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सॉरी बाबू भाग पचासी

सॉरी बाबू

दे दी आजादी हमें बिना खड़ग बिना ढाल – साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।

पूरे देश में गांधी जी का आभार व्यक्त करने का सिलसिला जारी था। जन जन जानता था कि बापू के सत्य अहिंसा के आग्रह से भारत वर्ष आजाद हुआ है। अन्य समाजवादी या साम्यवादियों की तरह यहां खून की नदियां नहीं बही थीं। कम्यूनिस्टों की तरह नर संहार भी नहीं हुआ था। हमने तो अपने आक्रांताओं से बड़ी ही विनम्रता पूर्वक सत्ता प्राप्त की थी और वो लोग अभी भी हमारे मित्र और शुभचिंतक थे।

देश की अनपढ़ जनता को किसी ने कानों कान नहीं बताया था कि देश आजाद नहीं हुआ था और अंग्रेजों ने चालाकी से ट्रांस्फर ऑफ पावर का स्वांग रचा था – अपनी शर्तों पर। अगर कल को उनकी शर्तें टूटी तो वो फिर से देश को ले लेंगे – यह केवल नेहरू और जिन्ना को ही पता था। और जिन्हें पता भी था उनके मुंह बंद थे।

चुनावों की घोषणा हो चुकी थी। चूंकि देश बहुत बड़ा था अत: चुनावों की प्रक्रिया में चार महीने लगने थे और पच्चीस अक्तूबर 1951 से लेकर 21 फरवरी 1952 तक का समय निर्धारित किया गया था। दो लाख चौबीस हजार पोलिंग बूथ थे, 2.5 मिलियन स्टील बॉक्स बने थे और 620,000,000 बैलेट पेपर्स छपे थे। एक मिलियन अधिकारियों को चुनाव कराने की जिम्मेदारियां सौंपी गई थी। लोक सभा के लिए 489 और विधान सभाओं के लिए 3283 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा गया था। इनमें से लोक सभा के लिए 98 और विधान सभाओं के लिए 669 सीटें पिछड़ी जातियों और जन जातियों के लिए रिजर्व थीं। कुल मिला कर 17500 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था।

कांग्रेस के अलावा कम्यूनिस्ट, सोशलिस्ट, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, जन संघ, हिन्दू महासभा, राम राज्य परिषद और स्वतंत्र पार्टियों के उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था। जन संघ को सांप्रदायिक पार्टी कहा गया था और इसकी सहायक संस्था आर एस एस को पहले से ही बैन किया हुआ था। विपक्षी पार्टियों का आपस में कोई तालमेल नहीं था और कांग्रेस के मुकाबले इनमें कोई दम न था।

कांग्रेस पार्टी के झंडाबर्दार नेहरू जी थे और कांग्रेस को महात्मा गांधी का भी आशीर्वाद प्राप्त था।

देश में पहली बार एक नया उत्सव मनाया गया था। इस उत्सव में देश का जन-बच्चा शामिल हुआ था – जो अभूतपूर्व था। पूरे देश में पहली बार मोटर गाड़ियों पर चढ़ चढ़ कर प्रत्याशी अपने अपने क्षेत्रों में घूमे थे और लोगों से मिले थे। 70 परसेंट देश के लोग अनपढ़ थे। उन्हें वोट का अर्थ बताना था और समझाना था कि अब सरकारें उनके वोट के आधार पर बना करेंगी। हर पांच साल के बाद वोटिंग होगी और उन्हें हक होगा सरकार को बदल देने का। वो वोट अपनी मर्जी से चाहे जिसे दें – इसपर कोई प्रतिबंध नहीं था। देश अब आजाद था और वोटर भी आजाद था और पूर्ण सुरक्षित था।

ये कमाल तो देश में पहली बार ही हुआ था।

जनमानस जानता था कि सत्ता को पाने के लिए क्या क्या जोर जुल्म नहीं होते थे। सेनाएं लड़ा करती थीं, घोड़े दौड़ा करते थे और मिलिट्री के खतरनाक लोग रातों रात देश प्रदेशों को उजाड़ दिया करते थे। लेकिन ये वोट का अधिकार तो नई लड़ाई का अजीब हथियार था।

“गांधी जी ने दिलाया है।” जनता को कांग्रेस पार्टी के कार्य करता बताते फिर रहे थे।

और जनमानस में हर्षोल्लास की नई लहर दौड़ रही थी।

“काठ के रह ते काम चले ना – प्यारे रसिया।” रेडियो पर गीत बज रहा था। “अब रह लोहे को बनवाए – बंक ते ले आ रुपया।” जनता को संदेश दिया जा रहा था कि एक नई तरह की क्रांति का आरंभ हो चुका था।

कांग्रेस के बाद कम्यूनिस्ट पार्टी का प्रचार प्रसार जोरों पर था। ये लोग कांग्रेस की खिलाफत में लड़ रहे थे और लोगों को गा गा कर बता रहे थे – तेरे ही घर के भूरे भैंसा तेरो ही खेत उजाड़ेंगे। बिना सींग बिन पूंछ के – ये बड़े बड़े बादर फाड़ेंगे – ये इनका ऐलान था। भूरे भेंसाओं का संबोधन कांग्रेस के नेताओं के लिए था चूंकि वो सफेद लिबास में रहते थे और खादी पहनते थे।

और जनमानस के मनोरंजन के लिए भी रेडियो पर अलग से गीत बज रहे थे – चंदन तेरी घोड़ी चने के खेत में। चने को लग गई काई तो समधिन को ले उड़ा बरात का नाई चने के खेत में।

औरतें पहली बार घर से निकली थीं तो उनके भी गीत नाद गूंज रहे थे और बच्चों को भी एक नया तमाशा देखने को मिल गया था।

भारत में होते चुनावों को पूरा विश्व टकटकी लगा कर देख रहा था।

एक अजूबा ही घट रहा था। भारत एक विविधताओं और विषमताओं का देश था। विश्व के सभी जानकार, विद्वान और दार्शनिक यह मानकर ही न दे रहे थे कि ये प्रयोग कभी भी कामयाब नहीं हो सकता था। मूल कारण था – देश की गरीबी और अशिक्षा। बंटवारे के बाद आक्रांताओं ने कुछ पीछे न छोड़ा था और यह पूरी पूरी संभावनाएं थीं कि देश अब भूखा मरेगा। देश की इकोनॉमी चलेगी भी तो किस आधार पर – यह एक बड़ा प्रश्न था।

न तो देश में सोवियत की तरह कोई क्रांति हुई थी और न ही चीन की तरह कोई शक्ति प्रदर्शन हुआ था। खून की नदियां तो बही ही नहीं थीं। और जहां नए लोगों ने भाग्य और भगवान को बकवास कहा था ओर धर्म पर बैन लगा दिया था वहीं भारतवर्ष में पुरानी संस्कृति और धर्म सभाएं फल-फूल रही थीं।

चुनावी दंगल में भी सब कूद पड़े थे। कांग्रेस थी – जो धर्म निरपेक्ष और गुट निरपेक्ष के प्रयोग के साथ जंग जीत लेना चाहती थी। समाजवादी थे जो जन हिताय और सर्व हिताय के साथ मैदान में खड़े थे। कम्यूनिस्ट थे जो भाग्य और भगवान को हटा कर सोवियत जैसे नए प्रयोग करना चाहते थे और किसान और मजदूरों को एक नई परिभाषा देना चाहते थे। और एक था जन संघ जिसे आर एस एस ने खड़ा किया था और एक अकेला हिन्दू राष्ट्र का प्रचारक था। इनके लिए हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई का महा मंत्र – कोरी बकवास था। अगर पाकिस्तान धर्म के नाम पर बना था तो मुसलमान भारत में क्यों रह रहे थे – उनका प्रश्न था। भारत हिन्दुओं का था तो हिन्दुओं को क्यों नहीं मिला – वो पूछ रहे थे। और अब वो भी मैदान में उतर आए थे अपना पक्ष संभालने के लिए।

चूंकि कांग्रेस का झंडा नेहरू जी के हाथ में था अत: नेहरू जी ने लगातार चालीस हजार किलोमीटर की यात्राएं की थीं और इस दौरान साढ़े तीन मिलियन लोगों को संबोधित किया था। नेहरू जी ने जनमानस को प्रजातंत्र का अर्थ समझाया था और उनकी जिम्मेदारियां बताई थीं। उनसे कहा था कि बापू की कांग्रेस ही उनकी गरीबी और अशिक्षा को दूर कर सकती थी और देश को संपन्न और समृद्ध बना सकती थी।

“मैं हूँ तुम्हारे बापू का जवाहर।” नेहरू जी बयान देते थे। “मैं दूंगा आपको एक ऐसी सरकार जो देश के दुख दूर कर देगी। चाहे राज्य हो चाहे केंद्र हो सरकार तो कांग्रेस की ही बनेगी और आप लोग जब कांग्रेस को वोट देंगे तभी ये संभव होगा।”

जनमानस की जबान पर बापू का जवाहर चढ़ गया था और लोगों ने कांग्रेस को बढ़ चढ़ कर वोट दिए थे।

चुनावों के नतीजे भी नेहरू की उम्मीदों के हिसाब से आए थे। कांग्रेस ने मोर्चा फतह कर लिया था। केंद्र में 364 और राज्यों में 4500 सीटें जीत कर कांग्रेस ने इतिहास रचा था। बाकी सब छोटे मोटे थे और गिने चुने थे। जो भी नेहरू की कांग्रेस को छोड़ कर भागे थे सब के सब परास्त हुए थे। जन संघ, हिंदू महासभा और रामराज्य परिषद को कुल मिला कर 10 लोक सभा की सीटें मिली थीं।

“सारी रात रोने के बाद एक भी नहीं मरा।” घोर निराशा के बीच से बोला था शिखर। चुनाव की थकान अभी भी उसके चेहरे पर धरी थी। “न हिंदू चला न हिंदुत्व ने काम किया था। खूब समझाया था लोगों को कि मुसलमानों और ईसाइयों के इरादे नेक न थे लेकिन ..”

“अंधे और बहरे इन लोगों को क्या और कितना समझाएंगे, शिखर!” शिखा की शिकायत थी। “ये देश तो फिर से गुलाम होगा।” अशुभ को कह डाला था शिखा ने। “इन लोगों को अपना मरना जीना तक दिखाई नहीं देता – भाई कमाल है!” वह बिलख रही थी।

और अब उन दोनों की आंखों के सामने एक भयानक दृश्य आ खड़ा हुआ था।

मुस्लिम लीग ने अप्रत्याशित जीत हासिल की थी। पाकिस्तान में हिन्दुओं को न तो नागरिकता मिली थी और न ही कोई संरक्षण। वो वहां चौथी श्रेणी के नौकर थे। जबकि भारत में मुसलमान नागरिक थे और माइनारिटी थे जिन्हें हर तरह की सहूलियतें मोहिया थी। वो नेहरू की सरकार के सरगना थे। दो पाकिस्तानों के बीच में बैठा अकेला हिन्दू भारत फिर से मुसलमानों के हत्थे चढ़ गया था। अमेरिका और ब्रिटेन के ईसाई अभी भी भरत पर आंख लगाए बैठे थे। उन्हें पता था कि देश फिर टूटेगा, फिर बंटेगा और उनके ही हाथ लगेगा। लीग को उन्होंने पालतू बनाने का प्लान पहले ही बना लिया था।

“मुसलमान अपने वोटर बढ़ाएंगे, शिखा।” शिखर बता रहा था। “अब ये चार चार शादियां करेंगे और चौबीस से लेकर छत्तीस तक बच्चे बनाएंगे। इनका गणित सही है। कुल 15 साल में ये मैजोरिटी में आ जाएंगे और संविधान को फाड़ कर फेंक देंगे। और फिर दारुल इस्लाम और गजवाए हिंद – हो गया न?”

“हो गया!” शिखा ने भी मान लिया था। “इन्हें तो पता है शिखर कि पृथ्वीराज को कैसे मारा जाता है।” निराश उदास शिखा कह रही थी। “कैसे जगाएं गहरी नींद सोते जनमानस को – समझ में ही नहीं आ रहा है। हिंदू .. हिंदू राष्ट्र हमारी संस्कृति और सभ्यता क्या सभी मिट जाएगा शिखर?” शिखा पूछ रही थी।

क्या उत्तर देता शिखर, उसकी तो कुछ समझ में ही न आ रहा था।

मेजर कृपाल वर्मा

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