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स्नेह यात्रा भाग तीन खंड तीन

sneh yatra

बाबा शांत कहीं सोचते रहे हैं। मैं अपने आप को अगली बात के लिए तैयार करता रहा हूँ।

“देश में अभी खाद्य पदार्थों का अभाव है। पेट भरने के बाद फैशन सूझती है।”

“पर आज का समाज बदल गया है। एक युवा स्त्री बिना शक्कर की चाय पी सकती है पर बिना लिपिस्टिक लगाए बाहर तो क्या वह घर के अंदर भी नहीं रह सकती!” मैंने जैसे पूर्व निर्धारित अस्त्र से प्रहार करके बाबा का सायक बीच में ही काट दिया है। बाबा स्तंभित से मुझे देखते रहे हैं।

“चीनी बहुत कम देश पैदा करते हैं परंतु सभी लोग सभी देशों में चीनी इस्तेमाल करते हैं।” बाबा ने जैसे अमोघ अस्त्र छोड़ा है। वो अब मेरी प्रतिक्रिया नापने लगे हैं।

“बनाव-श्रंगार की वस्तुएं पहले तो स्त्रियां ही इस्तेमाल करती थीं पर आज मर्दों ने बाजी मार ली है।” कह कर मैं इस तरह मुसकुराया हूँ जैसे समाज के अंतरंग तथ्यों का संपूर्ण बोध मुझे हो।

“आज लोग सेहत की खामियों को बनाव-श्रंगार के प्रसाधनों से पूरा करने में गौरव समझते हैं और उसकी आपूर्ति हर घर में सभ्यता की साक्षी होती है।” मैंने अब अपनी दलील की पुष्टि की है। बाबा तनिक मुसकुरा गए हैं। उन्हें अपनी दलील पिटने का अफसोस नहीं है। उनकी निगाहें मुझसे कह गई हैं – मुझे तो इसी दिन का इंतजार था बेटे।

“चलो मान लिया! अब आगे की बात करो!” बाबा ने जैसे रास ढीली करके मुझे सरपट दौड़ने के लिए विमुक्त कर दिया हो।

“इसके फायदे हैं – पहला लागत कम और मांग ज्यादा। दूसरा इसमें तकनीकी जटिलता का समावेश लेशमात्र भी नहीं है। तीसरा कच्चा माल पा जाने में कोई आपत्ति नहीं। चौथा लोग इन वस्तुओं का इस्तेमाल बारहों महीने करते हैं और पाँचवाँ इसमें लाभांश का मार्जिन कहीं बहुत ज्यादा है। सबसे बड़ी बात होगी राजनीतिक परिवेश का असर बे मालूम होगा और हड़ताल वगैरह कम क्योंकि ज्यादातर कर्मचारी पढ़े लिखे और अनुशासित होंगे।” मैंने एक व्याख्यान जैसा दिया है।

“मान लिया! अब आगे की बात ..” बाबा ने फिर कहा है। शायद वो समझ गए हैं कि मैं इस विषय पर मनन कर चुका हूँ और वो मेरी खिल्ली नहीं उड़ा सकते। मैं अति प्रसन्न और कुल्हांचें मारते मन से बोला हूँ – इसके प्रशासन और संचालन के लिए मैं एक कार्यकारिणी का सृजन करूंगा जिसमें मैं एक प्रमुख संचालक की भूमिका करूंगा और अन्य सभी पद चुनाव के बाद दिए जाएंगे! मैंने बाबा की ओर घूरा है। एक संदेह युक्त भावना उनको खदेड़ रही है। पर मैं बेधड़क कहता रहा हूँ – उत्पादन की जिम्मेदारी एक पर, मुनाफा और व्यापार दूसरे पर, अनुशासन और सुरक्षा तीसरे पर तो प्रबंध और वेलफेयर चौथे पर डालकर उन्हें जिम्मेदारी का अहसास करने दूंगा।

बीच में अनुराधा और सोफी आकर बैठ गई हैं। कई बार चाय आई है। नौकरों ने मेरा नया रूप देखा है। मेरा अपना नौकर सहमा सहमा सा मुझसे दया की भीख मांग रहा है क्योंकि मैंने आज अल सुबह की चाय न पी थी और न उसने मुझसे उलटी सीधी प्रताड़ित बातें सुनी थीं। वो शायद इन सब का अभ्यस्त था। और आज उनकी अनुपस्थिति में किसी अकारण भय से आहत था। मैंने मुसकुरा कर उससे अपनी एक फाइल लाने को कहा है। वो आभार मान कर दौड़ा चला गया है। मैं एक नई संज्ञा में अपना समावेश देखता रहा हूँ।

चाय की चुस्कियों के साथ साथ बाबा मेरी पूरी योजना पी गए हैं और अब उसे अपने मस्तिष्क की मशीन में ठूंस कर महीन बना रहे हैं। कुछ तथ्य टपके हैं तो कुछ असार गर्भित बातें छंट कर छिटक गई हैं। बाबा के अंदर की ये प्रतिक्रिया मैं महसूसता रहा हूँ।

“दलीप ..!” उन्होंने मुझे स्नेह से संबोधित करके कहा है।

पल भर मैं उनकी आंखों में कुछ खोजता रहा हूँ पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा हूँ।

“ये कार्य कारिणी बनाने का नया तरीका सिद्धांत के तौर पर तो ठीक है पर प्रयोग में लाने के लिए अभी समय अपरिपक्व है!”

“मैं समझा नहीं बाबा!” मैंने चतुराई से बाबा को बींधना चाहा है ताकि उनकी बात उन्हीं से हां या ना में साफ करा लूं।

“अभी लोग जिम्मेदारी का आभार नहीं मानते। उनके हाथों में इस तरह पूंजी और व्यापार सौंपना खतरे से खाली नहीं।”

“लेकिन आप भी तो हर काम खुद नहीं करते?”

“दोनों में अंतर है बेटे! मैंने किसी को भी समूल अधिकार या ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपी है जिसमें उसे अपना वजूद दिखाई देने लगे। सभी एक दूसरे पर टिके हैं, एक दूसरे से डरते हैं, अविश्वास ओर आपसी फूट इन्हें चोरी चकोरी से भयभीत करती रहती है और नौकरी चले जाने का भय ही उन्हें कार्यरत रखता है।”

“पर इसमें उनका विकास नहीं हो पाता। वो मशीन के पुर्जों जैसे काम से चिपके रहते हैं जैसे वो स्पंदन हीन हों, भाव हीन हों और प्रतिक्रिया विहीन पुर्जों का एक संकलन और फिर .. गुलाम ..”

“एक बार उनके हाथ में पूंजी और पावर आई फिर तुम, तुम नहीं रहोगे, दलीप!”

“पर क्यों बाबा?”

“हमारा चारित्रिक स्तर अभी बहुत नीचा है।”

“कब उठेगा?”

“और सौ-पचास साल बाद!”

“कौन उठाएगा?”

बाबा तनिक सकपका कर रुक गए हैं। उन्होंने फिर अपने अंदर कुछ टटोला है। लगा है इस प्रश्न की उन्हें आशा ही न थी। मैं जैसे पनसारी की दुकान पर खड़ा खादी की टोपी की मांग कर रहा था और पंसारी स्तंभित था – मेरी मूर्खता पर या फिर मेरी चतुराई पर। इसी का फैसला अब बाबा नहीं कर पा रहे थे।

“जिम्मेदारी तो हमारी अपनी ही है पर सामूहिक रूप से ..”

“सामने खड़ी जिम्मेदारी से मुंह तो नहीं मोड़ा जा सकता। पहला कदम लेने वाला व्यक्ति मात्र माना कि गिर भी जाए तो भी स्वाभाविक है। कम से कम दूसरा आगे बढ़ने का साहस तो कर सकेगा। अब समय आ गया है बाबा जब हमें इस दृश्य में सबसे पहला कदम उठाना पड़ेगा!”

“बहुत बड़ी जोखिम है, दलीप!”

“जोखिम जीतने का नाम ही दिलेरी है!” मैं कह कर विजय गर्व से बाबा की ओर निहार रहा हूँ। मन ही मन मैंने अपनी जीत मान ली है।

“ठीक है! अगर तुम्हारे नए प्रवर्तकों और प्रयोगों में रुची है तो करो इन्हें कार्यान्वित। यह पहला कदम आहिस्ता से लेना।”

“ओके बाबा!” हर्षातिरेक से मैंने बाबा का हाथ अपने हाथों में भर लिया है।

मेजर कृपाल वर्मा

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