिया उन्हीं दिनों में नाक तक पानी से भर देती थी और फिर पूरे साल लोग उसमें नहाते धोते रहते थे!
और हॉं अचानक ही मुझे याद हो आती है वो घटना जिसने मेरे जीवन की दिशा ही मोड़ दी थी!
नदिया अपनी जवानी पर थी और पूरे उफान पर बह रही थी। हमारी मित्र मंडली भी कूद-कूद कर नदिया में दूर दूर तक तैर कर निकल जाने का आनंद ले रही थी। ऊँचे कगार पर चढ़ कर एक के बाद एक छलांगें लगा कर कूदते मृग छौनों से मित्र नदिया में सर उठाए बहते ही चले जाते थे! किलकारियां मारते मेरे मित्रों ने न जाने कैसे मुझे भी पुकारा था, बुलाया था उस अभूतपूर्व क्रीड़ा में शामिल होने के लिए! लेकिन ..
“तुम्हें तैरना आता कहां है कृपाल?” सच्चाई से मेरा सामना हुआ था। “डूब जाओगे बच्चू!” एक चेतावनी भी साथ चली आई थी।
लेकिन सच मानिए कि मैं उन पलों में पागल हो गया था। नदिया में उस ऊंचे कगार पर चढ़ कर छलांग लगाने के लिए मैंने मन बना लिया था। मैं किसी से पीछे छूट जाना कभी से पसंद नहीं करता हूँ। अतः मैं उठा था, दौड़ा था, कगार पर चढ़ा था और छलांग लगा कर मृगछौना की तरह ही नदिया में जा कूदा था!
और मुझे गहरे पानी में पैठने के बाद ही महसूस हुआ था कि मैं पाताल लोक में आ पहुँचा था! पानी बहुत गहरा था। लेकिन नदिया ने मुझे उछाला था ओर ऊपर फेंक दिया था। प्रकाश में आने के बाद मैं बेहोश होने को था, डूबने-डूबने को था, दो-चार घूँट पानी भी पी गया था लेकिन अब मैंने हाथ-पैर मारना आरम्भ कर दिया था। तनिक संभला था मैं तो पानी का तोड़ मुझे बहा ले चला था और मैं .. हां-हां मैं तैरता तैरता चला जा रहा था .. और फिर किनारे की ओर जा लगा था!
आश्चर्य चकित हुई मित्र मंडली इस घटना को एक हादसे की तरह देखती रही थी!
और अब मैं था कि नदिया के पुल पर खड़ा खड़ा नदिया के सूखे पड़े विस्तारों को एक हादसे की तरह ही देख रहा था!
पानी तो था ही नहीं! नदिया तो पेट तक गंदगी से भरी थी। कस्बे का कचरा आ आकर नदिया में जमा होता जा रहा था। पानी के सारे स्रोत सूख गये थे। दनकौर का खादर भी खत्म हो गया था!
“तुमने ही तो मुझे तैरना सिखाया था, नदिया?” मैं बोल पड़ा हूँ। मेरी आवाज में नदिया के लिए सम्मान है, श्रद्धा है और स्नेह है! “लेकिन .. लेकिन .. अब तो तुम्हीं डूब रही हो?” मैंने विवश होकर पूछ लिया है!
“हॉं ..!” नदिया की मरियल आवाज मुझ तक पहुँची है। “अब मैं मर ही जाऊँगी कृपाल अगर मुझमें इसी तरह यह लोग गंदगी भरते रहे तो ..” रो पड़ी है नदिया!
और मैं भी रो पड़ा हूँ! यह क्या कर बैठे हैं हम विकास के नाम पर? अब मैं विकास पुत्र बाजना से ही सवाल पूछ रहा हूँ – यह कैसा काया-कल्प है भाई? हमारा बचपन और जवानी सब लील गए तुम और यह .. यह .. नदिया के अवशेष और कचरा कमाता कस्बा बाजना जा कहॉं रहा है?
मेजर कृपाल वर्मा

