” कुल्फी! कुल्फ़ी.. गोले की कुल्फ़ी बढ़िया.. !!50 पैसे की एक प्लेट!”।
” चल! चल! आ गया कुल्फ़ी वाला..! नानीजी से 50-50 पैसे लेकर खाते हैं.. कुल्फ़ी!”।
” नानीजी! नानीजी! गली में वो ही साइकिल वाला आया है! कुल्फ़ी लेकर । दे दो !आप हम दोनों को पचास-पचास पैसे हमें कुल्फ़ी खानी है!”।
” खुले पैसे तो शायद नहीं होंगे मेरे पास! हाँ! कमरे में गेहूँ पड़े होंगें! ले जाओ कटोरे में और ले आओ कुल्फ़ी!”।
बात उन दिनों की है.. जब हम अपनी गर्मियों की छुट्टी मनाने ननिहाल जाया करते थे। शहर से ज़्यादा मज़ा हमें गाँव में आया करता था.. और कभी-कभार नानी के पास खुले पैसे न होने पर भी हम.. गेहूँ के वस्तु-विनमय से कोई भी मनपसंद वस्तु लेकर खा लिया करते थे।
कुल्फ़ी ही नहीं इस वस्तु-विनमय वाले सिस्टम से गाँव में किसी भी वस्तु का आनंद ले लिया करते थे। छुट्टीयो में तरबूजे-खरबूजे और आम जैसे फलों का मौसम हुआ करता था.. दोपहरी में भर कर गेहूँ भाग लिया करते थे.. हालाँकि नानी आवाज़ देती ही रह जाया करतीं थीं,” अरे! भई! पैसे लेकर जाओ! हमेशा! ऐसे अच्छा नहीं लगता है!”।
पर हमें तो गेहूँ वाला तरीका ही मन भा गया था। कभी-कभी गुड़ की भेली भी ले जाया करते थे।
वो गेहूँ फ़्रॉक या फ़िर कमीज़ में दबाकर उल्टी-सीधी चप्पल पहनकर दोपहरी में दौड़कर जाना.. और फ़िर आम, कुल्फ़ी और तरबूजे के मज़े लेना.. और हाँ! पहले ख़ुद आनन्द उठाते.. फ़िर नानी-मामा और नानाजी के लिए भी लेकर दौड़े चले आते थे.. की बात ही कुछ और हुआ करती थी।
हालाँकि इस वस्तु-विनमय को लेकर हम डांट भी बहुत खाते थे.. पर तरीका हमें यही भाता था.. आज तो जैसे समय ही बदल गया.. वो गेहूँ के बदले कुल्फ़ी खाने का मज़ा ही ख़त्म सा हो गया है! सच! गेहूँ देते वक्त एक प्यारे से मामा, चाचा या फ़िर नानी वाले रिश्ते बनाकर चीज़ें लेने का मज़ा ही कुछ और था.. जो आज बिना किसी झंझट के फ़टाफ़ट खरीद कर खाने में कहाँ..!!