” किचन की खिड़कियां तुम साफ़ कर देना! और तुम शो केस चमका देना! पँखे- वखें तुम लोगों से साफ़ नहीं होंगें! उन्हें मैं चमका दूँगा..!”।

दीवाली आने से पहले परिवार में पिताजी द्वारा सफ़ाई के कामों का वितरण हो जाया करता था। हमारी अपनी सहूलियतों के हिसाब से हमें काम सौंप दिए जाते थे। 

हम सभी के हिस्से में कोई न कोई सफ़ाई की ड्यूटी आ जाती थी.. पर माँ के हिस्से में केवल समय से भोजन बनाने की ड्यूटी हुआ करती थी..  हम ख़ास राजमे-चावल खाने की पेशकश किया करते थे.. अपने सफ़ाई अभियान के बाद।

अपने-अपने हाथ में सफ़ाई का कपड़ा और पानी का मग्गा लेकर लग पड़ते थे.. हम बालक घर को बंटे हुए.. हिस्सों में चमकाने में..

सवेरे से दोपहर तक हमारी सबकी मेहनत रंग लाती.. और घर शीशे सा चमक जाया करता.. हालाँकि शोकेस का शीशा और उसमें रखीं वस्तुओं को चमकाने में हमें ख़ास मशक्कत करनी पड़ती थी.. करते थे.. क्या करते.. पिताजी पर इम्प्रैशन जो जमाना होता था।

कुछ भी कहो! ज़माना वही था.. काम के बहाने घर में बच्चों की ट्रेनिंग भी हो जाया करती..  काम का काम हो जाया करता.. आज समय ने सबकुछ बदल दिया है.. मोबाइल और मीडिया ने कुछ ऐसा रंग दिखाया है.. कि कोई न कोई बहाना लेकर वो परिवार में होने वाली रौनक कुछ ख़त्म सी हो गई हैं.. मशीनी तरीके से झटपट काम जो ख़त्म हो जाता है.. और फ़िर वही मोबाइल की दुनिया! और कुछ नहीं तो.. दिवाली की सफ़ाई के बहाने ही मेल-मिलाप हो लिया करता.. और माहौल में एक नया रंग जम सा जाया करता था।

वाकई! उस ज़माने के वही रंग बहुत प्यारे और बहुमूल्य थे।

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