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स्नेह यात्रा भाग सात खंड उन्नीस

sneh yatra

देखते देखते लस्सी लंबे लंबे गिलासों में भरी सफेद झागों से सजी गोरे काले होंठों से आ लगी है। हम सब ने तृप्त हो कर संगत का धन्यवाद किया है।

“अब तो मुझे ठिकाना मिल गया। जब भी स्टेट्स आऊंगा यहीं रुकूंगा!” मैंने अपना निश्चित किया निर्णय कह सुनाया है।

“वैलकम पुत्तर! वैलकम, त्वाडा ही घर है!” भाई गुरनाम सिंह ने कहा है।

मैं चलने को हुआ हूँ तो एक भीड़ उमड़ आई है। लग रहा है मैं कोई भारत से आया मेघ दूत हूँ जो इन सब के संदेशे कह चला हूँ और इनके मन की भी ले चला हूँ। कुछ आंखें अव्यक्त आंसुओं से छलकती लग रही हैं। मैं उदास मन सोफी के साथ चला आया हूँ। एक पल में हिन्दुस्तान छोड़ मैं अमेरिका में हूँ। मुझे एहसास हुआ है कि माटी सब एक है, धरती नहीं बदलती – बदलता है इंसान। उसका अपना बनाया धर्म, जाति और मान मर्यादा धरती के वक्ष से उठती गंध के समान हैं – सब के लिए दिया समान वरदान है, फिर हम लड़ मरें तो कोई क्या करे?

“कैसा लगा?” रॉबर्ट ने पूछा है।

“एक दम भारतीय!” मैंने उत्तर दिया है।

“भारतीय बहुत भावुक होते हैं।” मिसेज रॉबर्ट ने अपना मत प्रकट किया है।

“हां ..!” मैंने चुपचाप मान लिया है।

“यही भावुकता जीवन की नीरसता मिटा देती है और इंसान, इंसान के बहुत करीब आ जाता है। बनावटी पन से खुशी लमहों में मर जाती है!” सोफी ने कहा है।

“ये कैसे हो पाता है?” मिसेज रॉबर्ट ने फिर पूछा है।

“आत्मा के रुझान से, संतोष और परहित के चिंतन से – सर्वे भवंतु सुखिन: का नारा हमीं ने लगाया था और आज भी हमीं लगा रहे हैं।” मैंने सोफी का समर्थन किया है।

“यू मीन – हम लोग स्वार्थी हैं?” मिसेज रॉबर्ट तनिक झल्ला कर बोली हैं।

“बाई नेचर – यस!” सोफी ने उत्तर दिया है।

इस भद्दे सवाल जवाब के उत्तर में मिस्टर रॉबर्ट तनिक मुसकुराए हैं। मैं किसी गंभीर विभीषिका के घटित होने की आशंका से चुप हो गया हूँ। अमेरिका में आ कर भारत का पक्ष बुलंद करने की जुर्रत पर तनिक खीज गया हूँ। मिसेज रॉबर्ट चोट खाई नागिन सी इठ कर रह गई है।

घर पहुंच कर हम सभी लॉन में आ बैठे हैं। बेहतरीन घास की चादर किसी भी मखमली गद्दे से बाजी लेने को तैयार है। फूलों से लदे पौधे श्रंगार से लदी दुलहन से लग रहे हैं। प्रशांत सागर में उठती हिलोरें छपाक-छपाक शब्द से हमें डराने का विफल प्रयत्न करती लग रही हैं। दूर क्षितिज में कुछ मछुआरों की नावें थमी हैं। शायद कोई माझी सॉंग मुखरित हो रहा होगा। पानी की तरंगों से द्रवित हुआ हृदय इस सच्चाई के पलों में कैसे जी पा रहे होंगे। क्या मोह कट गया होगा और क्षणिक जीवन का एहसास अथाह सिंधु ने सटक लिया होगा?

“सोफी जानती हो टोनी का क्या हुआ?” मिसेज रॉबर्ट ने पूछा है।

“नहीं तो!” बे मन सोफी ने उत्तर दिया है।

“कार क्रेश हो गई। पहले तो खबर थी कि उसकी टांगें कट जाएंगी पर ..” रुक गई थी मिसेज रॉबर्ट।

“फिर ..?”

“ही इज नो मोर!” धीमे स्वर में मिसेज रॉबर्ट ने वाक्य पूरा किया है।

“यू मीन – डेड?” सोफी ने प्रश्न दोहराया है।

“यस ..!” मिसेज रॉबर्ट ने फिर कहा है।

लगा है सोफी सागर की उफनती लहरों से जा गुथी है। सागर पर तैरते भीमकाय पोतों की गर्दन पकड़-पकड़ कर किनारे पर फेंकती चली जा रही है। समुद्र का एक छोर पकड़ कर उलटने की धमकी दे रही है। आंखों में उमड़-घुमड़ करती काली घटाएं घटाटोप में बदलती जा रही हैं। अब छलकी कि जब छलकीं वाला हिसाब है! कोई कसैला विषाद सारे जीवन का स्वाद किरकिरा करता लगा है!

“कौन था टोनी?” मैंने पूछ लिया है।

“था कोई ..!” सोफी ने इस तरह कहा है जिस तरह टोनी कोई टॉनिक हो या कोई उखाड़-पछाड़ देने वाली अनुभूति हो।

फिर सोफी अपने मौन से जा लड़ी है। आंखों के आगे कांटों की अंधाधुंध कतारें दौड़ने लगी हैं। रेसिंग कारों के हुजूम, उनमें बैठे चालक, उनकी भड़कीले रंगों वाली पोषाकें और जमा चिल्लाती भीड़-भक्कड़ हाथ उठा-उठा कर सोफी को सराहता टोनी! टोनी को हर पल दूरबीन से देखती सोफी, उसके चौड़े चमकीले दांत, एक खुली अट्टहास की हंसी हंसते उसके मोटे-मोटे चुस्त होंठ, बलिष्ट बांहें, ऊंचा कद-काठ और गोरा चिट्टा रंग कितने ही अभिनेताओं के रूप में घुसता टोनी – रेस के बाद आगोश में समेटता टोनी – आग्रह करता टोनी – टोनी .. एंड टोनी? दुनिया किसी फुलबगिया की तरह महक जाती। टोनी उसे उठा पटक देता और भाव विह्वल सी सोफी आत्म समर्पण कर देती। क्या नहीं दिया फिर भी कितना दिया? उसके बाद तो ..?

“ही इज डेड ..!” कहकर सोफी उठ कर चली गई है।

मैं निस्तब्ध सा बैठा-बैठा घास के तिनकों को सराहता रहा हूँ। रॉबर्ट अखबार में उलझे हैं तो मिसेज रॉबर्ट ने घर के अंदर खटर-पटर चालू कर दी है। दोनों बच्चे समुद्र के तट पर मिट्टी रेत में खेल रहे हैं। शायद इमारतें बना रहे हैं – रेत की इमारतें – सत्य स्वरूप और एक दम इरादों के अनुरूप! तो क्या ये इमारतें टिक पाएंगी? सोफी उघर ही जा निकली है। बच्चे वापस आ रहे हैं। मैं सोफी का पीछा करने चला हूँ। सोफी ने पैर की ठोकर से बच्चों की सारी इमारतें ढा दी हैं। शायद ये टिकाऊ नहीं थीं।

“कौन था टोनी?” मैं दोबारा पूछ भी लेता पर हिम्मत जवाब दे गई है। “रेत कितनी प्यारी लगती है?” मैंने सोफी से अलग से पूछ लिया है।

“पर कितनी किसकिसाहट भर जाती है मन में ..” सोफी ने कुछ उगलना चाहा है।

वही प्रश्न फिर मेरे अंतर में भी कुलबुलाने लगा है।

मेरा मन आया है ..

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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