दूसरे दिन जब मैं तीसरी गाड़ी ले कर अपने काम के लिए निकला हूँ तो तनिक नर्वस सा लगा हूँ। पता नहीं गाड़ी ठीक भी चला पाऊंगा या नहीं। और काम होगा भी कि नहीं। लेकिन अपने ये कमजोर मनोभाव अपने ऊंचे मनोबल के नीचे दबोचे मैं सारा विश्वास समेटे अकेला ही निकल पड़ा हूँ। गलती करने से मैं नहीं डरता क्योंकि हर इंसान को गलती करने का हक हासिल है। जब कोलंबस अमेरिका खोज सका तो क्या मैं इस साइनबोर्ड पहने न्यूयॉर्क में रास्ता भी भूल जाऊंगा?
आंखें पसार कर देखने पर हर सड़क के नुक्कड़ पर आदेश लिखे हैं और हर बिल्डिंग नेम प्लेट पहने खड़ी अपना अभिप्राय जाहिर करती लगी है। मैं कुमार साहब के निर्देश पर आगे बढ़ता गया हूँ। शहर की आबादी तनिक छटी है तो सांस लौटी है। मैंने एक व्यक्ति से अपने गंतव्य के बारे में पूछा है तो उसने बड़ी ही शिष्टता से मुझे हर बात समझा दी है।
“हैलो मिस्टर दलीप!” स्मिथ एंड कंपनी के मुख्य संचालक ने मेरा स्वागत किया है।
आने से पूर्व पहले दिन ही ये समय नियुक्त कर दिया गया था और मिस्टर रॉबर्ट मेरे आने के इंतजार में थे।
“देखिए ये डिफैक्ट रिपोर्ट!”
“हमारे पास पहुँच गई है!” रॉबर्ट ने अपनी फाइल खोलते हुए कहा है। “आपको जो असुविधा हुई है उसके लिए हमें क्षमा करें। आपके दिए पते पर नए पुर्जे हमने भेज दिए हैं।” रॉबर्ट ने सूचना दी है।
शिष्टाचार, डिशीजन लेने और काम करने की फुर्ती और बातचीत के लहजे ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। तभी शायद अमेरिका विश्व में सबसे ज्यादा व्यापार कर पाता है – मैं सोच रहा हूँ। स्मिथ एंड कंपनी मुझ जैसे करोड़पति खरीद सकती है पर ये लोग यह नहीं भूलते कि इनका अस्तित्व हम जैसों के ऊपर ही टिका है।
यहां के बाद बैंक, बैंक के बाद न्यूयॉर्क कॉमर्शियल और उसके बाद हिन्दुस्तान की व्यापारिक एक शाखा जो यहां आए माल की खपत में मध्यस्थता करती है। मैं मान गया हूँ – जो काम मुझे भारी लगा था, जो देहली में हफ्तों का काम था यहां घंटों में होता चला गया है। यहां वास्तव में समय ही धन है – मैं मान गया हूँ। काम में कोई पॉलिटिकल हिच मुझे अड़ती नहीं दिखाई दी है।
शाम को घर लौटा हूँ तो अनु ने स्वागत किया है। घर पर अकेली है। बच्चे बाहर गए हैं और कुमार साहब अभी तक नहीं आए हैं।
“काम हो गया भइया!” अनु ने हंस कर पूछा है।
“कमाल ही हो गया दीदी! भाई मान गए आप के अमेरिका को।”
“यही तो यहां की खूबी है।” अनु ने खुश होते हुए समर्थन किया है।
“जीजी जी क्या करते रहते हैं? जब देखो तब घर से गायब!” मैंने अनु को चिढ़ाया है।
“काम ..!”
“और ये बच्चे ..?”
“काम, काम भइया!”
“काम के पीछे तुम लोग पागल मत हो जाना। भइया मैं तो जाऊंगा।” मैंने अनु को चिढ़ाते हुए कहा है।
“लो कॉफी पी लो। तुम नहीं जाओगे!” अनु ने फैसला सुनाया है।
“अरे हां! शाम का खाना ..?” मैंने अजान बनते हुए भुलक्कड़ों की तरह कहा है।
“वो आ कर ले जाएगी!” अनु ने हंस कर कहा है।
“अरे रे! माई सिस्टर, दीदी, ग्रेट ग्रेट दीदी!” मैंने अनु को कौली में भर कर खूब झिंझोड़ा है।
लगा है भाई बहन का प्यार चर्म सीमा पर जा कर रुक गया हो। और हम दोनों का है ही कौन? हम दोनों अकेले में घर विद की बातें बतियाते रहे हैं। बाबा, मां, नौकर और बचपन, सभी एक एक विषय जैसा बनकर सामने आता गया है – बहुत रोचक लगा है।
दोनों बच्चे ठीक सात बजे आए हैं। दोनों में कोई विवाद छिड़ा है और मधु रणजीत को उलटी सीधी सुनाती आ रही है। मैं अनु की ओर देख कर मुसकुराने लगा हूँ। अनु को अपना अतीत सामने खड़ा नाचता लगा है।
“तुम्हारी तरह ही झौपटिया लड़ती है।” मैंने अनु को चिढ़ाया है।
“वो कौन कम है। बिलकुल तुम्हारी तरह जिद्दी है।” अनु ने अपना पक्ष संभालते हुए उत्तर दिया है।
“सच! कितना मजा आता है!” मैंने इस तरह कहा है मानो अभी मैं अनु से लड़ा हूँ।
वास्तव में इस झगड़े से प्यार की आवृत्ति होती है। जब हम जूझ चुकते मन में भरी ग्लानि और रोष रिता चुकते हैं तब शिकायत और सिफारिशों का समय चुक जाता है तो संधि एक अजीब सा सौहार्द लिए हमें आगोश में ले लेती है।
“मां! ये भइया को दे देना और फिर के लिए रख लेना!” आदि इत्यादि अनु के संवाद होते।
“मैं दीदी को कार दूंगा – शिमला वाला घर दूंगा ..!” आदि इत्यादि कह कर मैं बहन के प्रति प्यार का परिचय देता।
और अब? न अनु कुछ कह पाती है और न मैं कुछ दे पाता हूँ! कितना कुछ हमारे बीच में आ घुसा है? अनु बिलकुल पराई लगती है – एक दम बदली बदली जिसे मैं कोशिश करने के बाद भी समझ नहीं पाता!
“मामा जी तो रानू के फैन हैं!” मधु ने कहा है।
“मामा जी ये झूठ बोलती है। झूठी है .. चोर ..” रणजीत ने साधा वार किया है।
“अच्छा! मुझे फिर चोर बोला?” कहते हुए मधु रणजीत पर झपटी है।
मैंने दोनों को अपनी बाहों में भर कर कलेजे के पास समेट लिया है। एक सुख उपजा है – महान, अवर्णित आनंद और अनुभूति मुझे हुई है। इन दोनों के शरीरों से आती ताजा गंध की सुगंध मुझे वरदान सा लगती है। रोष में दोनों के लाल लाल चेहरे मोहक हैं और दोनों में जूझने की शक्ति के अपार पारावार भरे हैं।
“लड़ते नहीं, मेरे बच्चों!” मैंने फुस फुस आवाज में कहा है और दोनों के चुंबन लेता रहा हूँ।
दोनों बच्चे मुझसे चिपक गए हैं ओर प्यार के बदले प्यार बहता रहा है – अनवरत! कोई सूखी नदी जल से लबालब भर कर बह चली है। अनु दूर से देख कर खुश होती रही है मानो हम तीनों समझदार बच्चे हों और वो एक चतुर मां!
“लो आ गई। मरे जा रहे थे न?” अनु ने उलाहना दिया है।
बाहर कार रुकी है। कार का दरवाजा जोर से बंद हुआ है और फिर घर की घंटी बजी है। रणजीत दौड़ कर दरवाजा खोलने गया है।
“मामा जी अभी तक नहीं आए!” उसने शरारत से कहा है।
“चल! लुच्चा कहीं का!” सोफी ने उसे डांटा है।
सोफी के यूं शब्द उच्चारण और ज्ञान पर मैं कई बार रीझ गया हूँ पर जब से उसने मुझे गीता का गुटखा दिखाया है मुझे कभी शंका नहीं होती है। सोफी अंदर आ रही है। अनु मुझे घूरे जा रही है ताकि मन से उठी प्रतिक्रिया चेहरे पर आते ही दबोच ले। मैं तनिक सहमा सा वहीं बैठा रहा हूँ। सोफी दरवाजे में खड़ी मुझे देखती रही है। मैं आश्चर्य से भरा अपना कौतूहल रोक नहीं पाया हूँ।
“हाय देयर!” साड़ी में सजी संवरी सोफी मुझे साक्षात रति का अवतार लगी है।
मेरी आंखें सोफी के ऊपर जा गढ़ी हैं। लगा है सोने में सुगंध सी है वो साड़ी! पहनने में कोई खोट नहीं, पल्लू संभालने में न कोई नादानी है और न अनाड़ी पन! ब्लाउज देह पर कस कर तना है ताकि अंगों का उभार आकर्षक लगे!
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड