“बाप रे बाप! इतनी किताबें?” मैंने आश्चर्य से पूछा है।
“ज्यादातर इनमें हिन्दुस्तान से ही संबंध रखती हैं।” सोफी ने बताया है।
“क्यों?” मैंने कौतूहल से पूछा है।
“मैं रिसर्च कर रही हूँ न!” सोफी ने तनिक लजाते हुए कहा है।
“किस पर?” मैंने फिर पूछा है।
“द कॉज आफ पॉवर्टी – गरीबी का मूल कारण!” सोफी ने बताया है।
हम दोनों एक दूसरे को घूरते रहे हैं। मैं भूल ही गया हूँ कि कोई करोड़पति हूँ और सोफी की खोज का एक मूल अध्याय जैसा सामने किसी अपराधी की तरह खड़ा-खड़ा सजा सुनना चाहता हूँ। सोफी की निगाहें मुझे बता गई हैं कि हिन्दुस्तान का व्यापारी वर्ग, धनिक लोग और राजे रजवाड़े ही इस स्थिति को लाने में गुनहगारों की भूमिका निभाते रहे हैं और आज भी निभा रहे हैं। एक शर्मनाक स्थिति मेरे लिए पैदा हो कर आ खड़ी हुई है। मैं सोफी को अब भी समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ। एक अमेरिकी लड़की हिन्दुस्तान से क्यों जुड़ी है? वहां की गरीबी उसे क्यों सताती है? मुझे ये अब तक समझ क्यों नहीं आया?
“क्या इसलिए हिन्दुस्तान गई थीं?” मैंने अपराधी की तरह ही पूछा है।
“हां!”
“कुछ मिला?”
“बहुत कुछ! मैंने कुछ अमेरिकी लेखकों की किताबें हिन्दुस्तान के बारे में पढ़ी थीं। जैसे वाइट मैन, ऐस बर्न और शौरो! ये देखो किताबें – ये रहीं!”
सोफी ने मुझे सजिल्द मोटी-मोटी पुस्तकों के दर्शन कराए हैं। इनमें से उसने कुछ पुस्तकों को अलग रख कर कहा है – ये है मनु स्मृति, ये भागवत और ये रहा विष्णु पुराण!
किताबों के अंदर झांक कर मैंने देखा है। अंदर की हिन्दी लिपि में छपे अक्षर मुझ पर हंस गए हैं। मैं कायल सा इन किताबों को कुरेदता रहा हूँ जिनकी रचना मेरे अपने देश में हुई है।
“एस बर्न ने तो किताबें पढ़ कर आर्य साहित्य की प्रशंसा की है। शौरो तो हिन्दू योगी कहलाता है।” सोफी मुझे बताती जा रही है।
“अमेरिकी और आर्य साहित्य में तुम्हें क्या अंतर लगता है?” मैंने पूछा है।
ये प्रश्न मात्र मैंने अपनी लाज बचाने के उद्देश्य से पूछा है। सोफी मुझे ऊपर से नीचे तक परखती रही है। शायद उसे मेरी अज्ञानता पर आश्चर्य हो रहा है या कोई ऐसा उत्तर ढुंढ रही है जिसे मैं समझ पाऊं। मेरे सामने मूर्ख काली दास और विदुषी विद्योतमा के समागम की स्थितियां उखड़-उखड़ कर फैल गई हैं।
“आर्य साहित्य हृदय से उमड़ता है – किसी पहाड़ के वक्ष से फूटते चश्मे से श्रोत जैसा अनुपम और अमेरिकी – महज दिमागी तथ्यों का सपुंज अंधकार लगता है – कॉमर्शियल और कहीं-कहीं बेहद आर्टीफीशियल।”
“लेकिन क्यों?” आनंद लेते हुए मैंने फिर से बात आगे बढ़ा दी है।
“आर्य साहित्य की रचना निर्वसन योगियों और ऋषियों ने की है जिन्होंने ज्ञान संपदा की खोज कर ली थी। अमेरिका सिर्फ धन खोज पाया है – बाकी खोज अभी बाकी है!”
लगा है सोफी इस अधूरी खोज को आगे बढ़ाएगी। उसका गंभीर चेहरा किसी अज्ञात दुख से आहत है और लगा है कोई कविता मुख रित होने लगेगी। मैं तो अपने ही देश के महान साहित्य के बारे में अज्ञानी सा मुंह छिपाता लगा हूँ। दिमाग स्कूल और कॉलेज के दिनों में मुझे घसीट ले गया है। मैं क्या पढ़ता रहा था? हमारे स्कूल ने हमें क्या-क्या सिखाया? अंग्रेजी .. कुछ बाईबल के अध्याय .. दूसरों की की खोजें तथा उनका इतिहास। ब्रिटिश काल में जो भी शिक्षा दी वही आज जारी है। क्यों? देश में आज भी कॉनवेंट स्कूल हमारे लाखों की संख्या में हैं। आज भी पाश्चात्य देशों की नकल हम कर रहे हैं। आज भी हम अपना सही स्वरूप नहीं देख पा रहे हैं। क्यों? कितने ही खट्टे मीठे प्रश्नों के स्वाद जबान पर चढ़ते रहे हैं और मैं एक कुष्ठ रोगी सा छटपटाता रहा हूँ।
“ये सब पढ़ने के लिए तो वक्त चाहिए!” मैंने जैसे एक ओछी आड़ में अपने आप को छिपाना चाहा है।
“नहीं! विल पावर चाहिए! ये तो मेरी साथी है अन्यथा मैं भी नौकरी करती हूँ, कमाती हूँ और अपना खर्च भी स्वयं चलाती हूँ।”
सोफी ने एक बार फिर से मुझे मेरी अपनी अकर्मण्यता का ज्ञान करा दिया है। साहित्य सोफी की हॉबी है – मुक्तिबोध की हॉबी नई चिड़िया और मेरी हॉबी ..? अतीत में झांक कर तो एक ही उत्तर पकड़ पाया हूँ – गर्ल चेजिंग ही मेरा शौक था। कितना भयानक शौक था? क्या आज भी मैं इसी शौक के पीछे यहां तक चला आया हूँ? क्या मैं सोफी को किसी तरह भूल पाऊंगा? जिस तरह .. रानी और बानी ..? एक गहरी कालिख मेरे मुंह पर पुत गई है। एक पश्चाताप आत्मा को खाए जा रहा है – और मैं किसी और को दोषी ठहराने का प्रयत्न कर रहा हूँ – शायद। शिक्षा प्रणाली, मां-बाबा का मेरे गिर्द घिरा माहौल और धन-दौलत इत्यादि अब सभी मुझ पर हंसते लग रहे हैं। “दोषी तुम हो, गलती तुमने की है!” आदि-इत्यादि की आती आवाजें मेरे कानों के पर्दे फाड़ती लगी हैं।
“तुम बहुत गुणी-ज्ञानी हो और मैं ..” मेरा स्वर भर्रा गया है।
मैंने जैसे अपना अपराध स्वीकार लिया है।
“कहो न – ये मेरी शैली है, बस!” सोफी ने जैसे सारी गंभीरता मेरे चेहरे से समेट कर पी ली है। “बोलो क्या पीओगे?” सोफी ने मेरी चुप्पी को भेदा है।
“कुछ गरम – बहुत गरम – जो अंदर तक मुझे दंश कर दे – या राख कर दे!”
“अपने आप को कभी यों नहीं कोसना चाहिए!” सोफी ने मुझे राय दी है।
सोफी दो दिशाओं को बांधती रही है। मैं टकटकी बांध कर देखता रहा हूँ उसे। लगा है उसका गिलास भरने के बाद वो मेरा रीता गिलास भी भरेगी। उसके सहयोग से ही मेरा थोथा मन भारी पड़ जाएगा और उसी की प्रेरणा मुझे सच्चा मार्ग दर्शन देगी। लगा है – मैं कोई विद्वान बन गया हूँ – वही काली दास हूँ और संस्कृत के श्लोक पर श्लोक बोल चला जा रहा हूँ – ऐ आषाढ़ के आवारा बादल सुन ..”
“लो! पीओ! चियर्स!” कह कर सोफी ने दोनों गिलास भिड़ा दिए हैं।
“गॉड ब्लेस यू!” मैं कह गया हूँ।
“विद ए सन!” सोफी वाक्य पूरा कर गई है।
एक अट्टहास की हंसी मन में फूटी है। कोई डर भाग गया है। सोफी मुझसे लिपट गई है। बीच का अज्ञात का अंधेरा किसी दिव्य ज्योति से सजग हो उठा है। मन खिल उठा है!
“तुम से डर जाता हूँ!” मैंने सोफी को बांहों में भरने के बाद कहा है।
“और मैं – तुम से!” सोफी ने एक जैसी कोई बात उगल दी है।
“नादान की दोस्ती ..?” मैंने पूछा है।
“नहीं दलीप! तुम में जो आग सुलग रही है उससे डर लगता है!” सोफी ने गंभीरता पूर्वक कह दिया है।
मैं सोफी को देखता रह गया हूँ।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड