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स्नेह यात्रा भाग सात खंड तीन

sneh yatra

काम करना, हाथ बटाना और सीखना सिखाना मुझे मोहक लग रहा है। अचानक किचन से आती एक आवाज मुझे चौंका गई है।

“सॉरी! मैं पहले न आ सकी!” आवाज पहचानने में मैंने देर नहीं लगाई है।

अचानक मैं किचन में पहुंच गया हूँ। अनु ने जान कर एक डब्बा खोल कर अपने आप को व्यस्त कर लिया है। सोफी ने सीधा मुझे आंखों में घूरा है। दरवाजे पर रुका मैं एकटक सोफी को कई पलों तक देखता रहा हूँ। सोफी हिप्पी की सज्जा में नहीं है। वह गैरिक अल्फी में रुद्राक्ष पहने नहीं आई है। आती गंध से मन उमेठ कर एक देवी जैसी नहीं मान पाया हूँ। धुली मंजी श्वेत और सफेद मूली समान स्निग्ध आभा में लिपटी सोफी कोई भिन्न सी संज्ञा लगी है।

अपलक मैं उसे आंखों में घूरता रहा हूँ। खोया विश्वास खोजता रहा हूँ और किसी दिव्यता के परिवेश को उतार कर फेंकता रहा हूँ। अदृश्य शून्य में मिलती निगाहें कोई जादू जगाएंगी, सोया अतीत ताजा कर जाएंगी और एक मानवीयता का पहरा हम दोनों पर पोत जाएंगी – ऐसी आशा में बंधा मैं बोलने का साहस नहीं कर पा रहा हूँ। चारों ओर मशीनों और बनावटी उपकरणों में दबी आवाजें, शहर के घुटन भरे कुहासे में अनवरत छटपटाती रूहें कहती रही हैं – क्या पाने आए हो यहां? गलत ठिकाने पर आ गए हो बरखुदार!

“कब आए?” सोफी ने असहज चुप्पी को तराश दिया है।

सोफी का कंठ अवरुद्ध सा किसी अज्ञात सहम से भरा लगा है। वाक्य से मुझे आत्मीयता टपकती लगी है। एक अजीब सा रोमांच मैं सह रहा हूँ। एक शीत लहर, बर्फ की बेजान गंध और हेमंत की ताजगी मन में भरने लगी है। मैं बोलना नहीं चाहता। ये क्षण जीना चाहता हूँ। अवाक और निरुत्तर वाली स्थिति बनाए रखने की जिज्ञासा बन नहीं रही है। लगा है ये पल ठहर गए हैं। दृश्य ठहर गए हैं और जीवन का बहता प्रवाह रुक गया है। मैं अपने ही दिल की धड़कन सुन पा रहा हूँ – धक-धक-धक!

“आने की सूचना इनके बाद पहुंची है!” अनु ने पीछे से कह कर जैसे मेरी कमर में कोई नुकीला त्रिशूल चुभो दिया है।

“चलो! आ तो गई!” सोफी ने निश्वास छोड़ी है।

मुझे लगा है – सोफी का दिल भी उसी तरह धक-धक-धक कर रहा है। उसे भी हमारे मिलन पर रोमांच हुआ है, खुशी हुई है और वही अज्ञात पल वो मेरे साथ जी गई है जिसे अनु ने अपनी तीखी आवाज से अभी अभी भेद कर आहत किया है। हम दोनों मात्र नजरों से एक दूसरे का आलिंगन कर गए हैं, गरमाए अंग सहला गए हैं और भूले बिसरे उभार निरख परख कर एक आस्वस्ति बोध से भर गए हैं। पीचो का वाक्य और अनु की दोस्ती की परिभाषाएं मेरी आंखों के सामने कोई हलाल करता रहा है।

“बिन बुलाए ..” मैंने हलका सा शब्द भेदी बाण छोड़ा है ताकि सोफी के स्निग्ध शरीर को सहलाए, आहत न करे और स्पर्श मात्र कर जाए!

“क्यों ..? मेरा पत्र ..?” व्यग्र सोफी ने तिलमिला कर पूछा है। सहसा गोपनीय रहस्य अनु के सामने आ गया है।

“अच्छा ..! तभी तो कहूं कि भइया ..?” अनु जैसे खुले डब्बे और पतीलों से कहती रही है। मैं बैठक में चला आता हूँ।

“इनसे मिलो – डॉक्टर चौरसिया!” कुमार साहब ने परिचय कराया है।

“हैलो! दलीप कहिए मुझे!” मैंने रानू की तरह परिचय दिया है।

“भाई सुन चुका हूँ। तुम्हारी चर्चा आम होती रहती है।” डॉक्टर चौरसिया ने बताया है।

चौरसिया ठिगने कद के सांवले रंग और गंजी खोपड़ी वाले व्यक्ति हैं। उनके साथ में उनकी पत्नी है – हिन्दुस्तानी साड़ी में, बेहद मोहक लग रही है।

“शकुंतला! माई वाइफ!” उन्होंने ही परिचय कराया है।

“नमस्ते जी!” मैंने अभिवादन में हाथ जोड़़े हैं तो अन्य लोग गौर से देख कर मुसकुरा गए हैं।

इसके बाद मेरा परिचय अनु ने चुन चुन कर कराया है – इंजीनियर मेहता, प्रोफेसर वशिष्ठ, बिजनिस मैन मंहगा सिंह और सदाशिव कुलकर्णी हैं – जो यहां पधारे हैं!

हिन्दुस्तानियों के बीच घिरा मैं देश का कोई प्रतिनिधि लग रहा हूँ। सभी मुझे भांति-भांति के प्रश्न पूछ कर अपनी भूली यादें ताजा कर लेना चाहते हैं। सभी हिन्दुस्तान को यहां आकर भी भूल नहीं पाए हैं। मुझे लगा है कि अब भी उन्हें निर्धन हिन्दुस्तान समृद्ध अमेरिका से ज्यादा प्यारा है। इसी बात की पुष्टि करने के उद्देश्य से मैंने पूछा है – आप लोग नौकरी ..?

“हां! मिस्टर दलीप मैं नौकरी करता हूँ। अब देखो देश में एक प्रौफेसर को क्या मिलता है! और यहां ..?” वशिष्ठ ने पहल की है।

“तो आप यहां धन की तलाश में आए हैं?” मैंने तनिक चौंक कर पूछा है।

“पैसा किसे बुरा लगता है यार! तुम जैसे करोड़पतियों की बात अलग है। पर हम लोग ..” मेहता ने पुष्टि की है।

“आप तो इंजीनियर हैं न?” मैंने सीधा सवाल दागा है और मेहता को आंखों में घूरा है।

“जी हां! चार साल टक्कर मारने के बाद चार सौ के ग्रेड पर नहीं पहुंचा – वहां और अब यहां ..”

“मुझे तो जॉब ही न मिला था!” मंहगा सिंह ने हंस कर कहा है।

“और हम लोगों को तो दमड़े के दस सेर भी नहीं पूछा जाता!” कुलकर्णी ने भी ईंट जैसा जवाब मेरे माथे मार दिया है।

लगा है – मैं एक बिंदु हूँ जिसमें हिन्दुस्तान की तमाम कमियां विद्यमान हैं और मेरे चारों ओर घिरे ये डॉक्टर, प्रौफेसर, साइंटिस्ट और व्यापारी एक एक कमी पर उंगली रख कर टीस पैदा कर रहे हैं ताकि मैं भी इन्हीं के स्वर में पीड़ा से चीख पड़ूं। लगा है अमेरिका का ग्लैमर जो किसी दिल्ली वाले से मेल नहीं खा रहा है – इन्हें अखरा है। ये लोग यहां से हट कर आगे देखने में समर्थ नहीं हैं और न ये मानने को तैयार होंगे कि मैं भी इन्हीं में से एक प्यासा इंसान हूँ जो अपार धन के सागर में खड़ा-खड़ा खारी पानी नहीं पी सका हूँ।

“पैसे के अलावा और यहां क्या मिलता है?” मैंने कॉमन सवाल दागा है।

सभी एक सोच में पड़ गए हैं। मुझे लगा है कि मेरी जीत हुई है और कुलकर्णी ने मुझे देखते हुए कहा है – यहां मेहनत करने पर आदमी को नोबल प्राइज तक प्राप्त हो जाता है। इंडिया में सिर्फ पॉलिटिकल पुल वालों का प्रमोशन और तरक्की होती है।

“देयर इज नो प्लेस फॉर टेलेंटिड!” डॉक्टर चौरसिया ने गंभीर होते हुए अपना मत पेश कर दिया है।

लगा है – इन घुटे पिटे करेक्टरों और खयालों के बीच मैं एक अलग संज्ञा में सिमट गया अबोध बालक हूँ। सभी के कटौंहे तेवरों ने मुझे बार-बार जोड़ तोड़ कर जमीन पर दे मारा है। सभी के आहत स्वाभिमान, मरी आकांक्षाएं और हारे थके परिताप मुझे कंकरीली सड़क पर घसीट कर सजा दे रहे हैं। जैसे मैं ही दोषी हूँ, देश द्रोही हूँ और इन सब के पलायन का एक मात्र कारण हूँ – सब खुल कर अंदर ही अंदर चबाई बबरूती की तरह पचाता रहा हूँ और किसी जबान पर उभरते मीठे स्वाद की आकृतियों में चौकन्ना बना हूँ!

“टेलेंट जगह बनाती है – मांगती नहीं!” मैंने संभल कर वार किया है।

मैं चक्रव्यूह में घिरे अभिमन्यू की भूमिका निभा रहा लगा हूँ।

“जॉब मिले तभी न?” मेहता ने फिर से वार किया है।

“अमेरिकन्स को किसने मौका दिया?” इतिहास को मैंने दोहराया है।

“और यहां तो ..?” मेहता ने वार बचाने का प्रयास किया है। “यहां भी इतनी ही विषमताएं थीं, कठिनाइयां थीं, पॉलिटिक्स और बहुरंगी समाज के झमेले थे – जो इन्होंने झेल कर काट दिए हैं। हमारी तरह पलायन नहीं किया!”

मैंने पूर्ण रोष में प्रहार किया है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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