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स्नेह यात्रा भाग तीन खंड चार

sneh yatra

बाबा के मन में एक आश्वस्ति बोध भर गया है। एक सहम जो उन्हें अब तक खदेड़ता रहा था छट गया है। लगा है वो भी अब आने वाले खतरों का सामना करने के लिए सजग हैं और मुझे प्रगति के रास्ते में खड़ी लालच और भ्रष्टाचार की दीवारें ढा देने के संकेत देकर अब जान जोखिम और लाभ हानि के डर से दूर जा बैठे हैं। एक बाप ने अपने बेटे को अमरत्व का कवच पहना कर जैसे युद्ध स्थल में उतार दिया है। बाबा की आंखों में आज फिर मैंने अटूट विश्वास देखा है। लगा है मैं भी इसी विश्वास पर आज तक पला हूँ!

“वैल डन भैया!” ताली बजा कर अनुराधा ने मेरी जीत की घोषणा की है।

“थैंक्स!” कहकर मैंने अनु का आभार व्यक्त किया है। अब हम दोनों विरोध कम और युद्ध ज्यादा करते हैं – शायद बदल रहे हैं।

सोफी के मुखारविंद पर आवेष्टित एक नशीली मुस्कान को मैं परखता रहा हूँ। मुझे उससे भी कुछ विशेषण पा लेने की उम्मीद थी पर ना उम्मीद होकर उस थिरकती मुस्कान को भी अगर मैं पकड़ पाया तो कृतार्थ हो जाऊंगा। अब भी मैं अवसन्न से निर्णय नहीं कर पा रहा कि सोफी मुझे चाह गई है या नकार दिया है।

बाबा उठ कर स्नान करने चले गए हैं। अनु के बच्चों ने महाभारत का अनुच्छेद दोहराया है और घर में कोहराम सा मच गया है। नौकरों के काबू से बात बाहर है अतः अनु को जाना पड़ रहा है।

“ऐसी संतान भगवान किसी को न दे!” अनु ने बच्चों को कोसा है।

मैं हंस गया हूँ। साथ में सोफी भी हंस गई है। अनु तनिक झेंप गई है और फिर उसने मुझ पर वार किया है।

“तुम्हीं ने इन बच्चों को बिगाड़ा है भैया। अपने पापा के सामने तो ..”

“और तुम भी तो बाबा के सामने ..” कहकर मैं खूब हंसा हूँ। सोफी ने भी अनमने से मेरा साथ दिया है।

अनु चली गई है। उसका कोसना काटना अब भी बच्चों की शिकवे और शिकायतों में मिला हम तक पहुंच रहा है। बाबा का स्नान के समय बोलते मंत्रोच्चार की प्रतिध्वनि छन-छन कर आ रही है। बांसों चढ़ा सूरज हमें अब छाया में बैठने को कह रहा है। पर मैं ये मौका, ये एकांत और ये निखरा नया उत्साह शायद फिर न पाऊंगा यही सोच कर मैं सोफी से मुखातिब हुआ हूँ।

“नई योजना कैसी लगी?”

“ठीक है!” सोफी ने इस तरह कहा है जिस तरह कोई प्रतिद्वंद्वी दूसरे की सफलता को नकार रहा हो।

“बस ठीक है या ..?” मैंने सोफी को फिर कुरेदा है।

सोफी गंभीर हो गई है। फिर कुछ संभल कर बोली है – समाज सुधार और व्यापार दो भिन्न दिशाएं जैसी हैं। दोनों समानांतर लकीरें हैं जो कभी भी नहीं मिल सकेंगी!

“लेकिन क्यों?”

“क्योंकि एक में मानवीयता का निश्चल समावेश है और दूसरे में अमानवीय, वीभत्स और लघु स्तरीय कुटिल चाल-चुनौतियों का परिवेश है। एक हृदय दोनों भावनाओं से कैसे भावित हो सकता है?” सोफी का चेहरा एकाएक गमजदा लगने लगा है। उसकी लंबी निश्वास कुछ कह गई है पर मैं उसे समझ नहीं पाया हूँ।

“दो समानांतर रास्तों पर चलूंगा और जब फासला बढ़ेगा और मेरी टांगें इतनी चौड़ी हो जाएंगी कि मैं बीच से फट जाऊं – बस फिर एक कोई भी सफल रास्ता पकड़ लूंगा और ..”

“मतलब ..?”

“हां सोफी! मुझे गिरने से भय नहीं और मैं उसके लिए हर समय तत्पर रहूंगा। आदमी जीना असफलताओं से सीखता है उतना शायद सफलताएं नहीं सिखातीं। गिरने के बाद जो उठने की चाह सिखाती है वही सच्ची संगिनी होती है!”

“शायद ठीक ही कहते हो! काश मैंने भी गिर कर देखा होता!” वही लंबी निश्वास। एक गम की परतें उस दीप्तिमान चेहरे को दबोचती चली गई हैं। एक अजीब सा पश्चाताप सोफी की आंखों से टपक रहा है। पहली बार मैं जान पाया हूँ कि वो कितनी भावुक है।

“तुम कल जा रही हो?” मैंने उसे गम की हिलोरो से बाहर खींचने का प्रयत्न किया है।

“हूँ! जाना .. बस एक दो दिन में!” गोल मोल उत्तर पा कर मैं सोफी की दिग्भ्रांत स्थिति पर मनन करने लगा हूँ।

सोफी जरूर कहीं भटकी है, रुकी है और उसके उद्गार को बहने से किसी ने रोक दिया है। तभी वो बाबा को सराहनीय नजरों से घूरती रही थी और उनका पीछा उसने स्नान घर तक किया था।

“तुम चलोगे?”

“अब नहीं!”

एक चुप्पी छा गई है। इस चुप्पी में मैं सोफी पर छा गया हूँ। लगा है प्रगाढ़ आलिंगन निबद्ध हम दोनों एक दूसरे के संताप हरने हेतु उत्तप्त चुंबनों को छापते रहे हैं। दहकते दो दिलों के सामंजस्य से अब एक शीतलता उगती जा रही है और एक निकट संबंध स्थापित हो गया है। आज बीच का अंतर इतना भरा-भरा लगा है। एक आद्र आत्मीयता उपज कर घायल मनों को सेंकती रही है। मैं सोफी को पा लेने के लिए और सोफी पता नहीं क्या पा लेने के लिए कराहते रहे हैं।

“सोच नहीं पा रही – पहले कहां जाऊं?”

“तुम में अविश्वास भरा है!” मैंने जैसे सोफी की चोरी पकड़ ली है।

सोफी में एक अपराधियों जैसा सहम भर गया है। अचानक आज उसकी नजरें झुक गई हैं। सोफी मेरी बात से मर्माहत हुई है। वह तनिक लजा गई है। मुझे लगा है उसने आत्मसमर्पण कर दिया है। मैं विजय गर्व से सोफी के गोरे बदन पर लालची आंखें गढ़ाए हूँ। अब मैं उसके अंदर झांकना चाहता हूँ। उसके दूधिया वक्ष का अवलोकन, सुडौल और उत्तम नितंबों के उठे गिरे झुकाव परछाइयों में फंसी निगाहें और उसकी लंबी-लंबी रची उंगलियों को पीसता मेरा बलिष्ठ हाथ और बांहों के दायरों में उसे घेरे खड़ा मैं क्या चाहता हूँ अभी भी निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ। जो बानी से चाहा था वो रानी से नहीं और जो रानी ने दिया उससे टीना बहुत भिन्न थी। आज सोफी है – एक चुनौती है! ऊपर से हिमालय जैसी शीतल और अंतर में ज्वालामुखी जैसा विनाशकारी तूफान दबाए सोफी मुझे डरा गई है। मैं जानता हूँ इतनी जल्दी वो आत्मसमर्पण नहीं करेगी। उसे पाने के लिए तो मुझे रात दिन खटना होगा जो बानी के लिए मैंने कभी नहीं किया!

मेजर कृपाल वर्मा

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