“रात कैसी कटी?” मैंने हंसते हुए सोफी से पूछ लिया है।
प्रश्न के साथ-साथ हमारी चंचल आंखें ठहर कर एक दूसरे से यही प्रश्न पूछ रही हैं। सोफी ने मुझे बहुत प्यारी नजर से घूरा है और कहा है – सुपर्ब!
एक गौरव मुझमें व्याप्त होता लगा है। पुरुष होने का गौरव – एक समर्थता रखने का गौरव मुझसे कह रहा है – तुम में सोफी को बांध लेने की शक्ति निहित है, एक अद्वितीय पुरुषार्थ से तुम संपन्न हो और तभी तो सोफी तुम पर जान देती है।
लगा है मैं एक तूफान जैसी संज्ञा रोक कर जी रहा हूँ। प्यार और सम्मोहन की ये विकट आंधी मैंने अंतर में भर ली है, सांस रोक कर इसे अपने सीने में कैद कर लिया है और हलकी फुल्की तोड़ फोड़ या प्रेम सायकों से बने खाई जैसे घाव मुझे और भी प्रिय लगने लगे हैं।
“क्या सोच रहे हो?” सोफी ने मेरी विचारधारा में खलल डाल दिया है।
“तूफान के बारे में!”
“तूफान कहां है यहां?”
“यहीं है – मौजूद है!”
“तूफान ..? यू मीन – स्टॉर्म?”
“यस, यस! तूफान मीन्स स्टॉर्म – मेरे सामने जो खड़ा है!”
“यू मीन – मैं?”
“हां! सोफी, औरत एक तूफान ही होती है।”
“कैसे?”
“इस तूफान के कई पहलू होते हैं। कई गुण स्वभाव हैं इसके और हर दिशा में मुड़ने पर एक भिन्न क्रिया होती है।”
“पहेली मत बुझाओ!”
“अरे, बात एकदम साफ है। औरत के अनेक रूप होते हैं। तूफान की तरह भयंकर भी और मलय समीर जैसी सुखद भी! भगवान बचाए उस गरीब को जो किसी औरत की नफरत का शिकार हो जाए!”
“औरत की नफरत तुम कैसे परख पाए हो?” सोफी ने गंभीर स्वर में पूछा है।
सोफी के चेहरे पर कुछ चोर भाव छप गए हैं। लग रहा है मेरी बात की प्रतिक्रिया के दृश्य उसे मुझसे कहीं कोसों दूर खींच रहे हैं। शायद विगत के जीवन की कोई चोट उभर आई लगती है।
“बहुत करीब से परखा है!” मैंने मरियल सी आवाज में इस तरह कहा है मानो अपने अनगिनत अपराध स्वीकार कर गया हूँ।
“नफरत के तूफान ने तोड़ा नहीं?”
“नहीं! अब तक तो साफ बच गया हूँ। आगे ..”
सोफी कहीं दूर देख रही है। उसके मन में आंधी उठ खड़ी हुई है, सोया तूफान जाग गया है, नफरत भर गई है और चेहरा आरक्त हो गया है। मैं अपनी गलती का एहसास करके – माफ करो, जैसा कोई वाक्य चेहरे पर छाप कर दिखाता रहा हूँ पर सोफी वापस नहीं लौटी है।
“आगे कोई ऐसा काम मत करना जो ..”
“नहीं करूंगा” मैंने सोफी का आदेश मान लिया है।
पहली बार सोफी का इतना विद्रूप चेहरा देखा है। इतनी गहरी कोई चोट परखी है और अब निर्णय कर पाया हूँ कि सोफी एक दम सांसारिक है – एक दम साधारण लड़की है। हम दोनों में सिर्फ अनुभव का अंतर है। लगा है सोफी के मन पर भी अजगर के मुंह जैसी लंबी-लंबी खइयां खुदी हैं। उनपर नफरत की परतें चढ़ी हैं और लाखों चोटों के निशान बने हैं।
“चलो चलें! लंबा रास्ता है!” सोफी ने मुझे मदद करने के लिए आमंत्रित किया है।
हमने सब कुछ चटाक पटाक निबटा दिया है। रैन बसेरा कर प्रकृति के अमूल्य आनंद को भोग दो सैलानी अब अगली मंजिल पाने को तैयार हैं। पल भर का ठहराव भी शायद भला लगता है। लंबी यात्रा के लिए बार बार मन चाहता है। रुकना एक बासी सा स्वाद घोल देता है तो चलना कोई चाह भर जाता है। मुझे तो चलने में ही मजा आता है।
“शाम तक सेंट फ्रांसिसको पहुंच जाएंगे।” सोफी ने बताया है।
“ठीक है! पहुंच तो जाएंगे?” मैंने गंभीर स्थिति को तरांसने का प्रयत्न किया है।
“शायद ..” सोफी ने भी वही अविश्वास जो अब भी उसके मन में भरा है – एक घृणित वमन पदार्थ की तरह मेरे सामने पटक दिया है।
“कोई खतरा ..?”
“जिंदगी के किस मोड़ पर कौन सा खतरा खड़ा मिल जाए – पता नहीं चलता!”
“जो अनिश्चित है उससे डरा क्यों जाए?”
“डर – लगने लगता है दलीप! कभी कभी तो अपने बहुत निकट के संबंधियों से भी डर लगने लगता है।”
“मुझसे भी?”
“हां! तुमसे भी ..”
“तुम्हें डरना भी चाहिए। बहुत खतरनाक जानवर हूँ!” मैंने सोफी को तनिक टहोक दिया है।
“इंसान को जानवर बनते देर क्या लगती है?”
“बस, नकाब उतार फेंकना होता है। जानवर तो हम हैं ही!” मैंने बात का समर्थन किया है ताकि सोफी सध जाए।
आज पहली बार सोफी को यों भावावेश में बहता देख मैं भी डर गया हूँ। वास्तव में सोफी मुझे वीरानी सी कोई वस्तु लगने लगी है जिसे मैं उधार मांग लाया हूँ। शायद कोई गहरी चोट उभरी है। मेरे प्यार का मरहम भी टीस कम करने में काट नहीं कर पा रहा है। मैं सोफी को वापस उसी हास परिहास की दुनिया में घसीट ले जाना चाहता हूँ पर वो जुम्मस नहीं खा रही है।
“तुम परसों जाओगे ना?”
“हां!”
“और .. यानी – दो चार दिन ..?”
“शायद .. नहीं, सोफी ..”
“बस बस! चले जाना!”
“मैं .. यानी के ..”
“मजबूर हूँ, यही न? मैं कब रोकती हूँ!” गंभीर सोफी जहर उगल रही है।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड