सुबह का समय है.. बाहर आज सर्द हवा ने वातवरण को घेर रखा है.. बाहर निकलते ही, अचानक हवाओं में मैने वो खुशबू महसूस की थी.. जो कक्षा में इंटरवल होने पर सभी के टिफ़िन खुलने पर आया करती थी।

हमारी पूरी क्लास परांठों की खुशबू से महक उठती थी.. क्योंकि ज़्यादतर छात्र.. टिफ़िन में परांठा-सब्ज़ी ही लाया करते थे। 

माँ भी सुबह-सवेरे उठ, टिफ़िन के लिए.. बढ़िया सब्ज़ी और नर्म पराठें बना दिया करतीं थीं.. पाँच बजे उठ कर.. हमारा टिफ़िन तैयार किया करतीं थीं।

कभी कोई सब्ज़ी तो कभी कोई सब्ज़ी.. हमारी भी फरमाइशें कम न हुआ करती थीं.. जल्दी से बनने वाली.. अंडे की भुजिया के लिए तो मना ही कर दिया करते थे।

क्योंकि अलग-अलग सब्ज़ियां ले जाकर इंटरवल में डेस्क पर टिफ़िन रख.. मित्रों के साथ आटा-बाटी कर खाने का मज़ा ही कुछ और हुआ करता था.. भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन जो एकसाथ खुला करते थे..

” भई! मुझे तो अपने एक दक्षिण भारत के मित्र का डोसा जो कभी वो चीनी के संग और कभी नारियल की चटनी के संग लाया  करता था.. बेहद पसन्द आता था।

थोड़ा सा पुलाव, थोड़ा सा डोसा, और किसी आंटी के हाथ के डाले हुए.. स्वादिष्ट आम के आचार के साथ और हाँ! ब्रेड जैम के एकाध piece के साथ इंटरवल समाप्त हो जाया करता था।

कभी क्लास में तो कभी स्कूल के ग्राउंड में मित्रों संग.. गोला बना कर टिफ़िन के मज़े लिया करते थे।

चाहे टिफ़िन में कुछ भी होता.. बेशक तोरियी या लौकी ही क्यों न होती.. हमें पनीर का ही स्वाद दिया करती थी।

आपस में आटा-बाटी कर लंच खाते वक्त.. टिफ़िन में क्या है.. यह मायने नहीं रखता था.. बल्कि वो आटा-बाटी हम मित्रों के आपस के प्यार और मित्रता की प्रतीक थी.. जिसका कोई मोल न तब लगाया जा सकता था.. और न ही आज कोई मोल है..  बिना किसी भेदभाव का वो बचपन, वो टिफ़िन और उन सबसे जुड़ीं वो यादें अनमोल थीं।

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